क्या सावरकर की जीवन यात्रा को दो भागों में मूल्यांकित करना ठीक है? क्या उनके जीवन का गौरवशाली और उदार हिस्सा वह है जब वे- 1857 का भारत का स्वाधीनता संग्राम- पुस्तक की रचना (आरंभ 1907- पूर्णता 1909) करते हैं? इस पुस्तक के विषय में कहा जाता है कि यह 1857 के विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम की व्यापकता प्रदान करती है। बाद में क्रांतिकारी गतिविधियों में संलिप्तता के कारण सावरकर को अंडमान की सेल्युलर जेल भेज दिया जाता है। अंडमान की इस जेल की भयंकर यातनाओं से सावरकर का मनोबल शायद कमजोर होने लगता है। विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि इसके बाद सावरकर का एक नया रूप देखने में आता है जो कट्टर हिंदूवादी है और जिसे सर्वसमावेशी राष्ट्रीय आंदोलन से कुछ लेना-देना नहीं है।
किंतु 1857 का भारत का स्वाधीनता संग्राम सावरकर की दृष्टि में स्वतंत्रताकामी भारतीय जनता के आक्रोश की अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि उनके अनुसार यह ईसाई धर्म के खिलाफ हिंदुओं और मुस्लिमों का विद्रोह है। वे जस्टिन मैकार्थी को उद्धृत करते हुए लिखते हैं- “हिन्दू और मुसलमान अपनी पुरानी धार्मिक शत्रुता को भुलाकर ईसाइयों के खिलाफ एक हो गए।” पवन कुलकर्णी अपने लेख “हाउ डिड सावरकर अ स्टांच सपोर्टर ऑफ ब्रिटिश कॉलोनिअलिज्म कम टु बी नोन एज वीर” में सावरकर को उद्धृत करते हैं- “चहुंओर लोगों को यह विश्वास को चला था कि सरकार देश के धर्म को नष्ट कर ईसाई धर्म को देश का प्रधान धर्म बनाने का निर्णय ले चुकी है।“ इस प्रकार सावरकर 1857 के स्वाधीनता संग्राम को एक धर्मयुद्ध की भांति व्याख्यायित करते लगते हैं। बाद में जिस कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा के प्रतिपादक के रूप में सावरकर को ख्याति मिली उसके बीज तो उनकी 1909 में पूर्ण हुई पुस्तक “1857 का भारत का स्वाधीनता संग्राम” में ही उपस्थित थे।
बहरहाल, सावरकर में आए परिवर्तनों में सेल्युलर जेल के भयावह माहौल और यंत्रणाओं के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। अनेक इतिहासकारों और अध्येताओं इस ओर संकेत किया है। प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम अपनी पुस्तक ‘सावरकर: मिथस एंड फैक्ट्स’ में लिखते हैं कि- “सावरकर का सेल सबसे ऊंची मंज़िल पर था जहां से फांसी का तख्ता स्पष्ट दिखाई देता था। हर माह वहां किसी न किसी बंदी को फांसी दी जाती थी। संभव है कि फांसी पर लटकाए जाने के इस भय ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया हो।”
सावरकर पर महत्वपूर्ण शोध कार्य करने वाले निरंजन टाकले का भी निष्कर्ष प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम जैसा ही है। निरंजन टाकले बताते हैं- “अंडमान की इस जेल में सावरकर की रूमानी क्रांतिकारिता ध्वस्त हो गई। 11 जुलाई 1911 को सावरकर अंडमान पहुंचे और वहाँ पहुंचने के डेढ़ महीने के अंदर 29 अगस्त को उन्होंने अपना पहला माफ़ीनामा लिखा, इसके बाद 9 सालों में उन्होंने 6 बार अंग्रेज़ों को क्षमादान हेतु प्रार्थना पत्र दिए।”
निरंजन टाकले के अनुसार जैसा बाद में त्रैलोक्यनाथ एवं अन्य साथी क्रांतिकारियों द्वारा दिए गए विवरणों से ज्ञात होता है, सावरकर के इन माफीनामों के विषय में इन्हें पता नहीं था। सावरकर के साथ ही सेल्युलर जेल में कैद क्रांतिकारी बरिंद्र घोष सावरकर की जेलर से नजदीकी का उल्लेख करते हैं और बताते हैं कि अन्य साथी क्रांतिकारियों को विद्रोह के लिए प्रेरित करने वाले सावरकर कभी स्वयं खुलकर सामने नहीं आते थे। बरिंद्र घोष जैसा ही अनुभव सावरकर के साथ जेल की सजा काट रहे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी त्रैलोक्यनाथ का भी है जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ”थर्टी इयर्स इन प्रिजन” में साझा किया है।
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सावरकर अपने अनुयायियों को इस हद तक सम्मोहित कर लेते थे कि वे हिंसा की गतिविधियों को अंजाम देने के लिए उद्यत हो जाते थे। उनके समर्थकों की सावरकर पर श्रद्धा का आलम यह था कि जब हिंसक गतिविधि के बाद वे पकड़े जाते थे और मुकदमे का सामना करते थे जिसका परिणाम अनिवार्यतः मृत्युदंड जैसा भयंकर होता था तब भी वे सावरकर का नाम तक नहीं लेते थे और उनसे कोई भी संबंध होने तक से इनकार कर देते थे क्योंकि उन्हें ऐसा लगता था कि सावरकर का जीवन देशहित में उनके अपने जीवन से अधिक मूल्यवान है। जब मदनलाल धींगरा ने कर्नल वायली की हत्या की तब भी इस बात की व्यापक चर्चा होने के बावजूद कि वे सावरकर से प्रेरित थे उन्होंने सावरकर को बचाने का पूरा प्रयास किया। शायद यही स्थिति तब बनी जब गोडसे गांधी जी की हत्या के आरोप में मुकद्दमे का सामना कर रहा था।
निरंजन टाकले इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं कि हर 15 दिन में सेल्युलर जेल में कैदी का वज़न लिया जाता था। जब सावरकर सेल्युलर जेल पहुंचे तब उनका वज़न 112 पौंड था। सवा दो साल बाद जब उन्होंने सर रेजिनॉल्ड क्रेडॉक को अपना चौथा माफ़ीनामा दिया, तब उनका वज़न 126 पौंड हो गया था।
सावरकर द्वारा दिए जाने वाले माफीनामों की भाषा उत्तरोत्तर दीनता की चरम सीमा को स्पर्श करती दिखती है। उदाहरणस्वरूप, 1913 में उनके द्वारा भेजी गई दूसरी क्षमादान याचिका के अंतिम हिस्से पर गौर किया जा सकता है:
अंत में मैं महामहिम को यह स्मरण दिलाना चाहता हूं कि वह मेरी क्षमादान याचिका पर विचार करे, जिसे मैंने 1911 में भेजा था और उसे स्वीकृत कर भारत सरकार को भेजे। भारत की राजनीति की नवीनतम परिस्थितियों और सरकार की समन्वय की नीति ने फिर एक बार संवैधानिक रास्ते को खोल दिया है। अब कोई भी व्यक्ति जो हिंदुस्तान और मानवता का दिल से भला चाहता हो वह उन कंटकाकीर्ण रास्तों पर आंख मूंदकर नहीं चलेगा जैसा कि 1906-1907 के उत्तेजित करने वाली और नाउम्मीदी से भरी परिस्थितियों में हमने किया तथा अमन एवं तरक्की के मार्ग को त्याग दिया था। इसलिए सरकार यदि अपने बहुविध एहसान एवं दया की भावना के तहत मुझे रिहा करेगी तो मैं इस संवैधानिक तरक्की तथा अंग्रेज सरकार से वफादारी का सबसे बड़ा हिमायती बनूंगा, जो आज उन्नति की पूर्वशर्त है… इसके अलावा संवैधानिक मार्ग पर मेरा लौटना भारत तथा विदेशों के तमाम पथभ्रष्ट नवयुवकों को वापस लाने में मदद करेगा, जो अपने मार्गदर्शक के रूप में मुझे देखते हैं। सरकार जैसा चाहे उसी तरह से मैं सरकार की सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि मेरा यह रूपांतरण विवेकशील है और मैं उम्मीद करता हूं कि भविष्य का मेरा आचरण भी उसके अनुरूप होगा। मुझे जेल में रख कर सरकार को कुछ नहीं मिलेगा जबकि मुझे रिहा किया जाएगा तो सरकार का लाभ होगा।
आर सी मजूमदार, पीनल सेटलमेंटस इन अंडमान, पब्लिकेशन डिवीज़न, 1975 द्वारा उद्धृत
अंत में सावरकर दीनतापूर्वक विनती करते हैं- “सिर्फ बलशाली ही दयावान हो सकते हैं और आखिर पश्चात्ताप करनेवाला पुत्र माई-बाप सरकार के दरवाजे नहीं जाएगा तो कहां जाएगा।” (आर सी मजूमदार, पीनल सेटलमेंटस इन अंडमान, पब्लिकेशन डिवीज़न, 1975 द्वारा उद्धृत)
यद्यपि पिछले दो वर्षों में सावरकर को नए रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा में लगे इतिहासकारों का मानना है कि सावरकर द्वारा प्रयुक्त भाषा उस काल में दी जाने वाली दया याचिकाओं में उपयोग की जाने वाली भाषा जैसी ही है जिनके आधार पर आंदोलनकारियों की रिहाई होती थी।
यहां सावरकर शहीद भगत सिंह की परंपरा से बहुत दूर चले जाते हैं- एक ऐसी परंपरा जो हिंसा के दर्शन पर विश्वास करने के कारण किसी भी रूप में स्वीकार्य तो नहीं है किंतु जिस परंपरा के क्रांतिकारियों के लिए राष्ट्र हेतु प्राणोत्सर्ग करना हर्ष और गौरव का विषय था। इन क्रांतिकारियों की हिंसा आदतन नहीं थी, अपितु यह प्रतीकात्मक थी और वे गौरवपूर्वक अपने किए का दंड भुगतने को तत्पर रहते थे क्योंकि वे जानते थे उनका बलिदान देश के आम जन को निर्भीक और साहसी बनाएगा। हिंसा के बाद पलायन न करने अपितु वीरतापूर्वक स्वयं को पुलिस और कानूनी प्रक्रिया के हवाले कर देने की रणनीति जहां एक ओर अत्याचारी ब्रिटिश सरकार को न केवल मारक शक्ति के प्रदर्शन द्वारा भयभीत करती थी अपितु नैतिक रूप से भी उन्हें परास्त करने का प्रयास करती थी। क्रांतिकारी का घटनास्थल से न भागना, अपने अपराध को सहर्ष स्वीकार कर लेना, अपने लिए क्षमादान के स्थान पर मृत्युदंड की मांग करना और इस मृत्युदंड का हँसते-हँसते वरण करना उस ब्रिटिश सरकार के लिए एक गहरे मनोवैज्ञानिक आघात से कम नहीं होता था जो इन क्रांतिकारियों को आम अपराधियों की भांति यंत्रणाओं के आगे टूटते और सजा के डर से कांपते हुए देखना चाहती थी। मृत्युदंड को स्वीकार क्रांतिकारी अनकहे ही यह संदेश दे जाते थे कि हिंसा का परिणाम अच्छा नहीं होता भले ही उस हिंसा के पीछे नैतिक बल छिपा हुआ हो।
यह देखना आश्चर्यजनक है कि सावरकर का मनोबल हेमचंद्र कानूनगो, उल्लासकर दत्त, बरिंद्र कुमार घोष (अलीपुर बम विस्फोट,1908) तथा त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती (बारीसाल षड्यंत्र मामला, 1913) एवं सचीन्द्रनाथ सान्याल जैसे उसी सेल्युलर जेल में उनके साथ ही बन्द अन्य क्रांतिकारियों से भी कम सिद्ध हुआ जो बड़ी बहादुरी से जेल में होने अत्याचारों को न केवल सहन करते रहे बल्कि इनके विरुद्ध आवाज भी बुलंद करते रहे। सावरकर के वैचारिक साथी भाई परमानंद ने तो जेल में हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध दो माह का अनशन भी किया था।
इतिहासकार विक्रम संपत ने सावरकर की दया याचिकाओं को सही ठहराने हेतु एक नया तर्क दिया है:
उन्हें (सावरकर को) यह जानकर बड़ा झटका लगा कि अथक प्रयासों से जो रियायतें उन्हें अंडमान में मिली थीं वो रत्नागिरि जेल में वापस ले ली गई थीं और वह दोबारा अपनी जेल यात्रा की शुरुआत की स्थिति में आ चुके थे। इस बात ने उनका मनोबल तोड़ दिया और उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘माय ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ़’ में खुलकर लिखा कि यह तीसरा मौका था (इससे पहले दो बार पोर्ट ब्लेयर में) कि उन्होंने आत्महत्या की सोची क्योंकि उन्हें अपनी स्थिति बेहद निराशाजनक लग रही थी। अपनी दृढ़ता और आंतरिक ताकत के बल पर ही वे उन निराशाजनक विचारों से पार पा सके, वरना कई अन्य राजनीतिक बंदी या तो अपनी छोटी कालकोठरियों में फंदे से झूल गए थे या विक्षिप्त हो गए थे। ऐसी मानसिक अवस्था में, 19 अगस्त 1921 की उनकी याचिका में एक टूटे और निराश व्यक्ति की भावना झलकती है जो कि राजनीतिक संन्यास तक की सोच रहा था।
द प्रिंट, 28 मई 2019
यहां विक्रम संपत अनजाने में स्वयं यह स्वीकारते लगते हैं कि लंबे और कठोर कारावास ने सावरकर को इतना तोड़ दिया था कि वे आत्महत्या तक के लिए तैयार हो गए थे। क्या ऐसे हताश व्यक्ति के लिए क्रांति का मार्ग छोड़कर ब्रिटिश सरकार के साथ टकराव रहित सहयोगपूर्ण रिश्ते बनाने का प्रयास अपने कष्टों का एक सहज-स्वाभाविक हल नहीं था?
मंगलेश जोशी को भी इंडियाफैक्ट्स डॉट इन में प्रकाशित अपने आलेख में यह उल्लेख करना ही पड़ता है कि चीफ कमिश्नर ऑफ अंडमान एंड निकोबार आइलैंडस तथा सुपरिन्टेन्डेन्ट पोर्ट ब्लेयर ने 1919 में सावरकर बंधुओं के जेल में चाल चलन के बारे में भेजी रिपोर्ट में विनायक दामोदर सावरकर के विषय में लिखा- 1912, 1913, 1914 के दौरान काम करने से इनकार करने और प्रतिबंधित साहित्य रखने के कारण 8 बार दंडित। किन्तु पिछले 5 सालों में इसका व्यवहार बहुत अच्छा रहा है।
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इतिहास के नए पाठ में इस बात को बार-बार रेखांकित किया जा रहा है कि सावरकर के माफीनामे जेल से बाहर निकलकर पुनः क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने का मौका प्राप्त करने की रणनीति का हिस्सा थे। यह देखना रोचक होगा कि सेल्युलर जेल से रिहा होने के बाद सावरकर के साथी क्रांतिकारियों का जीवन किस प्रकार बीता।
सचीन्द्रनाथ सान्याल सेल्युलर जेल से रिहा होने के बाद भी ब्रिटिश सरकार का उग्र विरोध करते रहे। कहा जाता है उनकी इन क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें दुबारा सेल्युलर जेल भेज दिया गया था। बाद में 1924 में रामप्रसाद बिस्मिल और सान्याल तथा उनके अन्य साथियों ने क्रांतिकारी संगठन हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की। इसका ‘द रेवोल्यूशनरी’ शीर्षक मैनिफेस्टो सान्याल ने ही लिखा था। काकोरी बम कांड में संलिप्तता के कारण सान्याल को सजा हुई किन्तु वे 1937 में नैनी सेंट्रल जेल से रिहा कर दिए गए। टीबी से ग्रस्त हो जाने के बाद 1942 में उनकी मृत्यु हुई।
हेमचंद्र कानूनगो के विषय में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य अपनी पुस्तक- महापुरुषों के अविस्मरणीय जीवन प्रसंग- में लिखते हैं- ”वहां (सेल्युलर जेल) उन्होंने दस वर्ष बिताए और 1919 में मांटेग्यू चेम्सफोर्ड योजना के अनुसार बंदियों की आम रिहाई के समय उन्हें भी (1921 में) मुक्त किया गया। काले पानी की सजा काट कर आने के बाद वे पुनः राष्ट्रीय आंदोलनों में सक्रिय भाग लेने लगे। किन्तु 10 वर्ष तक असह्य शारीरिक यंत्रणाओं का भार झेलते-झेलते उनका शरीर लगभग टूट चुका था। अतः अब वे उस जोश खरोश के साथ काम न कर पाए। अंत में 1951 में उनका देहांत हो गया।” (पृष्ठ 95)
बरिंद्र घोष की सेल्युलर जेल से रिहाई बाद उनके आचरण के विषय में ”सोर्स मैटेरियल फ़ॉर द हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया वॉल्यूम 2, बॉम्बे गवर्नमेंट रिकार्ड्स” में अंकित है- ”बरिंद्र के बारे में नवीनतम गोपनीय रिपोर्ट्स यह दर्शाती हैं कि इस प्रकार के अपराधियों को क्षमादान देना किसी भी प्रकार लाभदायक नहीं है।” (मंगलेश जोशी द्वारा इंडिया फैक्ट्स, 8 दिसंबर 2019 में प्रकाशित आलेख में उद्धृत)। बरिंद्र बाद में अपने भाई महर्षि अरविंद से प्रभावित होकर 1923 में उनके पांडिचेरी स्थित आश्रम में चले गए। 1929 में वे लौटे और मुख्य रूप से पत्रकारिता करते रहे।
उल्लासकर दत्त को सेल्युलर जेल में अमानवीय यंत्रणाएं दी गईं और कहा जाता है कि कुछ समय के लिए उनका मानसिक संतुलन भी बिगड़ गया था। 1920 में उन्हें रिहा किया गया और वे कलकत्ता लौट आए। बाद में 1931 में उन्हें क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण पुनः गिरफ्तार किया गया और पुनः 18 महीनों की सजा दी गई।
त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती सेल्युलर जेल से रिहाई के बाद कलकत्ता वापस आए किन्तु 1927 में क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। वे बर्मा की मांडले जेल भेज दिए गए। वे 1928 में रिहा हुए। फिर उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी में प्रवेश ले लिया। वे 1929 की लाहौर कांग्रेस का भी हिस्सा रहे। इसके बाद 1930 से 1938 की अवधि तक वे पुनः कारागार में रहे। अपनी रिहाई के बाद उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश इंडियन आर्मी में विद्रोह कराने का असफल प्रयास किया। वे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रहे और फिर जेल भेज दिए गए। उनकी रिहाई 1946 में हुई।
सेल्युलर जेल में सावरकर के साथ कैद यह सभी क्रांतिकारी गांधी की अहिंसक रणनीति से सहमत नहीं थे। इनके धार्मिक विश्वास भी अलग-अलग थे। इनकी विचारधाराएं भी अलग-अलग थीं, किंतु गांधी की विचारधारा से असहमति और स्वाधीनता संग्राम की मुख्यधारा का हिस्सा न होने के बावजूद इन्होंने सेल्युलर जेल से अपनी रिहाई के बाद यथाशक्ति देश को आज़ाद कराने का प्रयत्न जारी रखा। इनका गांधी विरोध कभी भी स्वाधीनता आंदोलन को खारिज करने का कारण नहीं बना। न ही उन्होंने कभी कोई ऐसा कदम उठाया जो ब्रिटिश सरकार के लिए फायदेमंद होता।
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इतिहासकारों और विद्वानों एवं लेखकों का एक समूह (वाय डी फड़के, वेद राही, विक्रम संपत, मंगलेश जोशी आदि) सावरकर को एक चतुर और प्रैक्टिकल क्रांतिकारी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करता रहा है जो मूर्खतापूर्ण भावुकता में पड़कर अपने प्राण गंवाने के स्थान पर कारागार से निकलकर देश में स्वाधीनता संग्राम को गति देने का इच्छुक था। यह कहने में बहुत पीड़ा होती है कि आगे का घटनाक्रम इस बात का समर्थन नहीं करता, बल्कि इससे बार-बार यह संकेत मिलता है कि क्षमादान हेतु लिखी गई याचिकाओं में जो कुछ सावरकर ने लिखा था वह शायद किसी रणनीति का हिस्सा नहीं था अपितु इन माफीनामों में लिखी बातों पर उन्होंने लगभग अक्षरशः अमल भी किया।
अंततः मई 1921 में सावरकर सेल्युलर जेल से निकलने में कामयाब रहे। निरंजन टाकले( द वीक, अ लैम्ब लायनाइज़ड, 24 जनवरी 2016) तथा प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम (हिंदुत्व: सावरकर अनमास्क्ड, तृतीय संस्करण, 24 नवंबर 2015) के अनुसार यद्यपि उन पर राजनीतिक गतिविधि न करने समेत अनेक पाबंदियां थीं किन्तु अंडमान से लौटने के बाद उन्हें अपनी पुस्तक- हिंदुत्व हू इज हिन्दू- लिखने की पूरी सहूलियत जेल में ही अंग्रेज अधिकारियों ने दी थी। वर्ष 1924 में 6 जनवरी को अंग्रेज सरकार से समझौते के बाद पुणे की यरवदा जेल से उनकी रिहाई हुई। वे अब राजनीतिक गतिविधि न करने की पाबंदी के साथ रत्नागिरि में नजरबंद थे। राजनीतिक गतिविधियों पर पाबंदी के बावजूद अंग्रेजों ने 1925 में तब कांग्रेस के सदस्य और गांधी से गहन असहमति रखने वाले श्री हेडगेवार और सावरकर की मुलाकात पर कोई आपत्ति नहीं की क्योंकि श्री हेडगेवार सावरकर के हिंदुत्व से प्रभावित थे और सावरकर की गांधी विरोध की रणनीति में उनका सहयोग स्वाधीनता आंदोलन को कमजोर ही करता। ऐसा नहीं लगता है कि सावरकर पर रत्नागिरि में नजरबंदी के दौरान कोई विशेष बंधन लगाए गए थे, इस दौरान वे गांधी जी से भी मिले और हिन्दू महासभा की गतिविधियों को भी संचालित करते रहे। सावरकर को बी एस मुंजे द्वारा आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में नासिक जाने की अनुमति भी दी गई। सावरकर के जीवनी लेखक धनंजय कीर के अनुसार उन्होंने नासिक में “कुछ महार हिंदुओं को आगाखानी मुसलमानों के चंगुल से छुड़ाया। सरकार की अनुमति से उन्होंने भागुर, त्रिम्बक, येओला तथा नागर की यात्रा की और अपनी विचारधारा का प्रचार किया”। सावरकर ने 1924 में ही शुद्धि समारोह शुरू किए जो आज के घर वापसी अभियान की भांति थे। शम्सुल इस्लाम के अनुसार इस अभियान ने स्वाधीनता संग्राम में हर वर्ग के लोगों को सम्मिलित करने की कोशिशों को काफी नुकसान पहुंचाया।
निरंजन टाकले ने बीबीसी संवाददाता रेहान फजल को बताया- “सावरकर ने वायसराय लिनलिथगो के साथ लिखित समझौता किया था कि उन दोनों का समान उद्देश्य है गाँधी, कांग्रेस और मुसलमानों का विरोध करना है। अंग्रेज़ उनको पेंशन दिया करते थे, साठ रुपए महीना। वे अंग्रेज़ों की कौन सी ऐसी सेवा करते थे, जिसके लिए उनको पेंशन मिलती थी? वे इस तरह की पेंशन प्राप्त करने वाले अकेले व्यक्ति थे।”
जब भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था तब सावरकर भारत में विभिन्न स्थानों का दौरा करके हिन्दू युवकों से सेना में प्रवेश लेने की अपील कर रहे थे। उन्होंने नारा दिया- ”हिंदुओं का सैन्यकरण करो और राष्ट्र का हिंदूकरण करो।”
प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम ने हिन्दू महासभा आर्काइव्ज के गहन अध्ययन के बाद बताया है कि ब्रिटिश कमांडर इन चीफ ने हिंदुओं को ब्रिटिश सेना में प्रवेश हेतु प्रेरित करने के लिए बैरिस्टर सावरकर का आभार व्यक्त किया था। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सावरकर ने हिन्दू महासभा के सभी सदस्यों से अपील की थी कि वे चाहे सरकार के किसी भी विभाग में हों वे अपने पद पर बने रहें। (महासभा इन कॉलोनियल नार्थ इंडिया, प्रभु बापू)।
इसी कालखंड में जब विभिन्न प्रान्तों में संचालित कांग्रेस की सरकारें अपनी पार्टी के निर्देश पर त्यागपत्र दे रही थीं तब सिंध, उत्तर पश्चिम प्रांत और बंगाल में हिन्दू महासभा मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार चला रही थी। (सावरकर: मिथ्स एंड फैक्ट्स, शम्सुल इस्लाम)।
सावरकर ने जेल से अपनी रिहाई के बाद स्वाधीनता हेतु किए जा रहे प्रयासों से दूरी बना ली थी- चाहे वह गांधी का अहिंसक आंदोलन हो अथवा क्रांतिकारियों की हिंसक कोशिशें। वे तटस्थ भी नहीं थे, उन्होंने अंग्रेजों को अपना सक्रिय सहयोग दिया। शायद वे स्वाधीनता आंदोलन के अहिंसक और सर्वसमावेशी स्वरूप को हिन्दू राष्ट्र की स्थापना में बाधक समझने लगे थे।
लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं जिनकी सावरकर पर पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य है।
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