हाथों में कुदाल लेकर खेत जोतने वाले किसान आज सड़कों पर बैठे हैं! जो चुपचाप किसी को अपनी व्यथा बताये बिना फसलें उगाते थे वो किसान आज विद्रोह के स्वर तेज कर रहा है! हरी भरी फसलों को अनाज बनाना और फिर उस अनाज को औने-पौने दाम पर बेचकर खुद रूखी सूखी रोटी खाने वाले किसान आज आपसे हमसे इस देश से अपना मेहनताना मांग रहे हैं! सत्ता पक्ष कह रहा है कि यह शोर केवल बड़े किसानों और खासकर पंजाब हरियाणा के किसानों का है. यह भ्रम भी 8 दिसम्बर किसानों द्वारा भारत बंद के आह्वान से टूट चुका है, फिर भी अगर आपको लगता हो कि यह भारत बंद प्रायोजित विपक्ष के समर्थन से हुआ तो ध्यान से उन सभी किसानों की बात सुनें जो दूरदराज के इलाके से भी अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं. उनकी आवाज़ को आप तक पहुंचाने का काम कर रहा है मोबाइलवाणी- जो एक साधारण फ़ोन पर भी उपलब्ध है.
मोबाइलवाणी के मंच पर देश के कोने-कोने से किसानों ने अपनी बात रिकॉर्ड की है. बिहार का छोटा सा गांव हो या झारखंड का कोई ब्लॉक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश से 400 से भी ज्यादा किसानों ने इस मंच के जरिये साफ तौर पर कहा है कि वे इस कानून को नहीं मानते. वे नहीं मानते कि सरकार उनका भला चाहती है! वे नहीं मानते कि उनकी आय दोगुनी होने वाली है! वे नहीं मानते कि इससे किसानों का भला होगा! उन्हें अगर कुछ चाहिए तो बस इतना कि सरकार उनका हमदर्द बनने का नाटक बंद करे.
बोकारो जिला किसान सभा के प्रभारी नूनूचंद महतो कहते हैं कि आजादी के बाद से आज तक किसी सरकार ने किसान के लिए कुछ नहीं किया. वो बस वोट मांगने का एक जरिया रहे. गुलामी के समय खतियान हुआ था, किसान अब तक उसी पर निर्भर है. एमएसपी को हटा दिया गया है यानि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के हिसाब से दाम नहीं मिलेंगे. वैसे तो ये अभी भी पूरी तरह से नहीं मिल रहा है, पर जो कुछ था वो भी खत्म हो जाएगा. हमारे खेत निजी कंपनियों के अधीन होंगे. ऐसा लगता है ही नहीं कि देश आजाद हुआ है क्योंकि कानून तब भी मनमाने ढंग से थोपे गए थे और आज भी थोपे जा रहे हैं.
आजमगढ से एक किसान ने मोबाइलवाणी पर कहा- हम दिल्ली तक नहीं पहुंच पाए हैं पर इसका मतलब ये नहीं कि हम आंदोलन में उनके साथ नहीं हैं. हम सब किसान अपने गांव में एक साथ आंदोलन कर रहे हैं और ये तब तक जारी रहेगा जब तक सरकार देश के किसानों की बात मान नहीं लेती.
झारखंड के बोकारो से झारखंड राज्य किसान सभा के संयुक्त सचिव श्याम सुंदर महतो कहते हैं कि पहला कानून कॉरपरेट कंपनियों को किसानों की जमीन सौंपने की ओर इशारा कर रहा है. दूसरा कानून है जो प्रदेशों से मंडी व्यवस्था को खत्म कर देगा और आवश्यक वस्तु अधिनियम कानून सीधे तौर पर किसानों को गुलामी के जाल में धकेल देगा. पीएम मोदी और उनकी सरकार 2014 से ही लोगों को केवल झूठे सपने दिखा रही है और हर क्षेत्र को कॉरपरेट घरानों के हवाले कर रही है. आला नेता कह रहे हैं कि किसानों को बरगलाया जा रहा है पर हमने वो कॉपी खुद पढी है जिसमें कानूनों के बारे में लिखा है. सरकार से बस इतना ही चाहिए कि हमें धोखा देना बंद करे. अगर ये कानून लागू हुए तो देश का किसान अपनी जमीनें कॉरपरेट घरानों के नाम करने पर मजबूर हो जाएगा. हमें गुलाम नहीं बनना.
महाराष्ट्र से किसान प्रकाश कुमार ने मोबाइलवाणी के जरिये कहा कि सरकार को ये नहीं सोचना चाहिए कि आंदोलन एक दो राज्यों तक सीमित है. हम बंद के साथ हैं, हम आंदोलन के साथ हैं, हम जहां कहीं भी हैं हम किसान हैं और किसानों के साथ हैं.
झारखंड के हजारीबाग से चुन्नु लाल सोरेन बताते हैं कि हमारे किसान दिल्ली तक नहीं पहुंचे हैं पर हम उपवास रखे हुए हैं, जब तक यह कानून वापिस नहीं हो जाता हम सब किसान आंदोलन करते रहेंगे.
किसानों को इस कानून से जो दिक्कतें हैं उसे जखनिया क्षेत्र ग्राम सभा ओड़राई के किसान श्याम देव राम बखूबी समझाते हैं. वे कहते हैं कि सूट बूट वाले आएंगे और आपकी फसल का दाम तय करेंगे. वो आपको बीज देंगे, खाद देंगे. अगर हम सरकार की बात मान लें और उदाहरण के लिए उन्होंने हमसे गेहूं का दाम 20 रुपए प्रति क्विंटल के भाव पर तय कर लिया। अब अगर कुछ समय बाद भाव 35 रुपए प्रति क्विंटल हो गया तो हम तो बंध गए. इसमें हमें तो कुछ मिला नहीं जबकि उन कंपनी वालों का फायदा ही फायदा.
उनके मुताबिक सरकार को किसानों को अनुबंध में नहीं बांधना चाहिए बल्कि किसान अपनी फसल का दाम तय करने के लिए आजाद रहे तब तो उसका फायदा है, पर नए कानून में यह व्यवस्था नहीं है इसलिए विरोध हो रहा है. सरकार कह रही है कि अनुंबध के बाद अगर आपको दिक्कत है तो आप एसडीएम के पास जाने के लिए स्वतंत्र हैं, पर वहां भी तो सरकार के ही 5 आदमी बैठेंगे, कंपनी के लोग होंगे, ऐसे में भला किसानों की सुनेगा कौन?
सरकार कह रही है कि आपके लिए बाजार खुल जाएगा, अपनी फसल को कहीं भी बेच सकते हैं. श्यामदेव कहते हैं कि अगर हमारी फसल 10 क्विंटल है और उसका भाव राजस्थान में तीन गुना मिल रहा है तो क्या अब मैं केवल 10 क्विंटल लेकर राजस्थान जाऊं? मुझे तो उससे ज्यादा नुकसान हो जाएगा. इससे तो अच्छा कि हमारे राज्य की मंडियों को बरकरार रखें ताकि अनाज कम हो या ज्यादा हम यहीं पर बेच सकें. इस बिल में यह गारंटी होना चाहिए कि हमें न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा, अगर नहीं मिलता है तो सरकार एमएसपी के हिसाब से हमारा अनाज खरीदेगी. पर सोचने वाली बात ये है कि सरकार ने खुद के ऊपर कोई जिम्मेदारी क्यों नहीं ली है.
रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की रिपोर्ट कहती है कि साल 1960 में तकरीबन 60 फ़ीसदी लोगों की जिंदगी का गुजारा खेती किसानी से हो जाता था. साल 2016 में घटकर यह आंकड़ा 42 फ़ीसदी हो गया. सीएमआइई यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी का कहना है कि भारत की तकरीबन 35 फ़ीसदी आबादी केवल खेती किसानी करके अपना गुजारा करती है. अब सवाल है कि साल 1960 से लेकर 2020 में ऐसा क्या घटा कि लोगों ने इतनी बड़ी संख्या में खेती किसानी को छोड़ दिया?
इसका जवाब है कि 1991 के बाद भारतीय सरकारों ने पूरी तरह से उदारीकरण को अपना लिया। नीतियां किसानों के जीवन में सुधार के लिए नहीं बल्कि केवल अनाज उत्पादन के लिहाज से बनायी गयीं. इसलिए पहले से ही तकरीबन 2 हेक्टेयर से कम की जमीन पर खेती किसानी करने वाले 86 फ़ीसदी किसानों के बहुत बड़े हिस्से ने खेती किसानी को अलविदा कह दिया. जिन्होंने खेती किसानी छोड़ी उन्होंने या तो कोई अपना रोजगार शुरू किया या किसी फैक्ट्री में काम करने लगे. इनकी जिंदगी ऐसी है कि महीने भर का इन्हें तनख्वाह ना मिले तो ये लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाएं या फिर भूखे मरने के कगार पर पहुंच जाएं.
इस वक्त केन्द्र सरकार अमेरिका के पूंजीवादी तरीकों को अपना रही है, पर असल में अमेरिका में कुछ दशक पहले ही खेती किसानी को पूरी तरह से बाजार के हवाले कर दिया गया था. मौजूदा समय की स्थिति यह है कि अमेरिका में केवल डेढ़ फीसदी आबादी ही खेती किसानी करती है यानी खेती किसानी से बहुत बड़ी आबादी को अलग कर दिया गया है. खेती किसानी पूरी तरह से कॉरपोरेट्स के हाथ में है. कॉर्पोरेट जगत कोई चीज बस मुनाफे के लिए करता है.
साल 2018 के फार्म बिल के तहत अमेरिका की सरकार ने अगले 10 साल के लिए तकरीबन 867 बिलियन डॉलर खेती किसानी में लगाने का फैसला किया है. वजह यह है कि खेती किसानी पूरी तरह से घाटे का सौदा बन चुकी है. कई लोग आत्महत्या कर रहे हैं. डिप्रेशन का शिकार हो रहे हैं. उन्हें अपनी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिल रही है. अमेरिका के ग्रामीण इलाकों में आत्महत्या की दर सारे इलाकों से 45 फ़ीसदी ज्यादा है. इन सबका कारण केवल खेती किसानी तो नहीं है लेकिन खेती किसानी से होने वाली आय अमेरिका की एक खास आबादी की बदहाली का महत्वपूर्ण कारण है. इस नायाब उदाहरण के बाद भी भारत उससे सबक नहीं ले रहा है.
यही हाल यूरोप का भी है. तकरीबन 100 बिलियन डॉलर की सरकारी मदद के बाद भी छोटे किसान किसानी छोड़ने के लिए मजबूर हुए हैं. वजह वही है जो भारतीय किसानों के सामने है यानि पैसा कम है और कर्जा ज्यादा है. अध्ययन बताता है कि फ्रांस में हर साल तकरीबन 500 किसान आत्महत्या कर लेते हैं. सरकार द्वारा लाये गये तीन नये कानून मंडियों को ख़तम कर किसानों को एमएसपी से दूर कर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत कॉरपोरेट को रास्ता देकर खेती किसानी से किसानों को पूरी तरह बाहर करने की योजना है.
दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर, सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर पर किसान पिछले 13 दिनों से आन्दोलन कर रहे हैं. सभी जगहों से आये किसानों का कहना है कि सरकार उनकी किसानी छोड़वा कर मजदूर बनाना चाहती है, वे मजदूर बनने के लिए तैयार नहीं हैं. अपना और अपने बच्चों के भविष्य को बचाने के लिए वे आन्दोलन करेंगे, चाहे इसके लिए जान भी क्यों न गंवानी पड़े. वे तब तक डटे रहेंगे जब तक ये तीनों काले कानून वापस नहीं होते. इस बीच 12 दिसंबर को जयपुर-दिल्ली हाइवे बंद करने का एलान किसान कर चुके हैं. उन्होंने रिलायंस के मोबाइल और जियो सिम का बहिष्कार करने का एलान किया है और 14 दिसंबर को सारे बॉर्डर बंद कर के दिल्ली का घेराव करने की योजना है.