हाल ही में अलग-अलग देशों की अनेक स्वतंत्र संस्थाओं ने भारतीय लोकतंत्र में आ रहे घातक और नकारात्मक बदलावों की ओर संकेत किया है। हमारी सरकार, सत्तारूढ़ दल की आइटी सेल, सरकार समर्थक ट्रोल समूह और सोशल मीडिया पर सक्रिय दिखाई देने वाला खासा बड़ा नागरिक समुदाय सब के सब समवेत रूप से वैश्विक मान्यता रखने वाली इन प्रतिष्ठित संस्थाओं के आकलन को न केवल सिरे से खारिज कर रहे हैं बल्कि इसे एक षड्यंत्र के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं जो नए भारत की प्रगति से घबराई हुई विश्व-शक्तियों द्वारा रचा गया है।
अनेक सोशल मीडिया पोस्ट्स में सरकार के अलोकतांत्रिक दमनकारी व्यवहार को सरकार की मजबूती और दृढ़ता के रूप में प्रस्तुत किया गया है और यह बताया गया है कि यदि प्रारंभ से ही अल्पसंख्यकों और आन्दोलनजीवियों के साथ ऐसा ही कठोर व्यवहार किया गया होता तो देश आज एक महाशक्ति होता। सरकार और सरकार समर्थकों की यह आक्रामक, अतिरंजित और असहिष्णु प्रतिक्रिया ही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है हम डेमोक्रेसी से इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी में तब्दील हो चुके हैं जहां असहमति और आलोचना को बर्दाश्त नहीं किया जाता और इसे राष्ट्रविरोधी गतिविधि की संज्ञा दी जाती है।
स्वीडन के वी डेम इंस्टीट्यूट ने बताया है कि वह विगत वर्ष ही भारत को इलेक्टोरल ऑटोक्रेसी का दर्जा देने वाला था किंतु आंकड़ों की पर्याप्त उपलब्धता के अभाव में उसने ऐसा नहीं किया। अब जब आंकड़े उपलब्ध हैं तब उसने भूतलक्षी प्रभाव से 2019 से ही भारत को यह दर्जा दिया है। वी डेम की रिपोर्ट में भारत पिछले वर्ष की तुलना में सात स्थानों की गिरावट के साथ कुल 180 देशों में 97वें स्थान पर है। ‘’ऑटोक्रेटाइजेशन टर्न्स वायरल’’ शीर्षक रिपोर्ट में यह संस्थान भारत को थर्ड वेव ऑफ ऑटोक्रेटाइजेशन के अंतर्गत आने वाले देशों में शामिल करता है।
ब्राज़ील, भारत, तुर्की और अमेरिका जैसे देश इस बदलाव का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जहां सरकारें मीडिया, अकादमिक संस्थाओं और सिविल सोसाइटी पर हमलावर हो रही हैं। समाज का ध्रुवीकरण किया जा रहा है। विरोधियों के अनादर और गलत सूचनाओं के प्रसार की प्रवृत्ति बढ़ी है और इसकी परिणति चुनाव प्रक्रिया को कमजोर और महत्वहीन बनाने में हो रही है। भारत का लिबरल डेमोक्रेसी स्कोर 2013 के 0.57 से घटकर 2020 में 0.34 रह गया है। रिपोर्ट बताती है कि श्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने से पूर्व भारत में मीडिया की स्वतंत्रता संबंधी स्कोर कुल संभावित 4 अंक में 3.5 रहा करता था जो 2020 में घटकर 1.5 रह गया है। यह दर्शाता है कि मीडिया पर नियंत्रण की प्रवृत्ति अब आम हो गई है। मीडिया पर नियंत्रण के मामले में हम पाकिस्तान की बराबरी कर रहे हैं जबकि नेपाल और बांग्लादेश का मीडिया हमसे ज्यादा स्वतंत्र है।
रिपोर्ट सरकार द्वारा राजद्रोह कानून, आतंकवाद निरोधक कानून और मानहानि संबंधी प्रावधानों के दुरूपयोग की ओर संकेत करती है और बताती है कि बीजेपी के सत्ता में आने के बाद 7000 लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा लगाया गया है जिनमें से अधिकांश सरकार के आलोचक हैं। वी डेम की रिपोर्ट सीएए के स्वरूप और इसके विरोध में प्रदर्शन कर रहे आम जन के दमन पर भी सवाल उठाती है।
इसी माह अमेरिकी सरकार द्वारा वित्त पोषित एनजीओ फ्रीडम हाउस ने भारत का दर्जा स्वतंत्र से घटाकर आंशिक स्वतंत्र कर दिया है और इसके लिए सत्ता की नीतियों से असहमति रखने वाले मीडियाकर्मियों, विद्वानों, सिविल सोसाइटी समूहों तथा प्रदर्शनकारियों के सरकार द्वारा दमन को उत्तरदायी बताया है। हमारा स्कोर विगत वर्ष के 71/100 से घटकर 67/100 हो गया है। फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट के अनुसार श्री नरेन्द्र मोदी के 2019 में दुबारा सत्ता में आने के बाद राजनीतिक अधिकारों, नागरिक आजादी और न्यायपालिका की स्वतंत्रता में गिरावट देखी गई है। यह रिपोर्ट अविचारित लॉकडाउन और उसके विनाशक परिणामों, उत्तर प्रदेश सरकार के लव जिहाद विषयक कानून, दिल्ली दंगों में पुलिस की भूमिका पर सवाल उठाने वाले न्यायाधीश के तबादले और तब्लीगी जमात को कोरोना के प्रसार के लिए उत्तरदायी बताने जैसे मामलों का जिक्र करती है।
दोनों ही रिपोर्ट्स अपने-अपने स्रोतों से तैयार की गई हैं और हमारे लोकतंत्र में आ रही गिरावट की ओर संकेत करती हैं। जो बात इन रिपोर्टों में व्यापकता के साथ नहीं आ पाई है वह यह है कि इस निरंकुशता और बहुसंख्यक धार्मिक समुदाय के वर्चस्व के दर्शन को समाज का एक भाग स्वीकार कर रहा है तथा हिंसक प्रतिशोध को सामाजिक स्वीकृति मिल रही है।
यह स्थिति उस तानाशाही से अधिक खतरनाक है जहां कोई एक क्रूर शासक अपनी सैन्यशक्ति के बल पर जनता पर अपनी मनमर्जी चलाता है क्योंकि तब यह आशा अवश्य उपस्थित होती है कि पीड़ित और असंतुष्ट जनता कभी न कभी विद्रोही तेवर अपनाएगी और तानाशाह का अंत होगा, किंतु हमारे देश में विचारधारा विशेष के समर्थकों में निरंकुशता, हिंसा, प्रतिशोध, असहिष्णुता और एकाधिकार की भावना का इस प्रकार बीजारोपण कर दिया गया है कि वे आत्मघाती दस्ते की भांति कार्य कर रहे हैं। एक निरंकुश सत्ता रूपाकार ले रही है और विचित्र यह है कि इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था का अवलंबन लेकर स्थापित किया जा रहा है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं वही हैं, लोकतांत्रिक संस्थाओं का नामकरण भी वैसा ही है, अंतर केवल इतना है कि इनके माध्यम से लोकतंत्र को बहुसंख्यक तंत्र द्वारा प्रतिस्थापित किया जा रहा है।
देश के चुनावों को धार्मिक और साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील मुद्दों पर जनमत संग्रह का रूप दिया रहा है। हम देख रहे हैं कि राम मंदिर, सीएए, लव जिहाद, धर्म परिवर्तन और गो हत्या जैसे मुद्दों पर चुनाव लड़े जा रहे हैं। चुनाव में धार्मिक नारे गूंज रहे हैं। आतंकवाद भी यदि चुनावी मुद्दा बना है तो इसका कारण यही है कि इसे धार्मिक और साम्प्रदायिक राजनीति के सांचे में ढाला जा सकता है। धार्मिक और साम्प्रदायिक उन्माद से बनी चुनावी खिचड़ी में विकास का मुद्दा छौंक लगाने के काम आ रहा है।
विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया सभी में धीरे-धीरे धर्म आधारित संकीर्ण राष्ट्रवाद के समर्थकों को स्थान मिलता जा रहा है और स्वाभाविक है कि अपनी विचारधारा के प्रसार के लिए यह बहुत सामंजस्य के साथ कार्य कर रहे हैं। जब लोकतंत्र के चारों स्तंभ किसी अलोकतांत्रिक निर्णय की न केवल रक्षा और अनुमोदन करें अपितु इसका प्रशस्तिगान भी करने लगें तो यह भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि पूर्व की स्थापित लोकतांत्रिक परंपराओं को कमजोर करने वाले बदलाव ही समय की मांग हैं। लोगों को धीरे-धीरे यह समझाया जा रहा है कि एक अच्छा लोकतंत्र एक कमजोर राष्ट्र बनाता है, अपने अधिकारों की मांग करने वाले नागरिक सच्चे राष्ट्रभक्त नहीं हैं बल्कि वे नागरिक आदर्श माने जा सकते हैं जो अपने कर्त्तव्य का पालन करते हैं। धीरे-धीरे संवैधानिक कर्त्तव्यों को गौण बनाकर इनके स्थान पर राजसत्ता की इच्छा को कर्त्तव्यों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
देश में बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व के दर्शन का विस्तार हम संसद की कार्य प्रणाली में देखते हैं जहां अनेक संवेदनशील और महत्वपूर्ण कानूनों के निर्माण के दौरान विपक्ष की पूर्णतः अवहेलना की गई। चाहे वह सीएए का मसला हो या अनुच्छेद 370 के कतिपय प्रावधानों को अप्रभावी बनाने की बात हो या हाल के तीन कृषि कानून हों सरकार का रवैया संवाद और परिचर्चा को नकार कर बहुमत की दादागिरी दिखाने का रहा है। चाहे वह देश का अल्पसंख्यक हो या संसद का अल्पमत विपक्ष, सरकार ने इनकी उपेक्षा करने और इन्हें उत्तरोत्तर महत्वहीन और गौण करते हुए अंततः समाप्त करने की रणनीति अपनाई है।
संविधान और न्याय प्रणाली पर सीधे आक्रमण करने का साहस अभी वर्तमान सत्ता के पास नहीं है। इसलिए धर्म आधारित संकीर्ण राष्ट्रवाद के समर्थक आम जनता को उस मानसिकता की ओर धीरे-धीरे ले जा रहे हैं जिसमें प्रवेश करने के बाद संविधान उसे अनावश्यक लगने लगेगा। गोरक्षकों द्वारा मॉब लिंचिंग, हॉनर किलिंग की घटनाएं, बलात्कारियों के एनकाउंटर की मांग आदि प्रवृत्तियां यह दर्शाती हैं कि समाज को ऐसे हिंसक प्रतिशोध का अभ्यस्त बनाया जा रहा है जो संविधान और कानून द्वारा पूर्णतः अस्वीकार्य है।
आश्चर्य है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के मुखिया एनकाउंटर कल्चर को अपनी प्रशासनिक मजबूती के सर्वश्रेष्ठ प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं और मध्य प्रदेश एवं बिहार के जनप्रतिनिधियों द्वारा सार्वजनिक रूप से अपराध नियंत्रण के इस एनकाउंटर मॉडल को अपने प्रदेश में अपनाने की मांग की जा रही है। जो एनकाउंटर दुर्दांत आतंकवादियों और नक्सलियों के साथ संघर्ष में भी अंतिम उपाय के रूप में प्रयुक्त होता था वह अब अपराधियों और मुठभेड़ दोनों की बड़ी ढीली ढाली परिभाषा के साथ अपराध नियंत्रण का सबसे लोकप्रिय प्राथमिक उपचार बन गया है और हर गली मोहल्ले में इसके केंद्र खुल रहे हैं। एनकाउंटर कल्चर पुलिस और आम जनता दोनों को यह संदेश दे रहा है कि संविधान और कानून दोनों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाए और अपनी मनमर्जी से दोषी तय कर उसे प्राणघातक दंड भी दे दिया जाए।
हिंसक प्रतिशोध को न्याय के रूप में प्रतिष्ठित करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देकर सत्ता अपने अनेक हित साध रही है। भोजन-आवास-चिकित्सा-शिक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में सरकार की नाकामी से उपजे जनाक्रोश को काल्पनिक शत्रुओं की ओर धकेला जा रहा है और आपस में ही लड़ने और मरने मारने पर उतारू एक कबीलाई समाज अस्तित्व में आ रहा है।
सोशल मीडिया के माध्यम से सवर्ण समुदाय और मध्य वर्ग को लगातार यह बताया जा रहा है कि उसकी बदहाली के लिए कथित रूप से शत्रु देश के प्रति वफादार अल्पसंख्यक, काल्पनिक घुसपैठिये और आरक्षण का लाभ उठा रहे अयोग्य और मुफ्तखोर दलित-आदिवासी जिम्मेदार हैं। यह सवर्ण वर्ग अभी भी हमारी राजनीतिक व्यवस्था और प्रशासन तंत्र में गहरी पकड़ रखता है। धार्मिक-साम्प्रदायिक और जातीय श्रेष्ठता के अहंकार में डूबे राजनेताओं, अधिकारियों और न्यायाधीशों से यह अपेक्षा करना कठिन है कि वे अल्पसंख्यकों और वंचित समुदाय के लोगों के साथ सहानुभूतिपूर्ण और न्यायसंगत आचरण करेंगे।
लोकतंत्र पर धर्म के बढ़ते प्रभाव का सबसे बड़ा खामियाजा महिलाओं और वंचित समाज को उठाना पड़ रहा है। अंतरधार्मिक विवाह को हतोत्साहित करने और अन्य धर्मावलंबी के साथ विवाह करने की महिलाओं की स्वतंत्रता पर रोक लगाने की कोशिशें सत्ता के धार्मिक चरित्र की ओर संकेत करती हैं। जब हम राजनेताओं द्वारा बलात्कार के लिए महिलाओं के पहनावे को जिम्मेदार ठहराने वाले बयानों को देखते हैं या महिलाओं के प्रति सर्वोच्च सम्मान रखने वाली देश की सबसे बड़ी अदालत को बलात्कारी से यह पूछता हुआ पाते हैं कि क्या वह बलात्कार पीड़िता से विवाह करेगा तब हमें यह बोध होता है कि शासन-प्रशासन और न्याय व्यवस्था पर धार्मिक सोच हावी हो रही है और इनके धर्मानुकूल संचालन की कोशिश हो रही है।
बहुसंख्यक वर्ग को अतीतजीवी बनाया जा रहा है। उसे समझाया जा रहा है कि उसकी शांतिप्रियता और सहिष्णुता के कारण ही तथाकथित रूप से सदियों तक उसका अन्य धर्मावलंबियों ने शोषण किया और अब उसे हिंसक और आक्रामक बनना होगा।
हमारे लोकतंत्र के स्थायित्व और इसकी सफलता के पीछे हमारे स्वाधीनता संग्राम की अहिंसक और सर्वसमावेशी प्रकृति का सबसे बड़ा योगदान रहा है। यदि स्वतंत्रता के बाद हमारा लोकतंत्र हर चुनौती का मुकाबला करने में सफल रहा है और हमारे बहुधार्मिक, बहुजातीय, बहुभाषिक देश की एकता और अखंडता अक्षुण्ण रही है तो इसका सबसे बड़ा कारण हमारे स्वाधीनता संग्राम के दौरान रखी गई वह सशक्त बुनियाद है जिसमें धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता और समानता जैसी विशेषताएं रची बसी हैं। यही कारण है कि उग्र दक्षिणपंथी शक्तियां स्वाधीनता आंदोलन और उसके नायकों को खारिज करने, उन्हें महत्वहीन बनाने अथवा इनके साम्प्रदायिक हिंसक पाठ तैयार करने की जबरदस्त कोशिश कर रही हैं क्योंकि इन्हें पता है कि बहुसंख्यक वर्चस्व और निर्वाचित निरंकुशता की स्थापना के मार्ग में स्वाधीनता आंदोलन की यह विरासत सबसे बड़ी बाधा है।
भावुक भारतीय मतदाता में नायक पूजा की प्रवृत्ति प्रारंभ से रही है किंतु हमारा यह सौभाग्य था कि जिन नायकों की पूजा भारतीय मतदाता करता रहा वह स्वाधीनता संघर्ष की पवित्र अग्नि में तपे हुए खरे और सच्चे नायक थे जिनके लिए लोकतांत्रिक मूल्यों की निरंतर एवं सम्पूर्ण अवहेलना करना एक असंभव कार्य था। यही कारण था कि अपार लोकप्रियता के बाद भी इन नायकों ने जनता की आस्था को गलत दिशा में ले जाने की कोशिश नहीं की। इनकी तुलना में आज के मीडिया निर्मित नायक की आभासी विशेषताएं कुछ इस तरह गढ़ी गई हैं कि एक जननेता से तानाशाह तक का सफर बहुत जल्दी तय किया जा सके। यह नायक बहुसंख्यक वर्ग के वर्चस्व का हिमायती है और अपने धार्मिक एजेंडे को छिपाता नहीं है बल्कि उस पर गर्व करता है। भारतीय लोकतंत्र की अब तक की विशेषताओं यथा धर्मनिरपेक्षता, अल्पसंख्यक वर्ग का सम्मान एवं संरक्षण, वैदेशिक मामलों में तटस्थता की नीति, आत्मरक्षार्थ सैन्य प्रयोग और विस्तारवाद के निषेध को यह नायक कमजोरी के रूप में प्रस्तुत करता है। यह नायक एक ऐसी आक्रामक सेना की वकालत करता है जो आंतरिक अदृश्य शत्रुओं और बाह्य शत्रुओं के साथ समान कठोरता से पेश आए। जब सेना अदृश्य आंतरिक शत्रुओं का उन्मूलन करने लगेगी तब सेना के हमारे नागरिक जीवन में प्रवेश की आशंका भी बढ़ जाएगी। स्वाभाविक रूप से इन अदृश्य आंतरिक शत्रुओं की परिभाषा सरकार द्वारा ही तय की जाएगी और यह भय बना रहेगा कि सरकार द्वारा विरोधियों को अदृश्य आंतरिक शत्रुओं के रूप में चिह्नित किया जा सकता है।
जब त्रिपुरा के मुख्यमंत्री श्री बिप्लब कुमार देब वर्तमान गृह मंत्री और पूर्व भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह के साथ उनके अध्यक्षीय कार्यकाल के दौरान हुई किसी बैठक का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी की नेपाल और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों में अपनी पार्टी का विस्तार करने की योजना है तब वे हमारे लोकतंत्र के विस्तारवाद के प्रति बढ़ते आकर्षण को ही अभिव्यक्त कर रहे होते हैं। प्रसंगवश यह जिक्र भी जरूरी लगता है कि वी डेम ने अपने पिछले साल की रिपोर्ट में भारतीय जनता पार्टी को ऑटोक्रेसीज में शासनरत सबसे अनुदार राजनीतिक दलों में शुमार किया था और इसे पोलैंड की लॉ एंड जस्टिस पार्टी, हंगरी की फिडेस पार्टी एवं टर्की की जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी के साथ एक वर्ग में रखा था। इसी प्रकार जब संघ प्रमुख मोहन भागवत पाकिस्तान और अफगानिस्तान में व्याप्त अशांति का हवाला देते हुए धर्म के आधार पर एकीकरण की वकालत करते हुए कहते हैं -ब्रह्मांड के कल्याण के लिए गौरवशाली अखंड भारत बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए देशभक्ति को जगाने की आवश्यकता है क्योंकि भारत को (एक बार फिर) एकजुट होने की जरूरत है, भारत के सभी विभाजित भागों जो अब खुद को भारत नहीं कहते हैं उन्हें और अधिक इसकी आवश्यकता है- तब श्री भागवत भी एक धार्मिक राष्ट्र की विस्तारवादी सोच की परिष्कृत अभिव्यक्ति ही कर रहे होते हैं।
यह आश्चर्यजनक है कि भले ही कारण अलग-अलग हों लेकिन विश्व के अनेक देशों में लोकतंत्र कमजोर हो रहा है और आज विश्व की 68 प्रतिशत जनता ऑटोक्रेटिक शासन के अधीन जीवनयापन कर रही है किंतु उससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक है इस गिरावट को लोकतंत्र के दोषों के सुधार के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और यह कहा जा रहा है कि लोकतांत्रिक स्वतन्त्रता प्रखर राष्ट्रवाद के मार्ग में बाधक है। इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है कि इस राष्ट्रवाद की परिभाषा सत्ताओं ने अपनी सुविधानुसार अपने वर्चस्व को चिरस्थायी बनाने हेतु तय की है। इसी प्रकार लोकतांत्रिक प्रक्रिया को विकास की धीमी गति के लिए उत्तरदायी ठहराने का तर्क भी पुराना है और तानाशाह प्रायः इसका सहारा लेते रहे हैं।
हमें यह समझना होगा कि जिस आम आदमी का विकास करना है यदि उसे ही निर्णय प्रक्रिया से अलग कर दिया जाए तो फिर उस विकास की प्रकृति मानवद्रोही हो सकती है और वह आर्थिक असमानता लाने वाला तथा प्रकृति को विनष्ट करने वाला हो सकता है। यह तर्क भी कि विश्व के अनेक देश डेमोक्रेसी से ऑटोक्रेसी की ओर बढ़ रहे हैं इसलिए इसे एक प्रगतिशील परिवर्तन एवं स्वाभाविक परिघटना माना जाना चाहिए, स्वीकार्य नहीं है। डेमोक्रेसी मानव सभ्यता के विकास और मनुष्य के राजनीतिक जीवन का बहुत बड़ा हासिल है और इसे कमजोर या खत्म करने की कोई भी कोशिश प्रतिगामी ही कही जा सकती है।
लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं