अपने ‘टॉक शो’ की वजह से टीवी पत्रकार अर्णब गोस्वामी ने बड़ी शोहरत हासिल की है. ‘नेशन वांट्स टू नो’ अर्थात ‘देश यह जानना चाहता है’ जैसा जुमला उन्हीं के शो से प्रचलित होकर कई की ज़बान पर बैठ गया है. यह शोहरत कमाने के लिए उन्होंने पत्रकारिता के उसूलों को बेचा है. नाम और टीआरपी लूटने की रेस में उन्होंने सच का गला घोंटा है. सत्ता पर काबिज़ लोगों के करीब जाने के लिए उन्होंने आम लोगों के सवालों से दूरी बनायी है.
महाराष्ट्र के पालघर में साधुओं की मॉब लिंचिंग और सोनिया गांघी की तथाकथित “चुप्पी” वाले विवाद में तो उन्होंने पत्रकारिता की सारी मर्यादाओं को तार-तार कर दिया है. सत्ता वर्ग को खुश करने के लिए उन्होंने पत्रकारिता जगत को शर्मिंदा कर दिया है. आज उनका पतन सबसे निचले सतह तक पहुंच गया है. उनकी उन्मादी भाषा समाज को दंगे के लिए उकसा रही है. आज इस पत्रकार के सामने कट्टर हिन्दुत्वादी भी ‘लिबरल’ नज़र आते हैं.
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अफ़सोस इस बात का भी है कि अर्णब सिर्फ एक पत्रकार नहीं है. इसे अक़सर भुला दिया जाता है कि वे अपने चैनल रिपब्लिक के मालिक भी हैं। उनके और उनकी पत्नी के पास 1200 करोड़ के कारोबार वाले रिपब्लिक टीवी के 82 फीसद से ज्यादा शेयर हैं जिसमें ये दोनों निदेशक हैं. मार्च 2020 में जमा बैलेंस शीट के मुताबिक रिपब्लिक टीवी का राजस्व 28.3 मिलियन डॉलर रहा है। इसलिए भूलना नहीं चाहिए कि अर्णब सर्वप्रथम एक कारोबारी हैं, फिर पत्रकार। इस तथ्य को भुलाते हुए उनका रोग उन दूसरे पत्रकारों में फैल चुका है जो मीडिया उपक्रमों में महज नौकर हैं. आज बहुत सारे न्यूज़ एंकर्स के भीतर भी वे ही लक्षण पाये जाते हैं. इस बिरादरी के पत्रकारों को आसानी से पहचाना जा सकता है. वे ‘प्राइम टाइम’ शो में चीखते हैं. शो में बुलाकर मेहमानों को ज़लील करते हैं. वे ज्यादा वक्त खुद ही बोलते हैं या अपने समर्थकों को बोलने देते हैं. इनके शो में गुफ्तगू कम और ‘ड्रामा’ ज्यादा होता है. खूब चीख-पुकार होती है. गाली-गलौज भी अब तो ‘नार्मल’ हो गया है. दिल के मरीज़ इस शो को देख लें तो उनकी जान जा सकती है. स्वस्थ आदमी कुछ दिनों तक शो को देख ले तो मानसिक रूप से बीमार हो सकता है. बच्चे देख लें तो उनके भीतर हिंसात्मक प्रवृति पैदा हो सकती है.
अर्णब और उनकी बिरादरी के पत्रकारों के उदय के बाद राजनीतिक पार्टियों को अब प्रवक्ता की ज़रुरत शायद नहीं है. उनकी अहमियत ख़त्म होती जा रही है क्यूंकि यह काम अर्णब और उनकी बिरादरी ज्यादा अच्छे तरीके से अंजाम दे रही हैं . ऐसे पत्रकार दिन को रात और झूठ को सच बतलाने से नहीं डरते. उनकी जवाबदेही जनता के प्रति नहीं है, मीडिया के कारोबार के प्रति है क्योंकि इनके मालिकान को सत्ता वर्ग का संरक्षण हासिल है. अगर कभी मीडिया में आयी गिरावट का इतिहास लिखा जायेगा तो उसमें अर्णब का नाम सबसे पहले लिया जायेगा. अर्णब और उनके ‘क्लोन’ पत्रकारों ने पत्रकारिता की एबीसी का पालन करना तो दूर की बात, इसका इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ समाज में उन्माद फ़ैलाने के लिए किया है.
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आजकल अर्णब यह सब कुछ कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गाँधी को ‘टारगेट’ कर के पूरा कर रहे हैं. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि सोनिया की आलोचना करने पर उन्हें निशाना बनाया जा रहा है. कांग्रेस के युवा कार्यकर्ताओं ने टॉप लीडरशिप के इशारे पर उन पर पर हमला बोला है, इस दावे से संबंधित एक वीडियो उन्होंने खुद पोस्ट किया है. अर्णब के खिलाफ कई राज्यों में कांग्रेस समर्थकों ने दो सौ के करीब एफआइआर दर्ज करवायी हैं जिनमें अकेले छत्तीसगढ़ में सौ से ज्यादा एफआइआर हैं.
छत्तीसगढ़ के बाद अब UP में भी कांग्रेस ने की अरनब गोस्वामी के खिलाफ़ पुलिस में शिकायत
अर्णब के समर्थन में हिन्दुत्ववादी ताकतें अब खुलकर आ गयी हैं और इस कथित हमले को “प्रेस पर हमला” बतला रही हैं. ‘प्रेस काउंसिल आफ इंडिया’, जो अक्सर सोया रहता है, अचानक से जीवित हो उठा है. काउंसिल ने बोलने की आज़ादी के नाम पर अर्णब के समर्थन में एक बयान जारी किया है. कुछ लिबरल पत्रकार भी अर्णब के समर्थन में बयान दे रहे हैं. उनका असल मकसद अर्णब से ज्यादा खुद को सरकारी गाज से बचाना है क्योंकि उनके ऊपर दक्षिणपंथी सरकार शिकंजा कसने की तैयारी में है.
बुरी पत्रकारिता का जवाब हिंसा नहीं है: रिपब्लिक टीवी के मालिक पर प्रेस काउंसिल का बयान
सबसे पहले पालघर विवाद को जान लें, जहां से ये प्रकरण शुरू हुआ. मुंबई से लगभग 110 किलोमीटर दूर पालघर है जो इसके उत्तर दिशा में बसा है. 16 अप्रैल को वहां दो साधु और उनके ड्रााइवर समेत तीन लोगों को भीड़ ने मार दिया. इन साधुओं का संबंध बनारस के ‘श्री पञ्च दशनाम जूना अखाड़े’ से बतलाया जा रहा है. इस घटना से सम्बंधित एक वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें लोग बड़ी बेहरमी से डंडे से उन्हें मार रहे हैं. वीडियो में पुलिस भी नज़र आ रही है मगर वह उनको बचाने में नाकाम रही. इस घटना के बाद 110 लोगों की गिरफ़्तारी हुई है. दो पुलिसवालों को सस्पेंड भी कर दिया गया है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने यकीन दिलाया है कि दोषियों को कठोर सज़ा देंगे.
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साधुओं की हत्या के पीछे क्या मकसद था? किन लोगों ने इसकी साज़िश की थी, अगर यह वाकई में एक साजिश थी? इन सवालों का जवाब किसी के पास अभी नहीं है. जाँच के बाद ही कुछ कहा जा सकता है. एनडीटीवी की एक खबर के मुताबिक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने कहा है कि इस मामले में कोई “सांप्रदायिक” पहलू नहीं है. इस तरह की रिपोर्ट आ रही है कि साधुओं पर हमला एक अफ़वाह की वजह से हुआ. गाँव वालों को यह ग़लतफ़हमी हो गयी थी कि वे साधु नहीं बल्कि बच्चा “चोर” हैं.
इस मामले को ‘कम्यूनल’ रंग देने के लिए हिंदुत्ववादी ताकतें आतुर हैं. आरएसएस से जुड़ी हुई संस्था ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ और ‘विश्व हिन्दू परिषद’ ने इस घटना की जांच एक निर्धारित समय सीमा के अन्दर पूरा करने की मांग की है. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और विपक्ष के नेता देवेन्द्र फडणवीस ने उच्चस्तरीय जांच की मांग की है. फिल्मकार अशोक पंडित ने एक ट्वीट कर आग भड़काने की कोशिश की है कि अगर साधु की जगह कोई मौलवी की हत्या होती तो इसके खिलाफ विदेशी अख़बार में ख़बरें छपतीं. दिल्ली भाजपा मीडिया सेल से जुड़ी ऋचा पाण्डेय मिश्र ने एक ट्वीट में कहा है कि “भारतवर्ष में साधु संतों सन्यासियों पर अत्याचार हो रहा और हिन्दू चुप हैं!”
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अर्णब ने इन सब को पीछे छोड़ दिया. पालघर मामले को उठाकर उसने ऐसा हंगामा खड़ा किया जो दिल दहला देने वाला है. एक पत्रकार का काम सारे पक्षों को सामने रख देना है. अगर पत्रकार की अपनी राय भी होती है तो वह उसे ख़बरों में नहीं परोसता. खबर और विचार के बीच दीवार वह बनाये रखता है. अगर पत्रकार की एक खास राय है तो वह अपने विचार के डंडे से किसी को घायल नहीं करता, न ही किसी सवाल को ‘डिबेट’ में लाने के लिए संयम और ‘बैलेंस’ को ताक पर रखता है. मगर पत्रकारिता की एबीसी का पालन करने की फ़िक्र अर्णब को नहीं है.
कुछ दिनों से चल रहे अपने प्रोग्राम में अर्णब हाथ धोकर सोनिया गाँधी के पीछे पड़ गये हैं. वह उनके खिलाफ बेहद अभद्र कमेंट कर रहे हैं. बतौर पत्रकार उन्हें सोनिया गाँधी से सवाल पूछने से कोई नहीं रोक रहा है, मगर बोलने की आज़ादी का मतलब यह तो नहीं है कि दूसरे पक्ष को सुना ही न जाय. सवाल पूछने और अफवाह फ़ैलाने में फर्क होता है. राजनीतिक फायदे के जज्बे से किसी पर कीचड़ उछालना कैसी पत्रकारिता है?
अगर मान भी लिया जाय कि सोनिया गाँधी ने पालघर हमले में मारे गए साधुओं पर “ख़ामोशी” बरती है तो एक पत्रकार का काम है कि इस पर सोनिया गाँधी और कांग्रेस से प्रतिक्रिया मांगे. अगर जवाब नहीं मिलता है तो पत्रकार का काम यह है कि जनता को यह तथ्य बतला दे. सब कुछ सामने रख कर फैसला लेने का अधिकार पत्रकार को जनता पर छोड़ देना चाहिए. जनता खुद तय करेगी कि क्या सही है और क्या गलत.
पत्रकार कोई ‘कंगारू कोर्ट’ नहीं चला रहा है, न ही वह तानाशाह है कि जब चाहे तब किसी को सूली पर लटका दे. न ही वह कोर्ट है कि किसी के खिलाफ वारंट जारी कर दे. सज़ा दिलाने के लिए ताकतवर पुलिस भी अदालत का दरवाज़ा खटखटाती है. ऐसा कुछ भी 22, 23 और 24 अप्रैल को प्रसारित किए गये अर्णब के शो में नही दिखा है. इन प्रोग्रामों में उन्होंने सिर्फ और सिर्फ सोनिया गाँधी के खिलाफ भद्दी बातें कही हैं. सोनिया गाँधी के “इटालियन” मूल के होने का भूत खड़ा किया गया है और उनकी देशभक्ति पर भी सवाल उठाये गये हैं.
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जरा अर्णब के शब्दों के चयन पर नज़र डालिए. “इटली वाली” “एनटोनियो माइनो” (सोनिया गाँधी) “चुप” क्यों हैं? उनकी “चुप्पी” “निराशाजनक” है. क्या वह इसलिए चुप हैं कि मरने वाला कोई “तबरेज़” या “अख़लाक” नहीं है? “ग्राहम स्टेन” और “बाटला हाउस” हत्या पर उन्होंने आंसू बहाये थे, आज वह क्यों खामोश हैं? क्या कोई “मौलवी” और “पादरी” मरा होता तो वे खामोश रहतीं? जिन्होंने “हिन्दू आतंकवाद” और “हिन्दू तालिबान” की बात की है वह आज कहां है? क्या इस देश में “हिन्दू”, “सनातनी” होना “पाप” है? क्या “गेरुआ पहनना पाप है”? यह सब अर्णब ने चीख-चीखकर कहा. इसके साथ उसने सोनिया गाँधी को “बड़ा डरपोक” कहा. “सोनिया के गुंडों” ने मेरे ऊपर “हमला” किया है.
पत्रकारिता की समझ रखने वाले किसी भी इन्सान के लिए यह समझना मुश्किल नहीं था कि उनके शो में बातचीत नहीं बल्कि “ड्रामा” चल रहा था. शो में बुलाये गये ज़्यादातर मेहमान एक ही पक्ष की बात रख रहे थे. वे अर्णब की बातों को अपनी जबान से बोल रहे थे. एक पैनल में 6 से 10 वक्ताओं को ठूंस दिया गया था जिनको देख कर ऐसा लगता है कि बहुत सारे पक्षों को जगह दी गयी है मगर वहां विपक्ष की कोई असरदार आवाज़ नहीं थी.
अगर अर्णब के शो को कोई भी ध्यान से देखे तो यह बात खुलकर सामने आ जायेगी कि वहां ‘डिबेट’ करने के लिए किसी को नहीं बुलाया जाता. अगर ऐसा होता तो विपक्ष से भी मज़बूत आवाज़ को जगह दी जाती और उनको अपनी बात रखने का वाजिब ‘स्पेस’ मिलता. अगर विपक्ष को आमंत्रित भी किया जाता है तो उनके कमज़ोर और संदिग्ध चेहरे को बुलाया जाता है. जैसे ही कमज़ोर विपक्ष बोलना शुरू करता है तो उसको या तो बोलने नहीं दिया जाता या फिर उसके खिलाफ दो तीन दूसरे लोगों को एक ही साथ बोलने के लिए उकसा दिया जाता है. फिर बहुत सारी आवाजें एक साथ आने लगती हैं.
यही नहीं, अर्णब और उसके पक्ष के लोगों की आवाज़ तेज़ कर दी जाती है, विपक्ष की आवाज़ धीमी कर दी जाती है. कई बार ऐसा लगता है कि विपक्ष भी उन्हीं का आदमी है जो एक ‘पंचिंग बैग’ के तौर पर काम करता है. विपक्ष का चेहरा देखकर दिल में शक पैदा होता है. ऐसे चेहरे को चुनकर लाया जाता है जिनकी “साख़” ‘डाउटफुल’ होती है. यह सब पत्रकारिता नहीं है. यह पत्रकारिता के नाम पर धोखा है.
सियासी तौर पर देखें तो अर्णब हिंदुत्व का काम उनके कट्टर प्रवक्ता से भी “बेहतर” तरीके से अंजाम दे रहे हैं. कट्टर और हिन्दुव शक्तियों ने सोनिया गाँधी की “इमेज” को बदनाम करने के लिए उनके इटली में पैदा होने की बात को बार बार दोहराया है. वह एक “ईसाई” परिवार में पैदा हुईं यह भी बार-बार हिन्दू वोटरों को याद दिलाया जाता है. अर्णब सोनिया गाँधी पर हमला बोलकर पत्रकारिता नहीं बल्कि भगवा राजनीति को आगे बढ़ा रहे थे. सोनिया “विदेशी” है. वह “मुस्लिम” और “ईसाई परस्त” है, वह “हिन्दू विरोधी” है, यह दुष्प्रचार अर्णब ने अपने प्रोग्राम में किया. यह सब कहने के पीछे उनका मकसद भाजपा और आरएसएस को बहुसंख्यक हिन्दुओं की नज़र में “हिन्दुओं की पार्टी” साबित करना है.
वह हिंदुत्व ताकतों के उसी ‘डिस्कोर्स’ को फैला रहे हैं कि इस देश में हिन्दू “प्रताड़ित” है जबकि ईसाईं और मुस्लिम समुदाय का सेक्युलर पार्टियाँ हमेशा ‘अपीज़मेंट’ करती रही हैं. अयोध्या विवाद के दौरान इसी “प्रताड़ित हिन्दू” का प्रोपगंडा फैलाकर माइनॉरिटी के खिलाफ माहौल तैयार किया गया. यह कितने अफ़सोस की बात है कि जिस भारत में अल्पसंख्यक मुसलमान की हालत आज कई अर्थों में हजारों सालों से अत्याचार झेल रहे दलितों से भी ख़राब हो गयी है, उन्हें हिन्दू समाज के मनगढ़ंत “बदहाली” के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है.
आज जो लोग बोलने की आज़ादी को “पवित्र” मान कर उल्टा सोनिया गाँधी और कांग्रेस पर हमला बोल रहे हैं उनको भी तो इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि क्या पत्रकारिता की कोई मर्यादा और ज़िम्मेदारी भी होती है? कोई अर्णब समर्थक यह कह सकता है कि उसका लहजा तेज़तर्रार है और इसका “सम्मान सब को करना चाहिए” मगर यह बात इतनी सीधी भी नहीं है. अर्णब दोहरे मापदंड से काम लेते हैं. विपक्ष पर वह शेर बन जाते हैं और सत्ताधारी दल के नेताओं के सामने भीगी बिल्ली. अगर वह वाक़ई आक्रामक पत्रकारिता में यकीन रखते हैं तो आखिर क्यों भाजपा नेताओं के सामने वह बर्फ जैसे ठंडे पड़ जाते हैं. सत्ता के शीर्ष पर बैठे नरेन्द्र मोदी के सामने जबान तक नहीं खुलती और एक “भक्त” की तरह हाँ में हाँ मिलाते दिखते हैं.
अगर कोई पत्रकार सांप्रदायिक, भड़काऊ और दंगा भड़काने वाली बात परोसने लगे तो उससे कैसे ज़िम्मेदारी तलब की जाय? पत्रकार के बोलने और लिखने की आज़ादी का सम्मान होना चाहिए, मगर कोई पत्रकार हिंदुत्व कट्टरपंथी से भी आगे निकलकर भड़काऊ बात करने लगे और समाज में तनाव पैदा होने लगे तो इस स्थिति से कैसे निपटा जाय? अर्णब गोस्वामी का उदय आज भारतीय पत्रकारिता में पतन का दौर है. इस ‘चैलेंज’ से निपटे बगैर लोकतंत्र का आधार मज़बूत नहीं रह पाएगा.
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Well-written and forceful article…… Jaspal Singh Sidhu Ex UNI
Well articulated. Hidi patti me swagat hai, in voices ka. Bahut ektarfa khel chalta raha hai. Keep writing friend.