हिंदी साहित्य और आलोचना को समृद्ध करने में लगे मनीषी निरंतर यह प्रयास करते रहते हैं कि देश और दुनिया में जो कुछ भी नया घट रहा है उसकी अभिव्यक्ति हिंदी में हो या हिंदी को इतना समर्थ बना दिया जाए कि वह जटिल, वेगवान, विखंडित, तकनीक और विज्ञान-प्रधान जीवन के स्पंदन को व्यक्त कर सके। शायद यह स्पंदन दिल की धड़कन जैसा जीवंत नहीं है, संभव है कि यह घड़ी की टिक-टिक जैसा एकरस, यांत्रिक और नीरस हो। आज का मनुष्य अनेक विषयों में जिस नैतिकता का पालन करता है, अधिक समय नहीं हुआ है जब उसे अनैतिकता के रूप में व्याख्यायित किया जाता था। अब विज्ञान और तकनीकी के असर से जीवन की गति इतनी तीव्र और नियंत्रित है कि मनुष्य किसी एक भाव को आत्मसात नहीं कर पाता, जी नहीं पाता और उसे दूसरे भाव की ओर जबरन धकेल दिया जाता है। एक ऐसी पीढ़ी रूपाकार ले रही है जो प्रेम को जिये बिना प्रेम कर लेती है। घृणा को समझे बिना घृणा कर सकती है। हिंसा की आग में झुलस जाती है, झुलसा देती है किंतु उसी तरह अपरिवर्तित रहती है जैसे कोई निर्जीव अस्त्र हो। यह संवेदनहीनता इतनी सहज, इतनी सर्वव्यापी है कि इसे नवसामान्य व्यवहार का अंग मानकर स्वयं को इसके साथ अनुकूलित करना पड़ता है।
हम देखते हैं कि हिंदी को इस नये मनुष्य को अभिव्यक्त करने के लिए सक्षम और उससे भी अधिक इस नये मनुष्य के लिए रुचिकर बनाने की जद्दोजहद में बहुत समर्थ रचनाकार तथा आलोचक कथ्य, शिल्प और भाषा के ऐसे प्रयोगों में उलझ जाते हैं जो दयनीय रूप से असफल सिद्ध होते हैं। हो सकता है कि इस तरह की चुनौतियों से जूझकर विद्वज्जन स्वयं को इस ग्लानि से मुक्त कर लेते हों कि उन्होंने बतौर रचनाकार या आलोचक अपना धर्म निभाया किंतु उनका यह परिश्रम और पुरुषार्थ कितना हिंदी के आम प्रयोक्ता को मोहित और शिक्षित करता है और कितना नये मनुष्य को उस समय की याद दिलाता है जब वह अधिक मानवोचित विशेषताओं से युक्त था, कहना कठिन है।
विद्वज्जन का यह बंद समाज कभी-कभी आत्ममुग्ध और आत्मरतिग्रस्त भी लगता है। हम तुकांत रचनाओं को, महाकाव्यों को, अप्रासंगिक कह खारिज कर सकते हैं। हम प्रेमचंद की “उदार और उदात्त नैतिकता” को अव्यावहारिक आदर्शवाद बताकर उसका मखौल बना सकते हैं लेकिन इसी विशाल विश्व में हमारी उत्तर-आधुनिक सोच से अछूती भी एक दुनिया है जो हमारे लिए इतिहास बन चुके साहित्यिक रूपों में रस तलाशती है।
जीवन की विराटता में तकनीकी के रथ पर सवार तूफानी गति से भागता नया मनुष्य भी है जो हमारी – “सुनो तो! रुको!! ठहरो!!!” – की पुकार को सुनने को तैयार नहीं है। हिंदी के स्वरूप को, उसकी अभिव्यक्तियों को, उसके शब्द भंडार और प्रकृति को निर्धारित करने वाली शक्तियां हमारी सदिच्छा से कहीं अलग बाजार और तकनीकी के द्वारा निर्धारित हो रही हैं।
हिंदी के कितने ही स्वरूप गढ़े जा रहे हैं- विज्ञापनों, टीवी सीरियलों, फिल्मों और वेब सीरीज की अंग्रेजीनुमा हिंदी; दक्षिण की ब्लॉकबस्टर फिल्मों की डबिंग में प्रयुक्त दृश्यात्मक हिंदी; व्हाट्सएप पर स्टेटस सुझाने वाले ऐप्स के अनगढ़, नकलची शायरों और कवियों की कमजोर हिंदी; मंचों पर धमाल मचाने वाले और सोशल मीडिया व यूट्यूब पर लाखों लोगों द्वारा देखे जाने वाले बेतुकी तुकबंदियों वाले कवियों की सजावटी-दिखावटी हिंदी; लाखों शिष्यों और श्रद्धालुओं को अपने सम्मोहन में रखने वाले धर्मगुरुओं एवं प्रवाचकों की वाचाल हिंदी; 280 अक्षरों में अपनी बात रखने को मजबूर करने वाले ट्विटर की तीखी हिंदी; स्वयं को रचनाकार और पत्रकार समझने वाले लाखों युवाओं की फेसबुकिया हिंदी; टीवी चैनलों के महान प्रस्तोताओं की लड़खड़ाती-गड़गड़ाती हिंदी; हिंदी के तत्समीकरण के घातक प्रयासों को सोशल मीडिया के जरिये नए पंख लगाते घृणा के उपासकों की अन्य भाषाओं के शब्दों के स्पर्श से अपवित्र हो जाने वाली संकीर्ण हिंदी; विश्वविद्यालयों में हिंदी के जरिये अपनी आजीविका चलाते प्राध्यापकों की डराने वाली आडम्बरप्रिय, उत्सवधर्मी हिंदी; अंग्रेजी के बेस्टसेलर्स को जल्दी से जल्दी पाठकों तक पहुंचाकर रुपया कमाने की हड़बड़ी से ग्रस्त प्रकाशकों के अंग्रेजीदाँ अनुवादकों की सतही हिंदी; बेरोजगारी से निजात ढूंढते वेबसाइट्स के कंटेंट राइटर्स की मजबूर हिंदी; आम लोगों की समझ में आने वाली हिंदी लिखने की कॉरपोरेट मालिक की सलाह का दबाव झेलते संपादकों की सतर्क हिंदी; छत्तीसगढ़ में दक्षिण भारतीय व्यंजन बेचते अन्ना की व्यवसाय सुलभ हिंदी; ओडिशा और बंगाल से हिंदी पट्टी में काम की तलाश करते मजदूरों की डरी सहमी हिंदी; कॉल सेंटर में बैठे युवाओं की यांत्रिक हिंदी; बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रबंधकों को सिखायी गयी चालाक हिंदी, आदि आदि।
तकनीक ने हिंदी लिखने का हमारा तरीका बदला है। सबसे लोकप्रिय गूगल इंडिक कीबोर्ड अंग्रेजी वर्णमाला की सहायता से हिंदी लिखता है। हमारे दिमाग में हिंदी के शब्दों के जो बिम्ब बन रहे हैं उनकी रचना अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षरों द्वारा हो रही है। फॉन्ट उपयोगकर्त्ता की तकनीकी और भाषिक सीमाओं के कारण अनुस्वार और अनुनासिक का खुलकर गलत प्रयोग हो रहा है लेकिन पाठक संदर्भानुसार सही अर्थ समझ भी ले रहा है। आज की आपाधापी में विराम कहां, इसलिए विराम चिह्न अप्रासंगिक हो गए हैं। गूगल कहता है- बोलने से सब होता है। लोग फोनेटिक टूल्स का जमकर उपयोग कर रहे हैं, बिना विराम चिह्नों के सही गलत लिखा जा रहा है और भावार्थ समझा भी जा रहा है। गूगल ट्रांसलेट तत्काल अन्य भाषा से हिंदी में अनुवाद कर रहा है, अनेक बार अर्थ का अनर्थ करने के बावजूद यह लोगों को उपयोगी लगता है और यह बेहतर भी होता जा रहा है।
हो सकता है कि कभी भक्ति और अध्यात्म या कभी स्वातंत्र्य चेतना और स्वाभिमान हिंदी के स्वरूप के निर्धारक रहे हों किंतु आज तो ऐसा लगता है कि हिंदी बाजार और तकनीक के हवाले है। क्या हिंदी के भविष्य के निर्धारण में उन तकनीकी विशेषज्ञों के हिंदी ज्ञान, कौशल और हिंदी प्रेम की अहम भूमिका रहेगी जो डिजिटल हिंदी को सुलभ बनाने के प्रयासों में लगे हैं? यह भी विचारणीय है कि हिंदी के लिए जब बाजार द्वारा प्रयास किए जाते हैं तो इनका उद्देश्य हिंदी की बेहतरी से अधिक अपनी बाजारी जरूरतों को पूरा करना होता है। ऐसी दशा में हिंदी का भावी स्वरूप कैसा होगा?
लोकप्रिय बनाम गुणवत्तापूर्ण की बहस जासूसी और रूमानी उपन्यासों के जमाने से चलती रही है। हिंदी में ऐसे समर्थ लेखकों की बड़ी संख्या रही है जिन्होंने लोकप्रिय भी रचा और गुणवत्तापूर्ण भी। ऐसे लेखकों में जो सबसे पहला नाम स्मरण आता है वह है प्रेमचंद का। आज भी हिंदी में ऐसे लेखकों की कमी नहीं है किंतु अब योग्य रचनाकार होने से अधिक महत्वपूर्ण है अभिव्यक्ति के नये डिजिटल माध्यमों के संचालन में पारंगत होना तथा इनकी तासीर और मिजाज को समझना। हमें उस मानसिकता से बाहर निकलना होगा जो लोकप्रिय लेखन को बाजारू समझती और कमतर आंकती है और विश्वास करती है कि गुणवत्तापूर्ण साहित्य को आम नासमझ और घटिया पाठक की स्वीकृति की कोई आवश्यकता नहीं है; जब इन आम पाठकों के दिमागी स्तर और समझ में सुधार आएगा तो उन्हें पता चलेगा कि हिंदी को विद्वानों ने आसमान की किन ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है। “लोकप्रिय” को भी समझना होगा कि यदि उसे कालजयी बनना है तो बिना गुणवत्ता के उसका काम नहीं बनने वाला।
हिंदी के हितैषियों की कोशिशें हिंदी को कितना लाभ पहुंचा रही हैं यह तो पता नहीं किंतु इतना तय है कि हिंदी इन अहंकारी मददगारों और मतलबी बाजारवादियों से बेपरवाह बेधड़क आगे बढ़ती जा रही है। कभी-कभी लगता है कि हिंदी एक भाषा नहीं एक संस्कार है, एक जीवनशैली है। यह संकीर्णता की विरोधी है। यह विस्तारवादी सोच को सख्त नापसंद करती है। हिंदी खुद को किसी पर थोपती नहीं। जब-जब भाषा को लेकर झगड़े होते हैं हिंदी बड़ी विनम्रता से झुक जाती है, दूसरी भाषाओं को आगे बढ़ने और जीतने देती है। यह शोषकों और साम्राज्यवादियों की भाषा कभी नहीं रही- बन भी नहीं सकती। हिंदी के तत्समीकरण और ब्राह्मणीकरण के हिमायती इसे छुआछूत के कितने ही नियमों में बांधने की कोशिश करते हैं किंतु यह अरबी, फ़ारसी, उर्दू, अंग्रेजी और कितनी ही लोकभाषाओं से मेल मिलाप कर ही लेती है, उनके रंग में खुद को रंग ही लेती है। आशा की जानी चाहिए कि हिंदी आने वाले समय में भी जोड़ने वाली, मिलने और मिलाने वाली भाषा बनी रहेगी।
लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं