कल जब से एक सुपरस्टार प्रस्तोता यानी एंकर रोहित सरदाना की असमय मौत की खबरें आयीं, तभी से सोशल मीडिया का मुखर समाज अजीब नैतिक संकट से गुज़र रहा है। यह नैतिकता एक दृश्य-अदृश्य दीवार बनकर एक ही विचार-भूमि पर खड़े लोगों के बीच भी आ गयी जो पहले अलग-अलग विचार-भूमियों पर खड़े लोगों के बीच पायी जाती थी।
बुनियादी प्रश्न यहां यह है कि नैतिकता क्या विचार-निरपेक्ष है? नैतिकता का स्रोत क्या है? संस्कार, परंपरा, विचार, विचारधारा, संविधान या कुछ और? क्या नैतिकता के तकाज़े विशुद्ध व्यक्तिगत पसंद -नापसंद पर आधारित हैं या किसी के कुछ कहने के या न कहने के पीछे कोई न कोई ऐसा स्रोत है जहां से वह व्यक्ति किसी घटना पर कुछ कहने या न कहने के बारे में तय करता है?
कल रोहित सरदाना की मृत्यु के बाद से ही सोशल मीडिया पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं देखी जा रही हैं। प्रतिक्रिया देने वाले आपस में गुत्थमगुत्था भी हुए जा रहे हैं और एक-दूसरे की लानत-मलानत किए जा रहे हैं। बहस का मुद्दा मृत्यु है जो आज के समय की सबसे बड़ी सच्चाई है। हम सत्ता का काम आसान कर रहे हैं। पूरा एक दिन इस प्रसंग ने सत्ता को असहज किए जाने वाले सवालों से मुक्त रखा। इसलिए यह अकारण नहीं कि जिस न्यूज़ चैनल से यह प्रस्तोता जुड़ा था, उसने खबर ब्रेक करने में तो वक़्त लिया लेकिन जब एक बार चलना शुरू किया तो फुल कवरेज दी गयी। पार्श्व संगीत, पावरफुल विजुअल्स और सहयोगी एंकरों का रोना-बिलखना।
इसी बीच हिंदुस्तान की सत्ता के शीर्ष पर बैठी तमाम विभूतियों के शोक संदेश भी पढ़े गए। संस्मरण और एक इंसान के साथ बिताये पलों की स्मृतियां भी अलग-अलग हस्तियों ने साझा कीं। सब कुछ एक पैकेज में ढल कर आया। गौरतलब बात ये रही कि शोक संतप्त स्टूडियो में यह कार्यक्रम बिना कमर्शियल ब्रेक के नहीं चला, बल्कि किसी भी आम रोज़मर्रा के कार्यक्रम की तरह ही इसकी वाणिज्यिक संभावनाओं का भरपूर दोहन किया गया।
आज तक के स्टूडियो में जो प्यार और साथी-भाव तमाम सहकर्मियों में देखा और दिखलाया गया वह बेशक मार्मिक तो था। यह बहुत स्वाभाविक भी है और अपने सहकर्मी साथी को खोना वाकई एक बुरा अनुभव है। इस साथी-भाव ने यह भी बतलाया कि अरुण पुरी ने वाकई बहुत अच्छी टीम बनायी है जहां प्रतिस्पर्द्धा या दफ्तरी टांग-खिंचाई के लिए कोई स्थान नहीं हैं। इन एंकरों के बीच किसी तरह की कोई प्रतिद्वंद्विता भी नहीं है। लगा जैसे उनकी यह काबिल टीम वेतन-भत्तों और इन्सेंटिव्स आदि के दुनिवायी मामलों से ऊपर उठकर एक मिशन के लिए मिशनरी भाव से काम करती है वरना पत्रकारिता जगत में गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा की चर्चाएं आम रही हैं। (संदर्भ- अर्नब गोस्वामी की लीक चैट)। यह एक आदर्श स्थिति है जो उद्देश्यों, विचारों और विचारधाराओं के एक होने से पैदा होती है वरना पेशेवर ज़िंदगी में इतना साथी-भाव और इतनी सहृदयता गरिष्ठ सी है।
‘सत्ता’ ने भी अपने संरक्षण और अपनी निजता के भाव को इस डर से नहीं छुपाया कि कोई उस पर भेदभाव या दोहरा रवैया अपनाने की तोहमत लगा सकता है, बल्कि उसके हर प्रतिनिधि ने- राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री और कैबिनेट के तमाम मंत्रियों के साथ तमाम मुख्यमंत्रियों ने- रोहित को बहुत करीबी की तरह श्रद्धांजलि प्रेषित की। इससे रोहित के परिवार को जितनी सांत्वना मिली होगी और जाने वाले पर गर्व का एहसास हुआ होगा उतना ही उनके सहकर्मियों को अपनी सुरक्षा और रुतबे का एतबार भी हुआ होगा। सत्ता ने इस अर्जित सुरक्षाबोध का दरियादिली से एहसास करवाया।
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन ने रोहित को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता होने के नाते याद किया, तो हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को उस जमाने की याद आयी जब वो युवा रोहित को अपने साथ शाखाओं में ले जाया करते थे। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने उन्हें बहादुर पत्रकार कहा तो किसी ने उन्हें प्रखर राष्ट्रवादी पत्रकार भी कहा।
सत्ता द्वारा अर्पित इस श्रद्धांजलि के बरक्स सोशल मीडिया पर कई जगह रोहित सरदाना द्वारा एंकर किए गए न्यूज़ आइटम्स के शीर्षक चस्पा किए गए। किसी ने उनके ट्वीट्स चस्पा किए। किसी ने उन्हें अनादरांजलि दी। किसी ने उनके कर्मों का हिसाब-किताब किया और किसी ने बड़प्पन दिखलाते हुए उन्हें इस शर्त पर श्रद्धांजलि दी कि उनकी वैचारिकी से असहमति के बावजूद उनके प्रति संवेदनाएं दी जाना चाहिए। किसी ने उनकी बेटियों के लिए उन्हें श्रद्धांजलि दी। श्रद्धांजलि देने वाले इस मासूम सी बात को भूल गए कि श्रद्धांजलि में ‘’श्रद्धा’’ ही मूल है। अंजलि तो महज़ औपचारिकता है। दिलचस्प ये रहा कि श्रद्धा के बगैर भी श्रद्धांजलियों का तांता लग गया। जिन्हें श्रद्धा नहीं थी उन्होंने श्रद्धांजलि नहीं दी।
अब जिसने उनके जाने पर उनके पुराने किए कर्मों का उल्लेख किया उनको बड़प्पन दिखलाने वाले लोगों ने आड़े-हाथों लेना शुरू किया। उन्होंने कहना शुरू किया कि ये तो मानवता नहीं है, ये तो संस्कार नहीं हैं, वगैरह वगैरह। रात ढलते-ढलते तक मामला नैतिकता के भंवर में फंस गया।
अपनी बात को ठोस आधार देने के लिए ‘मंटो’ से लेकर ‘पाश’ तक के हवाले दिये गये और बात रोहित के कर्मों से हटकर, सरकार की घनघोर विफलताओं से हटकर, ऑक्सीज़न और ज़रूरी दवाइयों की किल्लत की चिंताओं को पीछे छोड़ इस पर आ गयी कि कौन कितना बड़ा अनैतिक है। जिसने श्रद्धांजलि दी उन्हें ऐसा करने से जाहिर तौर से रोका नहीं गया, लेकिन जिसने उसके कर्मों के साथ उसे किसी भी रूप में याद किया उन्हें कहा गया कि थोड़ा तो लिहाज करना चाहिए। हम कितने अमानवीय हो गए हैं!
इसके बाद तर्कों-कुतर्कों की पोटली खुल गईं। लोगों ने कहना शुरू किया कि अगर किसी की मृत्यु के बाद उसके कर्मों पर बात करना अनैतिक है तो हर साल रावण के पुतले क्यों जलाये जाते हैं? क्या इस बड़प्पन की दुहाई देकर गोडसे को भी माफ कर दिया जाना चाहिए?
अभी बहस खत्म भी नहीं हो पायी थी कि खबर आयी कि भूतपूर्व सांसद, मशहूर शूटर और अपराधी रहे शाहबुद्दीन भी कोरोना से ‘शांत’ हो गये। अभी-अभी रागिनी तिवारी के बारे में भी खबर आ गयी। अब यह नैतिक संकट और भी गहरा गया। जो लोग राजद समर्थक हैं उनके लिए शाहबुद्दीन ठीक वही नहीं है जो उनके लिए होगा जो वामपंथी नेता चन्द्रशेखर को मानते हैं। रागिनी तिवारी के मरने से दंगाई मोर्चे में शोक की लहरें होंगी लेकिन रागिनी तिवारी के ज़हर से जिनके घर उजड़े वहां से श्रद्धांजलि नहीं आएगी।
अब जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल और जिज्ञासा है वो ये कि इन लोगों का ज़िक्र यहां हुआ ही क्यों है जबकि कल और आज में कुल आठ हज़ार से ज़्यादा लोग काल कवलित हुए हैं और ज़्यादातर असमय क्योंकि वे महामारी से मरे हैं। इसका सीधा जवाब है कि ये तीन हस्तियां इसलिए चर्चा के केंद्र में हैं क्योंकि ये मशहूर थीं। मशहूर क्यों थीं? क्योंकि इन्होंने सार्वजनिक जीवन में कुछ किया है? इनके बारे में खबरें छपी हैं। ये खुद खबर रहे हैं। इनमें रोहित तो खुद खबरनवीस ही थे, हालांकि जो रुतबा रोहित जैसे खबरनवीसों को हासिल है वो देश के शून्य दशमलव शून्य एक प्रतिशत पत्रकारों को भी नहीं है। इसकी वजह है कि रोहित जैसे खुशनसीब पत्रकार जो अपने जीते जी और अपने मरने के बाद भी खबर बने रहे उनके पास अपनी ही बिरादरी के अन्य पत्रकारों से अतिरिक्त कुछ ऐसा है जो बाकी के पास नहीं है। अगर ऐसा नहीं होता तो वो पत्रकार भी व्यक्तिगत तौर पर जीते जी न सही मरने के बाद महज़ आंकड़े नहीं बल्कि खबर भी बनते।
ऐसे पत्रकारों के बारे में कल ही जनपथ ने एक विस्तृत ब्यौरा दिया है। हमें यकीन करना चाहिए कि इन पत्रकारों को स्थानीय पार्षद ने भी श्रद्धांजलि न दी होगी क्योंकि ये पेशे से पत्रकार थे, पेशेवर थे। जैसे कानून के बहुत प्रखर पेशेवर सोली सोहराब जी का भी कल निधन हुआ, लेकिन वो पेशेवर थे इसलिए उनके बारे में कुछ खास चर्चा नहीं हुई।
रोहित पेशेवर पत्रकार नहीं थे। अगर होते तो उसकी पहली कसौटी यही होती कि सत्तापक्ष से उन्हें इतना संरक्षण न मिला होता। इसकी पुष्टि रोहित के तमाम धतकर्म भी करते हैं जो उन्होंने पत्रकार के रूप में किये। पत्रकारिता उनका पेशा था, वो पेशेवर पत्रकार नहीं थे। यह भेद ही उन्हें रोहित सरदाना बनाता था। ऐसे ही भेद सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया, अरनब गोस्वामी, रजत शर्मा और अंजना ओम कश्यप, चित्रा त्रिपाठी, रूबिया लियाकत, सुमित अवस्थी, नविका कुमार और अमीश देवगन जैसे लोगों की अर्जित संपत्ति है। पेशा होना और पेशेवर होने का यही अंतर उन्हें वो बनाता है जो वो हैं। यही अंतर उन्हें सत्ता के नजदीक रखता है।
कुछ लोगों ने कहा भी कि वो नौकरीपेशा लोग हैं। जैसा मालिक कहेगा वैसा करेंगे। क्या बात इतनी मासूम है? जिस रूप में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और संघ के कट्टर सेवक मनोहर लाल खट्टर ने उन्हें याद किया और जिस तरह की जहरखुरानी रोहित ने दर्शकों के साथ की, उसमें कहीं नौकर होने की विवशता दिखलायी देती है? न केवल रोहित बल्कि खुद एबीवीपी के कार्यकर्ता रहे रजत शर्मा या किसी और एंकर में ऐसी कोई मजबूरी दिखलायी पड़ती है क्या? ज़रूर दिखलायी पड़ती अगर वो अपने मालिक की मंशा और खुद की विचारधारा से इतर किसानों का, मुसलमानों का, आदिवासियों का, दलितों का और हर उत्पीड़ित वर्ग का पक्ष लेते दिखलायी पड़ते और सत्ता से उनके उत्पीड़न का हिसाब लेने के लिए आँखों में आँखें डालकर सवाल करते। अफसोस ऐसा दिखलायी नहीं दिया। कम से कम बीते सात साल में।
अब एक बात जो कहना महत्वपूर्ण है, वो ये कि वैचारिक असहमतियों के बावजूद वर्गीय अनुभूति भी कई लोगों के बड़प्पन का सबब बनी क्योंकि जिनके बड़प्पन और संस्कार ने रोहित के कर्म भूलकर उसे अच्छा इंसान साबित करने के लिए श्रद्धांजलि में उनके हाथ जुड़वा दिये, उनके अपने सगे हाथ रोहित से पहले दो हफ्ते में गुज़रे गुमनाम पत्रकारों के लिए कभी नहीं उठे।
खैर, संस्कारों और नैतिकता की दुहाई देकर न तो किसी से किसी को श्रद्धांजलि अर्पित करवायी जा सकती है और न ही किसी को ऐसा करने के लिए बाध्य किया जा सकता है क्योंकि इसके मूल में श्रद्धा है- जो अर्जित की जाती है अपने किये कर्मों से। उम्मीद है ये ज्वार थमेगा और जल्दी ही हम रोहित और रोहित जैसे कई प्रस्तोताओं की जहरखुरानी का फिर से शिकार होंगे। हम अभिशप्त लोग हैं, फेंके हुए। आर वी नोट थ्रोन पीपॅल??? येस, वी आर!!!