24 दिसम्बर 2021 को झारखण्ड सरकार के कार्मिक, प्रशासनिक सुधार व राजभाषा विभाग ने एक नोटिफिकेशन जारी कर राज्य के 11 जिलों में स्थानीय स्तर की नियुक्ति के लिए भोजपुरी, मगही, मैथली और अंगिका को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में शामिल किया। इसके अलावा उड़िया, बांग्ला और उर्दू को भी क्षेत्रीय भाषाओं में शामिल किया। बोकारो, धनबाद, पलामू और गढ़वा जिलों में भोजपुरी और मगही, लातेहार में मगही, दुमका, जामताड़ा, साहिबगंज, पाकुड़, गोड़्डा व देवघर जिलों में अंगिका को क्षेत्रीय भाषा के रूप में शामिल किया। उर्दू को सभी जिलों में क्षेत्रीय भाषा के रूप में शामिल किया गया।
झारखण्ड सरकार द्वारा भाषा के संदर्भ में नोटिफिकेशन जारी करने के बाद इसके विरोध में बोकारो, धनबाद, गिरिहीड जिलों में कई प्रदर्शन किये गए। इस भाषा विवाद में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सभी मंत्री और विधायक भोजपुरी, मगही और अंगिका को राज्य भाषा की सूची में शामिल करने के खिलाफ हैं। केवल एक मंत्री इसके पक्ष में हैं। उनका कहना है कि भोजपुरी और मगही को क्षेत्रीय भाषाओं में शामिल नहीं करने से पलामू, गढ़वा, लातेहार, चतरा, हजारीबाग, बोकारो, धनबाद और कोडरमा में नौकरी के उम्मीदवारों को समान अवसर नहीं मिलेगा। राज्य की अन्य दो पार्टियां भाजपा और कांग्रेस असमंजस की स्थिति में हैं। दोनों पार्टिया इस भाषा विवाद के समर्थन और विरोध को राजनैतिक हानि लाभ के दृष्टिकोण से देख रही हैं कि आगे चुनाव में इसका क्या प्रभाव होगा। वैसे भाजपा के विधायकों ने भोजपुरी के समर्थन में विधानसभा परिसर में प्रदर्शन किया लेकिन बाद में उसके विरोध के आन्दोलन को हवा देने में लग गयी। इसी बीच 18 फरवरी 2022 को झारखण्ड सरकार ने संशोधित नोटिफिकेशन जारी किया जिसमें बोकारो और धनबाद जिले की क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से भोजपुरी और मगही को बाहर कर दिया।
भोजपुरी और मगही को बोकारो और धनबाद जिलों से राज्य की क्षेत्रीय भाषा की सूची से बाहर किये जाने के बाद अखिल भारतीय भोजपुरी मगही मैथिली अंगिका मंच ने 6 मार्च 2022 को झारखण्ड बंद का नारा दिया और 1932 खतियान आधारित स्थानीय नीति का विरोध भी शुरू कर दिया है। संगठन का कहना है कि अगर उनकी मांगें नहीं मानी गयीं तो एक अलग मगही राज्य बनाने की मांग शुरू की जाएगी। नौकरी पाने से शुरू हुआ यह विवाद अब एक नया राज्य बनाने की ओर बढ़ रहा है।
झारखण्ड राज्य में तृतीय और चतुर्थ श्रेणी वाली नौकरियों को दो श्रेणियों में बांटा गया है। पहली राज्यस्तरीय और दूसरी जिलास्तरीय। राज्य कर्मचारी चयन आयोग के द्वारा ली जाने वाली राज्यस्तरीय तृतीय और चतुर्थ श्रेणी परीक्षाओं के लिए क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से मगही, मैथली, भोजपुरी और अंगिका को बाहर रखा गया है। जिलास्तरीय तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों के लिए जिला स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं की अलग सूची है जिसमे कुछ जिलों में मगही, भोजपुरी, अंगिका को शामिल किया गया है। विवाद जिलास्तरीय तृतीय और चर्तुर्थ श्रेणी की नौकरियों का है।
भोजपुरी मगही मैथली और अंगिका को राज्य में क्षेत्रीय भाषा के रूप में शामिल करने के खिलाफ आन्दोलन करने वाले लोगों का तर्क है की यह भाषाएं बिहार मूल की हैं। इसे झारखण्ड में लागू करने से जिलास्तरीय तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में बिहार के लोग काबिज हो जाएंगे क्योंकि जो बच्चे दसवीं और बाहरवीं की परीक्षा जिस जिले से पास किए होंगें उन्हीं को उस जिले की जिलास्तरीय तृतीय और चतुर्थ श्रेणी कि नौकरियों में प्राथमिकता दी जाएगीI आदिवासी संगठनों का कहना है कि अगर कोई बच्चा अपने जिले से बाहर जाकर 10वीं और 12वीं कि पढाई करता है तो अपने जिले में नौकरी नहीं प्राप्त कर सकेगाI राज्य की इस भाषा नीति के कारण झारखण्ड के आदिवासी और मूलवासी अपने ही राज्य में नौकरियों से वंचित हो जाएंगे और झारखण्ड में आदिवासियों की भाषा और संस्कृति नष्ट हो जाएगी।
वास्तव में इस भाषा विरोध के मूल में बरोजगारी है जो झारखण्ड की ही नहीं पूरे देश की समस्या है। भाषा का रोजगार से क्या सम्बन्ध है इस पर किसी भाषाविद ने विवेचना की है या नहीं यह एक शोध का विषय है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि भाषा तो अपने विचारों के आदान-प्रधान का एक माध्यम है। भाषा को रोजगार से जोड़ना देश के विभिन्न भाषा-भाषी लोगों को एक दूसरे के साथ लड़ाने की सरकारों द्वारा की जाने वाली एक साजिश है। झारखण्ड के लोगों को इस बात को इतिहास की और वर्तमान की घटनाओं से समझना होगा।
वर्तमान की घटनाओं में सितम्बर 2021 में मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि भोजपुरी, मगही, जैसी भाषाएं मूलतः बिहार की हैं, इन्हें झारखण्ड की भाषा कैसे मान सकते हैं। हेमन्त सोरेन ने कहा कि “भोजपुरी बोलने वाले डोमिनेटिंग हैं… इन लोगों ने झारखण्ड आन्दोलन के दौरान यहां के आन्दोलनकारियों को गालियाँ दीं, महिलाओं तक से अपमानजनक व्यवहार किया। इसे बोलने वाले झारखण्ड के जंगलों और गाँवो में नहीं रहते बल्कि अपार्टमेंट में रहते हैं। ऐसे में हम इन्हें क्षेत्रीय भाषाओं का दर्जा कैसे दे सकते हैं।” मात्र चार महीने बाद ही मुख्यमंत्री का अचानक ह्रदय परिवर्तन संदेहास्पद है।
पूरे देश में सरकारी संस्थानों को उद्योगपतियों को बेचा जा रहा है, उद्योगों का मशीनीकरण किया जा रहा है, उद्योगों में मजदूरों को ठेके पर रखा जा रहा है, आठ घंटे की जगह मजदूरों से 12 घंटे काम लिया जा रहा है। रिक्त पदों को समाप्त किया जा रहा है, नौकरियों पर रोक लगी है, सरकारी कर्मचारियों को वीआरएस लेने पर मजबूर किया जा रहा है। जो भी भर्तियां निकल रही हैं उन्हें येन-केन प्रकारेण मुकदमे में उलझा दिया जा रहा है जिसके कारण देश के लोगों के पास रोजगार के अवसर ख़त्म हो गए हैं। लोग इसे समझें या ना समझें सरकार इसे बखूबी समझ रही है कि जिस दिन बेरोजगारों का गुस्सा फूटा तो इन सरकारों को इसे रोक पाना संभव नहीं है। इसलिए सरकारें लोगों को आपस में ही लड़ा दे रही हैं।
भाषा, क्षेत्रीयता, धर्म, संप्रदाय, जातिवाद, राजसत्ता के ऐसे हथियार हैं जिसका समय-समय पर प्रयोग करके सत्ताएं जनता की एकता को तोड़ती रहती हैं। महाराष्ट्र और गुजरात में क्षेत्रीयता के नाम पर दूसरे प्रान्तों के मजदूरों के साथ क्या हुआ था? इस घटना को बीते अभी बहुत साल नहीं हुए। बाबरी मस्जिद गिरा कर देश को दंगे की आग में झोंक देने की दिल दहला देने वाली घटना अभी सबके ज़ेहन में है। भाषा के नाम पर तमिलनाडु में 500 लोगों की फायरिंग में की गयी हत्या अभी लोग भूले नहीं हैं।
झारखण्ड भाषा विवाद को भी इसी नजरिये से देखना होगा। जुलाई 2021 में झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन की उद्योगपतियों के साथ दिल्ली में जो बैठक हुई थी उसमें उन्होंने उद्योगपतियों से झारखण्ड में पूंजी निवेश करने का आमंत्रण दिया है। यह उद्योपति अपनी पूंजी कहां लगाएंगे? झारखण्ड के खनिजों के दोहन में जिसके लिए उद्योगपतियों को जमीन, पहाड़ और नदी चाहिए। झारखण्ड की जनता ने 2005 से अब तक किसी भी उद्योगपति को अपनी जमीन का अधिग्रहण नहीं करने दिया है। मुख्यमंत्री इसे अच्छी तरह से समझते हैं। वह झारखण्ड की जनता को असली समस्या से नकली समस्या की ओर मोड़ने के प्रयास में हैं और शुरुआत तो उनके अनुकूल है। भाषा विवाद अब धीरे-धीरे तूल पकड़ रहा है।
अभी महीना भी नहीं गुजरा है जब देश के छात्र मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पहने के खिलाफ सड़कों पर थे, छात्रों और अभिभावकों को स्कूलों में हिजाब पहना जाय या नहीं यही बहुत बढ़ी समस्या नजर आयी जबकि शिक्षा के घटते अवसर, शिक्षा का निजीकरण, महंगी होती शिक्षा, शिक्षकों और शिक्षण संसाधनों की कमी, शिक्षा का साम्प्रदायीकरण जैसी समस्या उन्हें नजर ही नहीं आयी। सड़कों पर नारे लगाते छात्रों, अविभावकों की भीड़ असली समस्या शिक्षा के संकुचन को समझने में असफल रही । हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सवर्ण, पिछड़े, अनुसूचित सभी की शैक्षणिक समस्या एक समान है। जहां सभी छात्रों, अभिभावकों को एकजुट होना चाहिए वहीं वह असली समस्या के बजाय नकली समस्या के खिलाफ एक दूसरे से संघर्ष कर रहे हैं।
झारखण्ड के इस भाषा विवाद में फंसे नौजवानों और अभिभावकों को नौकरी क्यों नही मिल रही है, कैसे मिलेगी, क्या उपाय करने होंगे, इसके बारे नहीं सोच रहे हैं। बहुत दिन नहीं हुए हैं जब झारखण्ड नया राज्य बना था। झारखण्ड के लोग यह समझ रहे थे कि एक अलग राज्य बन जाने से उनकी बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, कुपोषण की समस्या खत्म हो जाएगी लेकिन 22 वर्षो में कुछ नहीं हुआ। सब वैसे ही है जैसे संयुक्त बिहार के समय था। झारखण्ड से अलग एक मगही राज्य बन जाने से अगर समस्या का समाधान हो जाएगा तो झारखण्ड, उतराखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना नये राज्य बने। नये राज्य बनने के बाद भी जनता की समस्या जस की तस है। नौकरियां मिलेंगी नए उद्योग खोलने से, नई भर्तियां करने से, भर्तियों पर लगी रोक हटने से। कितने छात्र और अभिभावक इसके लिए सड़कों पर संघर्ष कर रहे हैं?
मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन का चार महीने के अन्दर जो ह्रदय परिवर्तन हुआ था वह झारखण्ड की जनता को भाषा विवाद में उलझा कर असली समस्या के खिलाफ संघर्ष करने से रोक दिया और इसमें वह कुछ हद तक सफल भी रहे। झारखण्ड अब भाषा विवाद की आग में झुलसने के लिए तैयार हो रहा है।
भाषा विचारों की वाहक है। वाहन जितना ताकतवर होगा सवार उतना ही तीव्र गति से आगे बढेगा। भाषा भी जितनी ताकतवर और समृद्ध होगी विचार भी उतनी ही तेजी से आगे बढेगा। सरकारों ने भाषा को समृद्ध और ताकतवर बनाने की जगह एक दूसरे से लड़ने का हथियार बना दिया है। भाषा को लेकर पहला विरोध 1937 में तमिलनाडु में हुआ। उस समय तमिलनाडु मद्रास प्रेसीडेंसी के नाम से जाना जाता थाI मद्रास प्रेसीडेंसी के स्कूलों में हिंदी की अनिवार्य शिक्षा को लागू किया गया। तमिलनाडु के लोगों को लगा कि हिंदी उनके ऊपर जबरदस्ती थोपी जा रही है। हिंदी के खिलाफ कई बड़े-बड़े विरोध प्रदर्शन, भूख हड़ताल और सम्मेलन किये गए। इस संघर्ष में दंगे भी हुए जिसमें दो लोग मारे गए और 1198 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिसमें महिलाएं और बच्चे भी थे। इस आन्दोलन का नेतृत्व पेरियार ने किया था। अंत में फरवरी 1940 को ब्रिटिश गवर्नर लार्ड एर्स्किन ने अनिवार्य हिंदी शिक्षा को वापस ले लिया और तीन वर्षों से चल रहे इस आन्दोलन का पटाक्षेप हो गया।
आजादी के बाद एक बार फिर तमिलनाडु में भाषा को लेकर 1963 में आन्दोलन शुरू हो गया जब संसद में राजभाषा विधेयक पेश किया गया और उसे संसद ने पास कर दिया, जिसमें प्राथमिक अधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी में स्विच (आगे बढ़ाने) करने के लिए संविधान के भाग xvii में निहित समय सीमा के रूप में केंद्र सरकार ने हिंदी के आधिकारिक उपयोग को फ़ैलाने के अपने प्रयासों को आगे बढ़ा दिया। इसके खिलाफ नवम्बर 1963 में हिंदी विरोधी सम्मेलन में संविधान के भाग xvii को जलाने के लिए डीएमके पार्टी के 500 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें छह महीने की सजा दी गयी। 25 जनवरी 1964 को डीएमके के एक सदस्य चिन्नास्वामी ने हिंदी के विरोध में आत्महत्या कर ली। 17 जनवरी 1965 में मद्रास राज्य हिंदी विरोधी सम्मेलन त्रिची में आयोजित किया गया जिसमें मद्रास, महाराष्ट्र, केरल और मैसूर के 700 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। सम्मेलन में संविधान के भाग xvii को अनिश्चित काल के लिए निलंबन की मांग की गयी।
26 जनवरी को मदुरै में छात्रों और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच दंगा हो गया जो बड़ी तेजी से राज्य के अन्य हिस्सों में फ़ैल गया। दंगे में लूट, आगजनी, सरकारी सम्पति को नष्ट करना शुरू हो गया। इसके दमन के लिए अर्धसैन्य दल को लगा दिया गया। दो हफ्ते के अन्दर फायरिंग में 70 लोग मारे गये। गैर-सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस भाषा संघर्ष में 500 लोग पुलिसबल फायरिंग में मारे गये, कई आन्दोलनकारियों ने जहर खा कर आत्महत्या कर ली। बड़ी संख्या में छात्रों की गिरफ़्तारी हुई। 11 फ़रवरी 1965 को प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने रेडियो प्रसारण में तमिलों को आश्वासन दिया कि अंग्रेजी का केंद्र-राज्य और अन्तरंग संचार के लिए उपयोग जारी रहेगा और अखिल भारतीय सेवा परीक्षा अंग्रेजी में आयोजित की जाएगी। प्रधानमंत्री के इस आश्वासन के बाद आन्दोलन 12 फ़रवरी को अनिशिचत काल के लिए स्थगित कर दिया गया।
यह भाषा विरोधी आन्दोलन धीरे-धीरे कांग्रेस विरोधी आन्दोलन में बदल गया और 1967 के चुनाव में कांग्रेस पराजित हो गयी और द्रमुक पहली बार सत्ता पर काबिज हो गयी। 1986 में एक बार फिर भाषा विरोध शुरू हुआ जिसमें 20 हजार द्रमुक पार्टी के सदस्यों को गिरफ्तार किया गया। इस भाषा विरोध में 21 लोगों ने आत्महत्या कर ली।
असम में बांग्ला भाषा और असमिया भाषा को लेकर होने वाला विवाद भी खूनी संघर्ष में बदल गया था जब 10 अक्टूबर 1960 को असम विधानसभा में असमिया भाषा विधेयक प्रस्ताव लाया गया जिसे 24 अक्टूबर 1960 को पास कर दिया गया। इस बिल के खिलाफ 21 मई 1961 में हुए विरोध प्रदर्शन में कई प्रदर्शनकारियों की मौत हो गयी। 1972 में एक बार फिर भाषा विवाद संघर्ष शुरू हो गया। इस संघर्ष को रोकने के लिए सेना को लगाया गया। सेना द्वारा की गयी फायरिंग में 33 लोग मारे गये। असम में अक्टूबर 2021 में फिर एक बार भाषा संघर्ष शुरू हो गया जब असम के बंगाली बहुल बराक घाटी क्षेत्र में असमिया भाषा में लिखे राज्य सरकार के होर्डिंग को काली स्याही से रंग दिया गया। असम राजभाषा अधिनियम 1960 के तहत असमिया राज्य की आधिकारिक भाषा है। राज्य की बंगाली बहुल बराक घाटी के करीमगंज, कछार और हैलाकांडी जिलों के प्रशासनिक और आधिकारिक उद्देश्यों के लिए बांग्ला भाषा के उपयोग का प्रावधान है।
भाषा विवाद को एक बार फिर तूल दिया गृहमंत्री अमित शाह ने जब 2019 में हिंदी दिवस के अवसर पर उन्होंने कहा कि “हिन्दी दिवस के दिन हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। दुनिया में कई देश हैं जिनकी भाषाएं लुप्त हो गयीं। जो देश अपनी भाषा छोड़ता है उसका अस्तित्व भी छूट जाता है। जो देश अपनी भाषा नहीं बचा सकता वह अपनी संस्कृति भी संरक्षित नहीं रख सकता। मै मानता हूं कि हिन्दी को बल देना चाहिए, प्रचारित प्रसारित करना, संशोधित करना, उसके व्याकरण का शुद्धीकरण करना, इसमें साहित्य को नए युग में ले जाना चाहिए वह गद्यहो या पद्य, यह हमारा दायित्व है।” गृहमंत्री के इस बयान के बाद तमिलनाडु के नेता एमके स्टालिन, सांसद ओवैसी, बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, एडीएमके पार्टी के नेता वाइको ने इसका विरोध किया। इन नेताओं का कहना है कि हिंदी भाषा को अहिन्दी राज्यों में लागू करना जबरदस्ती थोपना है, इससे देश बंट जाएगा, हिंदी सभी भारतीयों की मातृभाषा नहीं है, भारत हिंदी हिन्दू और हिंदुत्व से बड़ा है।
देश में भिन्न-भिन्न भाषाएं बोली जाती हैं और उनका प्रयोग होता है। आजादी के बाद भारत में भाषा विवाद को हल करने का काम केंद्र की सरकार का था जिसमें सरकार पूरी तरह से असफल रही। शिक्षा के क्षेत्र में भी सरकार भाषा को लेकर असमंजस की स्थिति में रही। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की केंद्र सरकार की जिद ने विभिन्न भाषा-भाषी राज्यों के साथ मिल कर एक आम सहमति बनाने का प्रयास नहीं करने दिया।
1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा देश के आठ शिक्षाविदों को लेकर एक समिति बनायी गयी जिसके अध्यक्ष प्रोफ़ेसर यशपाल थे। समिति को इस बात पर विचार करना था कि शिक्षा के सभी स्तरों पर विद्यार्थियों विशेषकर छोटी कक्षाओं के विद्यार्थियों पर पढ़ाई के दौरान पड़ने वाले बोझ को कैसे कम किया जाय। बच्चों के प्राथमिक स्तर की शिक्षा के लिए भाषा के संदर्भ में कमेटी का सुझाव था कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए और बच्चों को एक ऐसी भाषा की भी शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे वह विभिन्न भाषा-भाषी लोगों के बीच अपनी बात कह सकें। दूसरी भाषा कौन सी हो इसके बारे में समिति ने कोई सुझाव नहीं दिया यह सरकार के ऊपर छोड़ दिया। यशपाल समिति की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गयी और आज तक उस पर कोई अमल नहीं किया गया जिससे देश में भाषा विवाद को रोका जा सके और एक भाषा नीति बनाई जा सके। भाषा सरकार बनाने, गिराने और जनता को लड़ाने का हथियार के रूप में प्रयोग पहले भी होता था और आज भी हो रहा है।
लेखक वरिष्ठ सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं