इस दुनिया में जब-जब अन्याय के खिलाफ प्रतिकार करने का समय आता है और अगर भारत के परिप्रेक्ष्य में बात करूं तो देश की स्थिति सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से विखंडित होती हुई महसूस होती है, ऐसे समय में आजादी बचाओ आंदोलन के महानायक डॉ. बनवारी लाल शर्मा की उत्साहजनक बातें याद आती हैं। वे कहा करते थे कि “हर युग में क्रांति तो विपरीत परिस्थिति में ही होती है!”
एक ऐसा शख्स, जो जितना बड़ा एकेडमिशियन था उससे कहीं अधिक वह ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ था। एक ऐसा बुद्धिजीवी जो बौद्धिक सेमिनारों में जितनी ताकत से अन्याय के खिलाफ, बहुराष्ट्रीय कंपनी के खिलाफ अपनी बात को रखता था। देश के सबसे अविकसित गांव में न्याय के पक्ष में और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के समांतर पीपुल्स सेक्टर के द्वारा जमीन पर काम करने का भी माद्दा रखता था।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा फैलाये जा रहे साम्राज्यवाद के खिलाफ उनके विचार और कार्य इतने स्पष्ट हैं कि उनके विचारों और कार्यों के दूसरे पक्षों की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। इसलिए उनके सहयोगी भी कभी-कभी यह ऐसा कह देते हैं कि वे सांप्रदायिकता के खिलाफ उतने मुखर नहीं थे जबकि यह बात पूरी तरह गलत है।
अपनी मौत से एक महीने पहले (अगस्त 2012) जब इलाहाबाद में कुछ विभाजनकारी शक्तियों के द्वारा शहर के सामाजिक सौहार्द के माहौल को बिगाड़ने की साजिश रची गयी तब डॉ. शर्मा ही थे जिन्होंने इलाहाबाद को सांप्रदायिकता की आग में झुलसने से बचाने के लिए पहल की थी। 1992 में बाबरी मस्जिद के ढांचे को जब गिराया गया था उस वक्त भी उन्होंने शहर के तमाम बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ शहर में अमन-चैन का माहौल बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।
सन् 74 के इस जेपी आंदोलनकारी ने अपनी सामाजिक यात्रा की शुरुआत आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से शुरू की थी। यह सुनने में बड़ा अकल्पनीय लगता है कि यह शख्स युवा अवस्था में अध्ययन के लिए ‘पेरिस’ जैसे ग्लैमरस शहर में रहकर भी भारतीयता को नहीं छोड़ा और ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया। पर्यावरणविद श्री आनंद मालवीय का यह कहना बिल्कुल उचित है कि हमने गांधी को नहीं देखा लेकिन डॉ. शर्मा के जीवन को नजदीक से देखकर गांधी को अच्छे से समझ लिया।
मुझे वह दिन याद है जब मैं 2004-05 में छात्र जीवन में डॉ. शर्मा के संपर्क में आया था। उस समय इलाहाबाद और देश भर के उनके अन्य संगठनों के सहयोगी उनकी घोर कॉरपोरेट-विरोधी नीति से पूरी तरह यह कह कर सहमत नहीं हो पाते थे कि आप राजनीतिक पार्टी पर फोकस किये बिना कॉरपोरेट को कैसे कठघरे में खड़ा कर सकते हैं। आज देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले कृषि क्षेत्र को जिस तरह कॉर्पोरेट अपने कब्जे में लेने के लिए राजनीतिक पार्टी का सहारा लेकर तीन काले कानून को लागू करवाने की बात कर रहा है इससे जाहिर होता है कि डॉ. बनवारी लाल शर्मा कितने दूरदर्शी थे।
आज हम लोग ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां पर लोकतंत्र नग्न हो चुका है, उसे कितना भी ढंका जाए वह अपना वीभत्स रूप दिखाता रहता है। सड़े-गले लोकतंत्र के समांतर नये समाज निर्माण के लिए “एक्टिविस्ट” तैयार करना हमेशा से कठिन तप का काम रहा है और डॉ. शर्मा जैसे लोगों ने वह करके दिखाया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि चंद अपवाद को छोड़कर ‘नये समाज निर्माण के लिए’ समाज के सहयोग से बने ज्यादातर ‘सामाजिक संगठन’ अपनी आखिरी सांसें गिन रहे हैं। बाहरी और बनावटी आवरण ओढ़े अपने दोहरेपनरूपी नग्न शरीर को लगातार धूर्तता रूपी कपड़े से ढंकने की कोशिश करते रहे हैं। ऐसी स्थिति में डॉ. बनवारी लाल शर्मा बरबस ही याद आते रहते हैं। उन्होंने कभी मुझसे कहा था कि गांधी के बिना भी देश आजाद हो जाता, गांधी की आवश्यकता तो आज है कॉरपोरेटी साम्राज्यवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई लड़ने के लिए। ठीक उसी प्रकार मैं यह कहना चाहूंगा कि देश जैसे-जैसे सामाजिक विघटन की ओर बढ़ रहा है डॉ. शर्मा जैसे लोगों की आवश्यकता और बढ़ती जा रही है।
अभी कुछ रोज पहले हमने सुप्रसिद्ध इतिहासकार, संस्कृतिकर्मी और साहित्यकार प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा को खोया है। प्रगतिशील समाज के लिए यह एक जोरदार झटके के समान है। मैं यह बात विशेष रूप से इसलिए भी कर रहा हूं कि प्रोफ़ेसर वर्मा और डॉक्टर शर्मा दोनों ने पेरिस में अध्ययन किया, दोनों बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे, दोनों एकेडमिशियन थे, दोनों में एक्टिविस्ट बनाने की क्षमता थी। प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा मूलतः संस्कृतिकर्मी थे, मार्क्सवादी चिंतक थे (हालांकि जीवन के अंतिम दशक में उन्होंने किसी भी वाद से जुड़ने से इंकार कर दिया था) जबकि डॉ. बनवारी लाल शर्मा मूलतः सामाजिक कार्यकर्ता थे और गांधीवादी थे। इसके बावजूद उस जमाने में भी जब गांधीवाद और मार्क्सवाद के बीच जबरदस्त मत-मतांतर होते रहते थे, दोनों ने एक साथ नब्बे के दशक में बहुराष्ट्रीय कंपनी के खिलाफ और अश्लील पत्रिका के खिलाफ अभियान चलाया था। यह इस बात का भी द्योतक है कि महान लोग किस तरह थोड़े बहुत वैचारिक मतभेद से ऊपर उठकर एक दूसरे के साथ काम ही नहीं करते थे बल्कि दिल से एक दूसरे की इज्जत भी करते थे।
आज हम एक ऐसे दौर में रह रहे हैं जहां सामने वाले को गाली देकर आत्मसंतुष्ट हुआ जा रहा है, वहां यह बातें काफी प्रसांगिक हैं। चूंकि ऐसे लोगों का अभाव अब आसपास जबरदस्त रूप से दिखता है इसलिए ऐसे लोगों की यादें कुछ ज्यादा ही आती रहती है।
1991 में बहुराष्ट्रीय कंपनी के खिलाफ आजादी बचाओ आंदोलन की शुरुआत करने वाले डॉ. शर्मा ने अपनी चेतना बेच देने वाली शिक्षा के बरक्स स्वराज विद्यापीठ (सन् 2004) बनाया जो पीपुल्स सेक्टर में उच्च शिक्षा का अभिनव प्रयोग है। वह कहा करते थे कि स्वराज विद्यापीठ में आकर छात्र कम से कम ‘सवाल तो पूछ रहा है’।
निजी सेक्टर के द्वारा महंगी बिजली के बरक्स उन्होंने झारखंड में पीपुल्स सेक्टर के द्वारा खुद की बिजली स्थानीय कार्यकर्ताओं के सहयोग से बनाने की शुरुआत की, तो दूसरी तरफ कीटनाशक खाद्य पदार्थों के समांतर जैविक खेती को बढ़ावा देने की कोशिश की और उसके उत्पाद आजादी बचाओ आंदोलन के कार्यालय “स्वराज परिसर” में लाकर आम जन तक पहुंचाने का काम किया।
20 मई 1935 को आगरा जिले में जन्म लेने वाले डॉ. बनवारी लाल शर्मा, जिन्होंने पेरिस यूनिवर्सिटी से डीएससी की उपाधि ली और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के गणित विभाग के विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हुए, जितने बड़े एकेडेमिशियन थे उतने ही बड़े सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। यह सुनने में बड़ा आश्चर्यजनक सा लगता है। गणित में भी उन्होंने अभिनव प्रयोग किये। नये समाज निर्माण का यह स्वप्नद्रष्टा कर्मकांड का कट्टर विरोधी था तथा उस पथ पर चलते हुए इन्होंने अपने बेटे की शादी बिना किसी लग्न तथा शुभ मुहूर्त देखे हुए ही करायी।
उनके बारे में लिखने को इतना कुछ है कि शब्द कम पड़ जाएंगे लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है। अतः आज उनके 86वें जन्मदिवस के मौके पर उन्हें नमन करते हुए वह हरेक शख्स जो नये समाज निर्माण का सपना देखता है उसे आमजन में जनचेतना फैलाते हुए उनके पथ पर चलने की कोशिश करनी चाहिए।