आर्टिकल 19: लड़ते-खपते किसान पर क्यों चुप हैं अपने-अपने मोहल्लों के भगवान?


ऑस्ट्रेलिया में भारत के एक मुकाबले के बाद कप्तान विराट कोहली ड्रेसिंग रूम की तरफ जा रहे होते हैं। दर्शक दीर्घा में बैठी एक महिला जोर से चिल्लाती है- “विराट कोहली तुम कहां हो? किसान एकता जिंदाबाद.. भारतीय किसानों का समर्थन करो.. वर्ना तुम टॉयलेट पेपर से ज्यादा कुछ नहीं..।” इस टिप्पणी को सुनने के बाद किसी की भी अंतरात्मा जाग उठेगी।

वह महिला भारतीय मूल की एक सामान्य महिला थी, लेकिन उसने किसानों के साथ खड़े न होने की सूरत में विराट कोहली के विराट व्यक्तित्व, विराट दौलत और विराट प्रचारतंत्र को टॉयलेट पेपर पर समेट दिया था। कहा, इससे ज्यादा आपकी हैसियत नहीं रहेगी। आप कह सकते हैं कि ये सिर्फ क्रोध है। आप इसको क्षोभ या कुंठा का भी नाम दे सकते हैं, लेकिन क्या यह उचित होगा? क्योंकि ये बात तो सच है कि जब जनपक्षधरता के साथ खड़े होने की बारी आती है तो अरबों में खेलने वाले सिनेमा, क्रिकेट, मनोरंजन और गायकी के धुरंधर भाग खड़े होते हैं। सवाल तो है कि राष्ट्रवाद के नाम पर हवामहल खड़े करने वालों का राष्ट्र कौन सा है। वो किस देश के नायक हैं और उन्हें नायक क्यों कहा जाए।

फोर्ब्स के रईसों की लिस्ट के मुताबिक विराट कोहली की दौलत 900 करोड़ रुपये से ज्यादा है। इसमें उनकी पत्नी अनुष्का शर्मा की संपत्ति शामिल नहीं है। आप कह सकते हैं कि अनुष्का को विराट के साथ लाना ठीक नहीं, लेकिन आपको याद होगा कि रद्दी का एक टुकड़ा फेंक देने पर विराट कोहली और अनुष्का शर्मा ने सोशल मीडिया पर तूफान खड़ा कर दिया था। इस देश के 15 करोड़ किसानों ने अपने अस्तित्व को पूंजीपतियों के डस्टबिन में फेंके जाने के खिलाफ आंदोलन छेड़ रखा है, तो उनके कंठ को काठ मार गया है।

आपको यह भी याद होगा अमिताभ बच्चन को कोरोना हुआ था और वो अस्पताल में भर्ती थे। हजारों लोग उनके लिए दुआ कर रहे थे। तब कहा गया था कि इन देशवासियों को याद रखिएगा बच्चन साहब। जब इन्हें जरूरत पड़े तो बोलिएगा। आपके बोलने से बहुत फर्क पड़ेगा। अपनी हैसियत को पल्स पोलियो और जब तक दवाई नहीं तब तक ढिलाई नहीं जैसे डायलर ट्यून तक मत सीमित कीजिए। अमिताभ बच्च्न के न बोलने का रिकॉर्ड बहुत पुराना है और इसके टूटने की संभावना बहुत कम थी। इसे उन्होंने किसान आंदोलन में भी गलत साबित नहीं किया।

77 साल के अमिताभ बच्चन की दौलत तीन हजार करोड़ से ज्यादा है। इसे बचाये रखने के लिए वो जो बहुत सारे काम करते हैं उसमें शातिर तरीके से देश के जरूरी मुद्दों पर खामोशी ओढ़े रखना भी शामिल है। उनकी हालत देखकर साल 1973 में आयी सुभाष घई की फिल्म ‘सौदागर’ का वह किसान याद आता है जो किसानी को समझने वाली अपनी बीवी नूतन को छोड़कर लटके-झटके दिखाने वाली पद्मा खन्ना की तरफ आकर्षित हो जाता है। गुड़ बनाने वाले किसान की भूमिका खुद अमिताभ बच्चन ने निभायी थी, लेकिन उस फिल्म का क्लाइमेक्स शायद अमिताभ बच्चन याद न करना चाहें।

शाहरुख खान 5 हजार करोड़ से ज्यादा की दौलत के मालिक हैं। ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’ में सरसों के खेतों में काजोल के पीछे नाचते हुए नायक को देखकर जनता ने नोटों की बरसात कर दी थी। फिल्म की कहानी पंजाब के खेतों से होती हुई गुजरती है, लेकिन जब पंजाब के असली किसान अपनी किसानी छोड़कर दिल्ली की सीमा पर आ डटे हैं तो यश चोपड़ा का राज मल्होत्रा कुछ नहीं बोलता। लता मंगेशकर का पूरा देश दीवाना है। आप पूछेंगे किसानों के आंदोलन से उनका क्या लेना-देना। यही तो सवाल है कि उनका लेना-देना क्यों नहीं है। जब उनके घर के आगे फ्लाइओवर बनने लगता है तो वो कोहराम मचा देती हैं। आलू से अंगोला तक पर खुलकर अपनी राय रखती हैं। तो किसानों ने उनका क्या बिगाड़ा है? लेकिन वो नहीं बोलतीं।

बिरजू महाराज कब्जाया हुआ सरकारी बंगला खाली कराये जाने पर पुरस्कार वापस करने की धमकी दे डालते हैं लेकिन किसानों के अस्तित्व को ही मिटा देने की चाल पर उनका कंठ नहीं खुलता। अमृतसर वाले कनाडाई पाजी पद्मश्री अक्षय कुमार तो सैनिटरी नैपकिन तक के लिए आंदोलन चला देते हैं, लेकिन ढाई हजार करोड़ के राष्ट्रवादी कुमार किसानों से मुंह चुरा लेते हैं।

https://twitter.com/GhatiyaDin/status/1332962866274603010?s=20

इस लिस्ट में सचिन तेंदुलकर को भी जोड़ लेते हैं। भारत रत्न हैं। क्रिकेट के भगवान कहे जाते हैं। उनकी लगभग 1200 करोड़ की भगवानी में किसानों का भी बहुत बड़ा हाथ है, लेकिन अपने-अपने मोहल्लों के ये अजीब भगवान हैं जो झाड़ू-पोंछा सफाई तक पर बोल सकते हैं लेकिन किसानों की दुर्दशा पर नहीं बोल सकते। नौजवानों की बेरोजगारी पर नहीं बोल सकते। मुसलमानों के दमन पर नहीं बोल सकते। कवियों, लेखकों, चिंतकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, छात्रों, छात्राओँ को जेलों में डाले जाने पर नहीं बोल सकते। आप कह सकते हैं कि क्या बोलना जरूरी है? तो मेरा जवाब है- बिल्कुल जरूरी है। पूरी दुनिया के सितारे बोलते हैं। खिलाड़ी बोलते हैं। कलाकार बोलते हैं।

अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, अक्षय कुमार की जमात ने रॉबर्ड डीनीरो, शॉन पेन, मर्लिन ब्रांडो का नाम जरूर सुना होगा। नाम में बिग और किंग जोड़ लेने वाले एक्टिंग के अवधूत इनके आसपास भी कहीं नहीं ठहरते। क्या सचिन तेंदुलकर कभी डिएगो माराडोना जैसी वैश्विक लोकप्रियता की कल्पना भी कर सकते हैं? लेकिन डीनीरो हों या मर्लिन ब्रांडो या माराडोना, ये लोग जानते थे कि जिस साधारण जनता ने उन्हें सिर माथे पर बैठाया है उसके सुख-दुख में खड़ा होना, उसके लिए बोलना, उसे ताकत देना उनका उपकार नहीं जिम्मेदारी है। इसके बिना करण जौहर क्लींट ईस्टवुड नहीं हो सकते और ना ही कंगना राणाउत एंजेलिना जॉली के पासंग भी ठहर सकती हैं। उनकी उम्र बीत जाएगी किसानों और नौजवानों को गालियां देते हुए।

दरअसल जिन सितारों का मैंने जिक्र किया है आप गौर कीजिए उनका गढ़ा हुआ सिनेमा इस समाज से, उसके सरोकारों कटा हुआ सिनेमा है। उसे जमीनी सरोकारों से कोई लेना देना नहीं है। जनता उन्हें खारिज कर चुकी है। ‘गुलाबो सिताबो’ का खूसट बुड्ढा सिर्फ एक पात्र नहीं है। वो अमिताभ बच्चन का अपना सच भी है। वो अब कभी सौदागर जैसी फिल्म नहीं कर पाएंगे। शाहरुख अब कभी डीडीएलजे नहीं कर पाएंगे। उन्हें लुंगी डांस ही करना पड़ेगा। समाज के सच से भागे हुए लोग समाज का सच नहीं रच सकते।

इसके आगे का सवाल इससे बड़ा सवाल है। केवल कलाकार समाज से भागा हुआ नहीं है। केवल खिलाड़ी समाज से भागा हुआ नहीं है। हमारा लेखक भी भागा हुआ है। कवि भी भागा हुआ है। आलोचक भी भागा हुआ है। अध्यापक भी भागा हुआ है। हमारा लेखक किसानों के मोर्चे पर कहीं नजर नहीं आता। हर साल कोई 22 पुरस्कार तो लेखकों को साहित्य अकादमी देती है। मतलब पिछले 10 साल में 220 लेखकों को तो अलग-अलग भाषाओं में साहित्य अकादमी मिल चुका है। इसके अलावा नाना प्रकार के पुरस्कारयाफ्ता सैकड़ों लेखक। तमाम लेखक संघों के पदाधिकारीगण। कमेटियों के सदस्य। आचार्य और प्राचार्य किस कोठे पर बैठे हुए हैं? आपने नंदकिशोर आचार्य को कहां देखा? नाला सोपारा वाली चित्रा मुद्गल कहां हैं? कहां हैं नासिरा शर्मा? कहां हैं मृदुला गर्ग और अशोक वाजपेयी? वो क्या लिख पढ़ बोल रहे हैं? पुस्तक मेले में अपनी लोकप्रियता के द्वीप खोजते हमारे लेखक दरअसल संघर्षों के मेले में अरसे पहले मर चुके हैं। किसान समझ चुका है कि उनकी तलाश बेकार है।

दरअसल, इस देश के बौद्धिक और अभिजात्य तबकों की ढपोरशंखी को किसानों ने बेनकाब कर दिया है। उसकी उम्मीदों को सरकार, सत्ता, विपक्ष, लेखक, कलाकार, अध्यापक, चिंतक सबने मिलकर मारा है। इसलिए अब उसे न तो किसी से उम्मीद है और न ही किसी का इंतजार। यह शुद्ध तौर पर किसानों का अपना आंदोलन है। साधारण जनता उसके साथ है। यह गठजोड़ रोटी और भूख का गठजोड़ है। इसके बीच रुपया नहीं है। पद और पुरस्कार की लालसा नहीं है। इसलिए यह गठजोड़ 56 इंच की छातियों को डरा रहा है। वो जानते हैं इस गठजोड़ को न बहकाया जा सकता है और न ही डराया जा सकता है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि अमितभ बच्चन, अक्षय कुमार, शाहरुख खान बोलते हैं या नहीं। वो मस्त शूटिंग करें। आइपीएल की टीम खरीदें। क्रिकेट के मैच देखें। जब उनका नंबर आएगा तब किसान उनके लिए खड़ा रहेगा। आप इसकी गारंटी ले लीजिए।



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