विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आते जा रहे हैं, धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की बहस एक बार फिर से केंद्र में आती जा रही है। प्रधानसेवक से लेकर विपक्षी दलों के नेता बातें चाहे जितनी भी विकास की कर लें, चुनाव में आखिरकार धर्म और जातियों का मुद्दा ही हावी होता है और काम भी आता है। कल स्वर्ण मंदिर में एक व्यक्ति की बेअदबी के आरोप में लिंचिंग हो गयी। भीड़ ने उसे पीट-पीटकर मार डाला, लेकिन नेताओं से लेकर सभी बौद्धिकों तक की प्रतिक्रिया देख लीजिए- कहीं किसी ने लिंचिंग का जिक्र नहीं किया है, सबको बस ‘बेअदबी’ की फिक्र है जबकि यह पिछले कुछ महीनों में ऐसी छठी घटना है। मामला एक हत्या पर रुका नहीं है। अमृतसर के बाद लगातार दूसरे दिन कपूरथला में बेअदबी की घटना हुई है। यहां भी भीड़ मांग कर रही है कि आरोपी को उसके हवाले किया जाय।
बेअदबी, ईशनिंदा या ब्लासफेमी जैसे टर्म पहले केवल इस्लाम में थे जो अब बढ़कर सिख धर्म को भी विषाक्त कर चुके हैं। एक मिनट को जरा कल्पना कीजिए कि यह हत्या वैष्णो देवी या तिरुपति या किसी भी मंदिर में हुई होती, तो क्या ही माहौल होता? एक पवित्र किताब के इर्दगिर्द धर्म को परिभाषित करने की अब्राहमिक पंरपरा आखिर सिखों तक कैसे पहुंची? एक भगवान और उसके एक जन्मस्थल के इर्दगिर्द धर्म को परिभाषित करने की कवायदें अब हिंदुओं के बीच भी प्रचलित हो रही हैं, जबकि सनातन धर्म का ऐसा चरित्र कभी नहीं रहा। क्या इसे सांप्रदायिकता कहा जा सकता है? या यह विकृत धर्मनिरपेक्षता के कुफल हैं?
पिछले हफ्ते ‘काशी विश्वनाथ कॉरीडोर’ का जब प्रधानमंत्री ने लोकार्पण किया, तो यह बहस और तीखी हो गयी। क्षणजीवी खबरों के इस दौर में पूरे कार्यक्रम पर टैक्सपेयर्स के करोड़ों की बर्बादी से लेकर इस बात की भी दुहाई दी गयी कि एक ‘सेकुलर’ राष्ट्र-राज्य के प्रमुख को इस तरह के कार्यक्रमों में हिस्सेदारी से बचना चाहिए, हालांकि यह भी बेहद मजे की बात है कि जो दल और उनके मुखिया इस बात के लिए भाजपा और नरेंद्र मोदी की आलोचना कर रहे हैं वे खुद उन्हीं प्रतीकों और चिह्नों का इस्तेमाल कर रहे हैं। सेकुलरों के हिसाब से अगर यही ‘सांप्रदायिकता’ है तो इसकी जड़ें कहां हैं?
भारत ने 1947 में एक मजहब के आधार पर खंडित आज़ादी पायी थी और देश के दो टुकड़े हुए। इस्लाम के नाम पर एक अलग देश बना। यह एक तथ्य है और इसे किसी भी तरह से झुठलाया नहीं जा सकता कि जिन्ना ने ‘डायरेक्ट एक्शन’ का आह्वान किया था और सुहरावर्दी से लेकर उनके तमाम सिपहसालारों के नेतृत्व में उसके बाद लाखों हिंदुओं को हलाक किया गया। आज की सेकुलर-लिबरल बिरादरी चाहे हिंदू महासभा या सावरकर पर कितना ही द्विराष्ट्र-सिद्धांत का दोष मढ़ना चाहे, गांधी या सावरकर से लेकर किसी नेता ने डायरेक्ट-एक्शन का आह्वान नहीं किया था, यह भी एक तथ्य है।
खंडित आजादी के बाद भी हमने कोई सबक नहीं सीखा और इसका एक बड़ा कारण यह था कि हमारे पहले प्रधानमंत्री नेहरू पूरी तरह यूरोपियन मानसिकता में पले-बढ़े थे। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता के मायने वही थे, जो उन्होंने ब्रिटेन में देखे या सीखे थे। यह भी याद रखें कि तब ब्रिटेन सबसे विकसित और एकमात्र विश्व-शक्ति हुआ करता था। नेहरू ने वहां की सीखी, पढ़ी चीजें भारतीय समाज में कार्यान्वित तो करनी चाहीं, लेकिन वह भूल गए कि भारत में ‘धर्म’ जीवन का एक अविभाज्य (इनसेपरेबल) आयाम है और धर्मविहीन जीवन को यहां नीची नज़र से देखा जाता है। दरअसल, नेहरू खुद भी कहते थे कि वह दुर्घटनावश हिंदू और कल्चरली यूरोपियन हैं। उन्होंने धर्म का अनुवाद ‘रिलिजन’ से किया और यही उनकी चूक थी। उनके बाद आज तक यही गलती बार-बार डंके की चोट पर दोहरायी जाती रही है।
यूरोपीय समाज में ईसाई धर्म राज्यसत्ता को भी चलाता था। वहां चर्च का जो सिस्टम है, उसी से मॉडर्न ब्यूरोक्रेसी भी निकली है। यानी, चर्च केवल अधिभौतिक (मेटाफिजिकल) बातों की गुनधुन में नहीं लगा रहता, बल्कि वह सत्ता की सीढ़ियां भी बनाता, चढ़ता और तय करता है। समाज के हरेक पक्ष पर चर्च का प्रत्यक्ष प्रभाव है। इसी भेद को समझने में नेहरू से लेकर हरेक नेहरूवादी सेकुलर विद्वान चूकते रहे हैं। भारत में धर्म दैनंदिन जीवन में रचा-बसा है, लेकिन वह प्रत्यक्षत: कोई दखल नहीं देता है, नहीं दे सकता है। आप पक्षियों के लिए पानी दे रहे हैं, पहली और आखिरी रोटी जानवरों के लिए निकाल रहे हैं, तुलसी में पानी दे रहे हैं, सूर्य को अर्घ्य दे रहे हैं, यह आपका धर्म है, लेकिन राज्यसत्ता कोई मंदिर बनाने नहीं जाएगा, कोई मस्जिद या चर्च नहीं ढाहेगा। यह बुनियादी अंतर एक आइडोलेटरस (मूर्तिपूजक) और बिबलियोलेटरस (पुस्तक-पूजक) समाज के बीच का है। सभी अब्राहमिक धर्म एक पुस्तक और एक पैगंबर को अंतिम सत्य मानते हैं। इतना ही नहीं, वह पूरी दुनिया को ही ब्लैक एंड ह्वाइट में देखते हैं, इसीलिए हरेक अब्राहमिक मजहब या रिलिजन दूसरे मतावलंबियों को बलात्- लोभ, भय या मोह से- अपने खेमे में लाते हैं या लाने की कोशिश करते हैं। उनके लिए यह एक मुकद्दस काम है।
एकमात्र सनातन धर्म है, जहां धर्म-परिवर्तन का कांसेप्ट ही नहीं है! आप हैं तो बस हैं। यही वजह है कि आर्य समाज का शुद्धि-आंदोलन हो या हाल ही में वसीम रिज़वी या अली अकबर के हिंदू बनने की घटना, उसकी कोई शास्त्रोक्त व्यवस्था यहां नहीं है। हां, यह भी उतना ही सच है कि आपको अगर हिंदू होना है, तो कोई रोकेगा भी नहीं, यह व्यवस्था ही नहीं है। चर्च, मस्जिद या गुरुद्वारे, यहूदियों के सिनेगॉग और उनकी ब्यूरोक्रेटिक व्यवस्था के उलट सनातन (हिंदू) धर्म में शंकराचार्य की पीठ भी खम ठोंक कर यह नहीं कह सकती कि उनका दिया आदेश पूरी हिंदू जनता मानेगी ही।
यह स्वतंत्रता, यह वैचारिक उड़ान, यह समनव्य और समंजन की अद्भुत परंपरा ही भारत को ‘धार्मिक’ बनाती है। यहां के राम किसी समुदाय विशेष के न होकर पूरे भारत के हैं। यहां तक कि लोहिया जैसे भीषण तार्किक समाजवादी को भी शिव, राम और कृष्ण को इस देश की परंपरा और सनातन देन मानकर उनको गौरवान्वित करने की जरूरत दीख पड़ी। यूरोपीय दृष्टि से पीड़ित नेहरू पूरी जिंदगी ‘भारत की खोज’ करते रह गए, लेकिन खोज सके बस ‘इंडिया’ को, वह भी उधार की दृष्टि से। इसीलिए, वह प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ के पुनर्निर्माण के समय वहां जाने से रोकना चाहते थे, इसी वजह से उन्होंने भारत को उन तमाम जख्मों को समझने और मरहम लगाने से रोक दिया, जो उसकी देह पर विदेशी आक्रमण, नाम्ना इस्लाम और ईसाइयत ने दिए थे। इसके पीछे शायद उनकी शुभेच्छा रही हो, लेकिन जो देश अपने भूतकाल को भूल जाते हैं, वह वर्तमान का संधान क्या करेंगे और भविष्य की उड़ान क्या भरेंगे?
भारत को उसके सनातन प्रतीकों, गौरवों को याद करने से भी मना कर दिया गया तो उसकी जातीय स्मृति पर उन लुटेरों और बर्बर आक्रमणकारियों को महान बताकर थोप दिया गया, जिन्होंने सभ्यता का संहार करने की कोशिश की थी। नेहरूवियन ‘सेकुलरिज्म’ का कुतर्क होता है कि “बीती ताहि बिसार दे” या क्या उससे रोजी-रोटी मिलेगी? उन लोगों को एक बार इजरायल की तरफ देखना चाहिए या हरेक उस मुल्क की तरफ, जिसने अपनी कटु से कटु स्मृति को संग्रहालय में सहेज कर रखा ताकि उसका घाव फूट जाए, मवाद बह जाए। भारत में पश्चिम से उधार लिया यह ‘सेकुलरिज्म’ इतना विषाक्त हो गया कि आज लोग उसे गाली की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, इतना जहरीला हो गया ‘सेकुलरिज्म’ कि उसका पर्याय हिंदू-द्रोह हो गया। इसमें हमारे नेहरूवादी बुद्धिजीवियों का बड़ा योगदान रहा। अजीब बात यह है कि अब भी हमारे बुद्धिजीवी अपनी गलती को स्वीकारने और संशोधित करने को तैयार नहीं हैं, उल्टा वे केवल ‘टिप ऑफ आइसबर्ग’ को देखकर पूरे तूफान का आकलन कर रहे हैं।
ऐसे में क्रिया की प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक ही है। मोदी-योगी जनता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया का उफान मात्र हैं और हमारे विपक्षी दलों और बुद्धिजीवियों को लगता है कि समस्या वे हैं। नहीं, समस्या वे नहीं हैं। समस्या आप हैं, श्रीमंतों।
आपके उधार पर लाए पश्चिमी सेकुलरिज़्म की ही देन है कि आज बहुलतावादी और समन्वयवादी सनातन धर्म या हिंदू धर्म को भी अब्राहमिक रिलिजन्स की तर्ज पर एकाश्म बनाने की चौतरफा कोशिशें हो रही हैं। विडम्बना देखिए कि अव्वल तो नेहरू और उनकी संतानों ने भारतीय समाज, धर्म और संस्कृति में निबद्ध हमारी देशज धर्मनिरपेक्षता को ठीक से नहीं समझा और ‘सेकुलरिज्म’ का आयातित मूल्य लेकर चले आए। अब, जबकि प्रतिक्रिया में उन्हीं के लाए ‘सेकुलरिज़्म’ से लड़ने के लिए हिंदू धर्म के प्रवक्ता अपने धर्म को एकाश्म बनाने पर तुले हैं, तो वे लोग पलट कर हिंदुत्व बनाम हिंदू का पाठ उनको पढ़ा रहे हैं। अब जाकर इन्हें उस ‘असली’ हिंदू धर्म की याद आयी है, जिससे इस समाज के विमुख होने की परिपाटी खुद इन्होंने ही तैयार की थी।
सांप्रदायिक माहौल में चुनावी हार-जीत का मतलब: संदर्भ पश्चिम बंगाल
राहुल गांधी आजकल हिंदू और हिंदुत्ववादी का फर्क समझाने में लगे हैं। जब वे इस तरह की बतोलेबाजी करते हैं तो सोचिए कि वह कांग्रेस की पिच खोद रहे हैं या भाजपा की पिच तैयार कर रहे हैं। वह कभी त्रिपुंड लगाकर घूमते हैं, कभी धोती में फंसे-ठंसे गिरते-पड़ते मंदिर के चक्कर लगाते हैं तो कभी अपने उपनिषद पढ़ने की दुहाई देते हैं। एक क्लिक के जमाने में लोग उनकी पुरानी क्लिप्स-वीडियो निकाल कर उनसे मज़ा लेने लगते हैं। आप लाख कहते रहें कि ये भाजपा के आइटी सेल की करामात है, लेकिन 140 करोड़ के इस देश में लगभग 100 करोड़ हिंदू हैं, वे भी आपकी इन बातों पर हंसते हैं। राहुल की देखादेखी अखिलेश यादव ने गीता पर ज्ञान देना शुरू कर दिया है, फिर वही कहते हैं कि भाजपा धर्म की राजनीति कर रही है। एक तो आप भाजपा के जाल में फंसकर उसके होम टर्फ पर अपनी लड़ाई ले जा रहे हैं, जहां उसकी विशेषज्ञता है और आपकी कोई क्रेडिबिलिटी नहीं है, दूसरे आप खुद अपनी ही बातों को काट रहे हैं।
यह द्वैध, यह दुचित्तापन ही नेहरूवियन सेकुलरिज्म की सबसे बड़ी देन है, जिसमें आदमी चतुर और घोड़ा दोनों ही गाता है। वह भूल जाता है कि जनता या तो चतुर या घोड़ा के मिजाज की हो चुकी है। वह अपना चुनाव कर चुकी है। चुनना आपको है कि आप चतुर हैं या घोड़ा। यह आपको तय करना है कि सांप्रदायिकता के खिलाफ खड़ी आपकी धर्मनिरपेक्षता समाज को बांटने वाले पश्चिमी सेकुलरिज़्म से परिभाषित होती है या फिर सनातनी बहुलता, समन्वय और सामंजस्य वाले भारतीय समाज की जड़ों से निकलती है। राजनीति आपकी है, तो फैसला भी आपका है।