जाति और रसूख के हिसाब से न्याय और मुआवजे का ‘राम राज्य’!


भाजपा के नेताओं, प्रवक्ताओं और कुछ मीडिया संस्थानों ने योगी आदित्यनाथ की अपराध और भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त फैसले लेने वाले मुख्यमंत्री की एक काल्पनिक छवि गढ़ दी है। प्रचारित किया जा रहा है कि योगी आदित्यनाथ के आने के बाद से उत्तर प्रदेश में ‘रामराज्य’ आ गया। भ्रष्टाचार पर लगाम लग गयी, कानून व्यवस्था दुरुस्त हो गयी, अपराधी पलायन कर गए, जिन अपराधियों ने पलायन नहीं किया उनको ठोक कर शमशान घाट पहुंचा दिया जा रहा है और घरों पर बुलडोजर चलवा कर उनकी संपत्तियां सीज करवा दी जा रही हैं। यह सच है या सिर्फ कोरा प्रचार भर, इसे जानना जनता के लिए बेहद जरूरी है।

योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद लखीमपुर खीरी, गोरखपुर, उन्नाव और हाथरस की घटनाएं काफी चर्चित रही हैं। यह वे बड़ी घटनाएं हैं जिन्होंने यूपी को अपराधमुक्त बना देने का दंभ भरने वाले योगी आदित्यनाथ की पोल खोल कर रख दी है। जिन घटनाओं के बारे में लोगों को पता नहीं चल पाया, जो घटनाएं मुद्दा नहीं बन पायीं उन्हें तो छोड़ ही दीजिए। मीडिया के एक हिस्से और भाजपा द्वारा बनायी गयी योगी की ‘सख्त और निष्पक्ष प्रशासक’ की काल्पनिक छवि के परदे को इन घटनाओं ने उतारकर नंगा कर दिया है। आप जरा ठीक से याद करिए कि क्या आपने इनमें से किसी मामले में आरोपियों के खिलाफ बुलडोजर चलते हुए या उनकी संपत्ति सीज होते हुए देखा?

खुद सोचिए कि क्या अधिकतर घटनाओं में सरकार कभी जाति और कभी दलीय आधार पर भेदभाव या पक्षपात करती नजर नहीं आयी? जब भी किसी रसूखदार व्यक्ति के अपराध में लिप्त होने का मामला सामने आया तब सरकार कार्रवाई करने में इरादतन देरी करती नजर नहीं  आयी? क्या योगी सरकार ने अपराध और भ्रष्टाचार जैसे मामलों में लिप्त अधिकारियों और लोगों पर कार्रवाई करने में भी दलगत और जातिगत आधार पर ही फैसले नहीं लिए?

ठोक देंगे, मार देंगे, शमशान पहुंचा देंगे जैसे शब्दों से क्या यूपी की कानून व्यवस्था ठीक हुई? नहीं न! इससे तो सिर्फ अराजकता को ही बढ़ावा मिला है। यूपी में पुलिसिया बर्बरता की जितनी कहानियां सामने आ रही हैं अधिकतर ‘ठोक देंगे’ वाले जुमले से प्रेरित हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन साल (2018-19 से 2020-21) में 1318 लोगों की पुलिस और न्यायिक हिरासत में मौत हो चुकी है जिसे कस्टोडियल डेथ के नाम से जाना जाता है। यह देश में सबसे अधिक है। कस्टोडियल डेथ के शिकार लोग किस जाति-बिरादरी या समुदाय से थे? यह आगे के शोध का विषय हो सकता है। यह अराजकता ही तो है कि कस्टडी में मर गए लोगों से आपने खुद को बेगुनाह साबित करने तक का हक भी छीन लिया!

पुलिस और न्यायिक हिरासत में मौत और मुठभेड़ में मौत के सरकारी आँकड़े

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पिछले दिनों मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का विकास देखने गोरखपुर गए युवा व्यवसायी मनीष गुप्ता के साथ पुलिस ने जो किया वह सबको मालूम है। गोरखपुर के डीएम और एसएसपी ने जिस तरह आरोपी पुलिसकर्मियों को बचाने की कोशिश की वह संवेदनहीनता और बेशर्मी की एक मिसाल बन गयी। दोनों अफसरों का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा था जिसमें डीएम विजय किरन आनंद और एसएसपी विपिन टाडा मृतक की पत्नी मीनाक्षी और उनके परिजनों को केस दर्ज न कराने और ‘कोर्ट-कचहरी के चक्कर’ में न पड़ने की सलाह देकर दबाव बना रहे थे। अफसरों के इस रवैये को पीड़ित के लिए न्याय के दरवाजों को बंद करने की कोशिश के तौर पर क्यों न देखा जाए? क्या दोनों अधिकारियों का ये रवैया उनके गैर जिम्मेदार होने, मनमानी करने और अपने पदीय दायित्वों के प्रति लापरवाह और अकर्मण्य होने का सूचक नहीं था? क्या गोरखपुर के डीएम और एसएसपी पर कोई कार्रवाई नहीं बनती थी? क्या उन्हें फील्ड की पोस्टिंग से हटाया नहीं जाना चाहिए था? और पता करिए कि मनीष गुप्ता हत्याकांड के आरोपी पुलिसकर्मियों के घर बुलडोजर पहुंचा क्‍या? संपत्तियां सीज हुईं?

आजमगढ़ में भी पुलिस की संवेदनहीनता के कई मामले सामने आ चुके हैं। पिछले दिनों अपना वाहन रोके जाने से भड़क कर आजमगढ़ के तत्कालीन एसपी सुधीर कुमार सिंह ने न्याय मांगने आए पीड़ित परिवार के एक युवक को गाली देते हुए पीट दिया। थाने में सुनवाई न होने पर न्याय की गुहार लेकर एसपी के पास गया कोई आदमी अगर पीट दिया जाए तो फिर वह न्याय के लिए कहां जाए?

पहले जिन्हें थाने से न्याय नहीं मिलता था उसे एसपी कार्यालय से उम्मीद होती थी। ब्लॉक से न्याय नहीं मिल पाता था तो तहसील और जिला अधिकारी कार्यालय से उम्मीद रहती थी लेकिन अब पीड़ितों के सामने इस बात का भी संकट है कि ऐसे अधिकारियों के रहते वह न्याय पाने के लिए जाएं तो कहां जाएं?

कुछ साल पहले तक जो स्थिति थानों और ब्लॉक मुख्यालयों की हुआ करती थी वही स्थिति आज डीएम और एसपी कार्यालयों की हो गयी है। संस्थाएं धीरे-धीरे भ्रष्ट होती जा रही हैं। पीड़ितों के लिए न्याय के दरवाजे बंद हो रहे हैं। जो प्रभावशाली नहीं है, जिसकी पकड़ शासन सत्ता में नहीं है ऐसे लोग तो थानों, तहसीलों और जिलाधिकारी कार्यालयों के अंदर जाने से भी डरने लगे हैं। सरकार अधिकारियों की कोई जवाबदेही तय करने में विफल रही है। इस कारण प्रशासनिक उत्पीड़न बढ़ रहा है। ऐसी बेलगाम पुलिस और बेलगाम नौकरशाही के दो ही कारण हो सकते हैं। या तो सत्ता में बैठे लोगों की हनक खत्म हो गयी है या फिर ऐसा उनके इशारे से हो रहा है। 

पुलिस उत्पीड़न का एक मामला आगरा में भी सामने आया। यहां थाने के मालखाने से ही 25 लाख की चोरी हो गयी। एक सफाईकर्मी को चोरी के आरोप में पकड़ा गया और पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो गयी। परिजनों ने पुलिस की पिटाई से मौत का आरोप लगाया। यहां सरकार ने मृतक के परिजनों को मुआवजा देने में जातिगत आधार पर भेदभाव किया। मृतक के परिजनों को दस लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी गयी और नौकरी देने का आश्वासन जबकि पुलिसिया बर्बरता के ही शिकार हुए विवेक तिवारी और मनीष गुप्ता के परिजनों को सरकार ने चालीस लाख रूपये की सहायता और नौकरी दी थी।

लखीमपुर खीरी का मामला हो, उन्नाव का हो या हाथरस का, हर जगह रसूख के आगे सत्ता का  ‘बुलडोजर’ ‘हांफता’ नजर आया है। लखीमपुर खीरी मामले में गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी ने एक सभा से खुलेआम किसानों को सुधर जाने की धमकी दी। उसके कुछ दिनों बाद ही उनके बेटे ने प्रदर्शन कर रहे किसानों पर गाड़ी चढ़ा दी जिसमें कई किसानों की मौत हो गयी। ये संयोग था या कोई प्रयोग? ये तो वही जानें लेकिन बेरहमी से किसानों को कुचल दिए जाने की घटना के बाद भी पुलिस ने मंत्री के बेटे के खिलाफ कोई त्वरित कार्रवाई नहीं की। कोर्ट, मीडिया और विभिन्न संगठनों का दबाव बढ़ने के बाद पुलिस ने मंत्री के बेटे को ‘बड़ी इज्जत’ और ‘अदब’ के साथ गिरफ्तार किया। बार-बार बुलडोजर चला देने, संपत्ति जब्‍त करवा देने की बात करने वाली सरकार के तेवर इस मामले में बिल्कुल गायब हो गए। पता करिए आशीष मिश्र के घर पर बुलडोजर पहुंचा? उसकी संपत्ति जब्ज की गयी?

लखीमपुर मामले की जांच चल रही है। अपराधियों को शमशान पहुंचा देने की बात करने वाली यूपी सरकार को एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने जांच में जानबूझ कर देरी करने पर फटकार लगायी है।

उन्नाव कांड की खबर तो सबको है कि कैसे बांगरमऊ सीट से तत्कालीन भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को शुरुआत में शासन-सत्ता ने बचाने के भरसक प्रयास किए। पीड़िता और उसके परिजनों को विधायक के खिलाफ केस दर्ज करवाने के लिए करीब आठ महीने तक संघर्ष करना पड़ा। पीड़िता के परिजनों को धमकाया गया। उन पर फर्जी मुकदमे दर्ज कर लिए गए। विधायक के इशारे पर पीड़िता के पिता को पुलिस हिरासत में पुलिस ने इतना पीटा कि उनकी मौत हो गयी। न्याय के लिए लड़ाई लड़ते-लड़ते पीड़िता का पूरा परिवार लगभग खत्म हो गया। उसको अपने पिता, चाची और मौसी को खोना पड़ा। आखिरकार कुलदीप सेंगर रेप और अपहरण के मामले में दोषी करार हुआ और उसे उम्रकैद की सजा सुनायी गयी। रेप पीड़िता के पिता की पुलिस कस्टडी में मौत के मामले में भी सेंगर और अन्य को कोर्ट ने 10 साल की सजा सुनायी। दोषियों में यूपी पुलिस का एक एसएचओ और एक सब-इंस्पेक्टर था। कुलदीप सेंगर से जुड़ा मामला अगर सीबीआई के हाथ में नहीं जाता तो क्या यूपी पुलिस और योगी सरकार इस मामले में कभी न्याय कर पाती? आप पता करिए बात-बात में बुल्डोजर चलवाने वाली सरकार कुलदीप सेंगर के घर बुल्डोजर लेकर क्यों नहीं पहुंची?

उन्नाव रेप केस में तत्कालीन डीएम अदिति सिंह, दो एसपी पुष्पांजलि सिंह व नेहा पांडेय और एक एएसपी अष्टभुजा सिंह को भी सीबीआई ने इस मामले में लापरवाही का दोषी माना था। सीबीआई का कहना था कि पीड़िता की जगह इन्होंने कुलदीप सेंगर की मदद की, लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने सीबीआई की जांच को ही गलत ठहरा कर अधिकारियों पर कार्रवाई करने से इनकार कर दिया। यहां एक महत्वपूर्ण बात जो आपको जान लेनी चाहिए कि यह सभी अधिकारी सवर्ण थे।

कुछ ऐसा ही हाल हाथरस कांड में भी था। शासन सत्ता में बैठे लोगों के प्रभाव में आकर इस मामले को भी दबाने की पूरी कोशिश की गयी। इस मामले में पुलिस ने एफआईआर की धाराओं को तीन बार बदला। पहले सिर्फ हत्या के प्रयास का मुकदमा दर्ज किया गया था। उसके बाद गैंगरेप की धाराएं जोड़ी गयीं। पीड़िता की मौत के बाद हत्या की धाराएं भी जोड़ी गयीं। जब मीडिया में इस मामले ने तूल पकड़ा और देश भर में जगह-जगह प्रदर्शन शुरू हुए तब जाकर आरोपितों के खिलाफ कार्रवाई शुरू हुई। पुलिस ने इस मामले में पहली गिरफ्तारी पांच दिन बाद की थी।

उस वक्त जब पुलिस ने पीड़िता का जबरन अंतिम संस्कार कर दिया तो पुलिस की इस कार्रवाई को साक्ष्य मिटाने की कोशिश के तौर पर भी देखा गया था क्योंकि पुलिस ने ऐसा करके दोबारा पोस्टमार्टम की संभावना को ही खत्म कर दिया था। इस मामले में हाईकोर्ट की टिप्पणी सरकार और पुलिस की नीयत पर सवाल उठाने के लिए काफी है, हालांकि बाद में चार्जशीट में सीबीआई ने चारों आरोपितों पर गैंगरेप और उसके बाद हत्या के गंभीर आरोप लगाए। पता करिए इस मामले के आरोपितों की संपत्ति जब्त हुई? उनके घरों पर बुलडोजर चला?

सीएम के गृह जनपद गोरखपुर में जिला पंचायत का चुनाव लड़ रहे रितेश मौर्य नाम के एक युवा नेता की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। पुलिस आरोपितों को गिरफ्तार नहीं कर सकी। चंद दिनों बाद रितेश के हत्यारोपितों ने ही उनके करीबी शंभू मौर्य की भी गोली मार कर हत्या कर दी। इन दोनों हत्याकांडों के आरोपित बड़ी मुश्किल से महीनों बाद गिरफ्तार हुए। यह संयोग भी हो सकता है कि आरोपित सीएम की जाति से संबंध रखते हैं। दूसरी तरफ कुछ दिनों बाद इसी क्षेत्र में ठाकुर जाति से सम्बन्ध रखने वाली एक छात्रा की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। आश्चर्यजनक रूप से एक महीने के भीतर ही छात्रा के हत्यारोपित विनय प्रजापति का एनकाउंटर हो गया।

किसी भी सरकार से उम्मीद की जाती है कि वो अपने नागरिकों के साथ जाति, धर्म, लिंग, समुदाय आदि के आधार पर भेदभाव या पक्षपात न करे। सबका हक़-अधिकार, सुरक्षा-सम्मान और न्याय देना सुनिश्चित करे। सरकारी संस्थाएं निष्पक्षता के साथ कानूनों पालन करें और कराएं लेकिन भाजपा शासित यूपी में ऐसा नहीं होता। वहां गाहे बगाहे सरकार का दोहरा रवैया सामने आ जाता है। भाषणों के अलावा हर जगह व्यवस्था पक्षपात करती है। जाति के आधार पर न्याय और मुआवजा मिलता है। जिन आपराधिक घटनाओं में रसूखदारों की कोई भूमिका सामने आ जाती है, तुष्टिकरण की जरा भी गुंजाइश रहती हैं उनमें न तो सरकार का बुलडोजर चलता है और न ही सख्त एक्शन होता है। ‘ठोक देने’ और ‘शमशान पहुंचा देने’ की तो बात ही छोड़ दीजिए।


लेखक पूर्व संयोजक, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, उत्तर प्रदेश हैं


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