“एलीट के विद्रोह को जनता अपनी बग़ावत समझ बैठी है”!


अर्जुन अप्पादुरै

ओर्टेगा वाइ गैसे बीसवीं सदी के लगभग भुला दिये गये चिंतक हैं। वे स्पेन के एक अपारंपरिक दार्शनिक थे। समाजविज्ञान के क्षेत्र में किये गये उनके सबसे महत्वपूर्ण काम द रिवोल्ट आफ द मासेज़ में एक ऐसी दुनिया को लेकर उनका डर झलकता है जहां उदार (लिबरल) लोग गायब हो रहे हैं और “मास मैन” उभर रहा है। मास मैन के उनके विचार में गरीब आदमी नहीं था, वंचित भी नहीं था, सर्वहारा की भीड़ भी नहीं। यह नाम औसत व्यक्तियों की भीड़ के लिए प्रयोग किया गया था। ये लोग एक जैसे इसलिए नहीं हैं कि ये सभी अभावग्रस्त हैं। दरअसल, इनकी पसंद-नापसंद, इनके झुकाव और इनके मूल्य सब एक जैसे बना दिये गये हैं। उन्नीसवीं सदी के उदार मूल्यों के खिलाफ़ बग़ावत करने वाले ऐसे ‘मास’ (जन) की परिकल्पना करने वालों में ओर्टेगा शुरुआती व्यक्तित्व रहे हैं।

ओर्टेगा का संदर्भ यहां मैं इसलिए दे रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है कि बीसवीं सदी ने जन-विद्रोह (revolt of the masses) के सभी प्रमुख स्वरूपों का दोहन कर लिया है। अब हम एक नये दौर में प्रवेश कर चुके हैं जिसका लक्षण है “अभिजनों का विद्रोह” (revolt of the elites या कहें उच्च वर्ग या सम्भ्रान्त वर्ग की बग़ावत)। बग़ावत कर रहे ये एलीट वे लोग हैं जो मोदी, ट्रम्प, एर्डोगन, बोल्सोनारो, जॉनसन, ओर्बन और इनके जैसे तमाम अन्य शासकों (जिन्होंने ऊपर से लोकप्रियतावाद को पैदा किया और थाेपा है, जहां लोकतंत्र से सबको एक साथ बाहर निकालने में जनता का केवल एक चुनावी औज़ार की तरह इस्तेमाल किया जाता है) के नये निरंकुश राज को समर्थन देते हैं, उसे घेरे रहते हैं, उसका प्रसार करते हैं और उसकी खुशामद करते हैं।

इन नयी निरंकुश सत्ताओं वाले एलीटों के बरताव को हम “विद्रोह” क्यों कह रहे हैं, जबकि आदिम पूंजीवाद, क्रोनीवाद, नवउदारवाद या फिर उसका सबसे नया संस्करण विनाशकारी पूंजीवाद जैसी शब्दावली हमारे पास पहले से उपलब्ध है? आखिर ये नये एलीट हैं कौन और ये किसके खिलाफ़ बगावत कर रहे हैं?

अव्वल तो वे बाकी सभी एलीटों के खिलाफ़ बग़ावत कर रहे हैं जिन्हें वे पसंद नहीं करते, जिनसे डरते हैं और नफ़रत करते हैः मसलन, लिबरल एलीट, सेकुलर एलीट, विश्वबंधुत्व वाले एलीट, “हारवर्ड” से पढ़े एलीट, श्वेत प्रोटेस्टेन्ट (WASP) एलीट, पुराने खानदानी एलीट, बुद्धिजीवी, कलाकार और अकादमिक (ये श्रेणियां मिलाकर पुराने एलीटों का एक पूल बनता है। इसमें से विभिन्न देशों के लोकप्रियतावादी अपनी राष्ट्रीयता और सांस्कृतिकता के हिसाब से शब्द चुन लेते हैं)। इस तरह देखें तो यह वो एलीट है जो एलीट विरोध के अपने विमर्श में खुद का अभिजातपन (अपना एलीटवाद) छुपा ले जाता है।

दूसरे, यह बग़ावत उन सभी के खिलाफ़ है जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने सच्चे एलीटों को धोखा दिया है और अवैध तरीकों से सत्ता हथियाई है, जैसेः अमेरिका के अश्वेत, भारत के मुसलमान और सेकुलरवादी, ब्राज़ील के वामपंथी और समलैंगिक, रूस में असहमत लोग, एनजीओ और पत्रकार, तुर्की में सांस्कृतिक और आर्थिक अल्पसंख्यक, इंग्लैंड में प्रवासी, कामगार और यूनियनवादी। यह बग़ावत उनकी तरफ़ से है जो खुद को सच्चा एलीट मानते हैं और उनके खिलाफ़ है जिन्हें वे फर्जी एलीट या हड़पने वाला मानते हैं।

तीसरी बात, इन नये एलीटों का विद्रोह उन जंजीरों के खिलाफ़ है जिन्होंने उन्हें उदार लोकतंत्र के युग में बांधे रखा था। वे स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व से नफ़रत करते हैं। बस, खुद से नफ़रत नहीं करते। इन्हें नियंत्रण और संतुलन की प्रणाली पसंद नहीं क्योंकि वे इसे अपनी स्वच्छंदता पर अवैध बंदिश मानते हैं। इन्हें किसी भी किस्म के नियमन से नफ़रत है, खासकर कॉरपोरेट रियायतों पर नियमन से, क्योंकि वे इसे पूंजीवाद के खिलाफ साजिश के रूप में देखते हैं। पूंजीवाद को ये अपने निजी न्यायाधिकार की चीज़ मानते हैं। इन सब से ऊपर, ये विचार प्रक्रिया और प्रक्रिया में लगने वाली तार्किकता से नफ़रत करते हैं क्योंकि उसके लिए ठहर कर दूसरे को सुनना पड़ता है, धैर्य की ज़रूरत होती है और सामूहिक विवेक के प्रति निष्ठा चाहिए होती है। ये लोग अधिकारों के विभाजन में भी विश्वास नहीं करते, सिवाय तब जबकि उनके दोस्तों का विधायिका और न्यायपालिका पर नियंत्रण हो।

इसका मतलब यह निकलता है कि नये अभिजात्यों की सारी बग़ावत लोकतंत्र के खिलाफ़ है, लेकिन इसमें एक पेंच यह है कि ये बग़ावत लोक (यानी जनता) के नाम पर की जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस बग़ावत मेंं लोक की आधुनिक अवधारणा को लोकतंत्र से काट कर पूरी तरह अलग कर दिया गया है। इसीलिए यह विद्रोह तो है (इस अर्थ में कि सत्ता छीनने के लिए हुआ हर उभार विद्रोह ही होता है), लेकिन इंक़लाब नहीं है- जिसकी मंशा सियासत या आर्थिकी की बुनियाद में कुछ बदलाव लाना होता हो। यह विद्रोह एक एलीट द्वारा दूसरे एलीट की जगह लेने की महज कोशिश है।

यह सब कुछ पर्याप्त सामान्य और ऐतिहासिक रूप से परिचित जान पड़ता है, लेकिन इसे और समझने के लिए हमें कुछ समाजशास्त्रीय सवाल पूछने होंगे। मसलन, इस नये एलीट की प्रकृति क्या है? इसके प्रवेश की परिस्थिति को कौन परिभाषित करता है? इसके पक्ष में कौन बोलता है? इसकी सामाजिक जड़ें क्या हैं? इन सवालों के जवाब अलग-अलग देशों और समाजों के हिसाब से ही मिलेंगे। जहां तक अमेरिका की बात है, ट्रम्प जिस एलीट के लिए बोलता है और जिसे संबोधित करता है, वे उसी जैसी पृष्ठभूमि से आते हैंः ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं होते हैं, चलते-फिरते उद्यमी होते हैं या नेता, रिपब्लिकन होते हैं या फिर राजनीति के हर स्तर पर पाये जाने वाले अनुपयोगी किस्म के लोग होते हैं। इनमें अहंकारी और उन्मादी या नव-फासीवादी सीईओ होते हैं, ज्यादातर टीवी और रेडियो मीडिया का हिस्सा होता है, नस्ली और लोभी धर्म प्रचारक, चर्च और दानदाता भी होते हैं। इसमें अहम दक्षिणपंथी थिंकटैंकों में करियर बनाने की आस में बैठे तनखैयों को भी जोड़ लीजिए। इन एलीटों का न तो कोई ज़ाहिर इतिहास होता है, न रसूख़ और न ही सांस्कृतिक जड़ें। इनके तंत्र के मूल में कुछ सीक्रेट नेटवर्क होते हैं। इन नेटवर्कों का न तो कोई परंपरागत सिरा होता है और न ही मूल्य। ये सिर्फ अवसरवाद, लोभ और मुनाफे से संचालित होते हैं।

ऐसी ही एक तस्वीर भारत की मौजूदा सत्ता में बैठे एलीटों की खींची जा सकती है, जो चुनावों को छोड़कर हर एक लोकतांत्रिक संस्था के प्रति खुले तौर पर तिरस्कारपूर्ण है। इनमें अधपढ़ अर्थशास्त्री हैं, करियरवादी ठग हैं, चोर कारोबारी हैं जो एकाधिकार, लॉबींग और खुले भ्रष्टाचार के माध्यम से काम करते हैं और अपराधी नेताओं व जनप्रतिनिधियों का वह नया तबका है जिसे कोई शर्म नहीं। इस एलीट की बग़ावत उस प्रत्येक व्यक्ति या समूह से है जो नेहरूवादी समाजवाद, सेकुलरवाद और बहुलतावाद से जुड़ा है। यह एलीट मानता है कि हिंदू दक्षिणपंथियों का उनका गिरोह भारतीय इतिहास का सुप्त संकटमोचक है, जो मुग़लों, अंग्रेज़ों और कांग्रेस के राज के दौरान अपनी लंबी नींद से अब जाग रहा है। यह एलीट गठजोड़ मुस्लिम विरोधी विचारधारा, नीतियों और नरसंहारों के मर्तबान में पककर तैयार हुआ है। इस बग़ावती एलीट के बीच कोई वर्ग एकता जैसी चीज़ नहीं है, सिवाय इसके कि इसकी पकड़ उन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक साधनों पर है जिसके सहारे वे दंडमुक्त रह सकते हैं। ट्रम्प के एलीट साझेदारों की तरह यह तबका भी अवसरवाद से संचालित है और हर किस्म के जन सहभागिता वाले संस्थान के प्रति इनका तिरस्कार ही इन्हें आपस में जोड़े रखता है।

मैं एर्डोगन, पुतिन, बोल्सोनारो या दुएर्ते आदि की सामाजिक जड़ों के बारे में हालांकि पर्याप्त नहीं जानता, लेकिन यह अंदाजा लगा सकता हूं इन सभी बग़ावती एलीटों की प्रोफाइल एक सी ही होगीः परंपरागत संस्कृति और सामाजिक एलीटों के प्रति क्षोभ, उदार प्रक्रियाओं के प्रति तिरस्कार, बुद्धिजीवियों, अकादमिकों, कलाकारों, एक्टिविस्टों, समाजवादियों, नारीवादियों से नफ़रत, पूंजीवाद के प्रति सराहना लेकिन तभी तक जब तक कि वह उनके पक्ष में हो, और मतदाता सम्प्रदाय (जनता नहीं) का पीछा करते हुए लोकतंत्र के प्रति विद्वेष-भाव। हंगरी में विक्टर ओर्बन ने अपने एकछत्र राज की हाल ही में घोषणा कर डाली है। ट्रम्प कोविड राहतकार्य में दिए जा रहे चेक पर अपना नाम छपवा रहा है और उसने कह दिया है कि मौजूदा संकट में वह अपनी मनमर्जी करने के लिए इमरजेंसी अधिकारों का इस्तेमाल कर सकता है। मोदी ने खुद को भारत के संविधान से कमोबेश ऊपर घोषित कर दिया है, बोल्सोनारो, ट्रम्प और नेतन्याहू के साथ अपने साझा उद्देश्यों को सार्वजनिक कर दिया है और कोविड से पैदा संकट का इस्तेमाल करते हुए पूरे भारत में कर्फ्यू, पुलिस उत्पीड़न और फर्जी मामलों में कैद को लागू कर दिया है। कश्मीर में दमन का जो पानी नापा गया था, उसे अब पूरे देश में आज़माया जा रहा है। इन तमाम कदमों को उठाते वक्त ये नेता अपने साझेदारों और खुद से सहानुभूति रखने वालों के नेटवर्क पर भरोसा करते हैं। दूसरी ओर यह नेटवर्क यह मानकर चलता है कि वह अपने सुप्रीम नेता का कहा मानकर ही तरक्की कर सकता है।

अब सवाल उठता है कि दुनिया के नये निरंकुश शासनों के प्रतिनिधि ये एलीट यदि पुराने एलीटों के खिलाफ़ बग़ावत कर रहे हैं तो हम इनके अनुयायियों, इनके मतदाताओं, इनके जनाधार या कहें उस “जनता” को कैसे देखें जिसके नाम पर और जिसकी सहमति से ये तमाम लोकतांत्रिक ढांचों, मूल्यों और परंपराओं को पलटने में लगे हुए हैं।

यह सवाल दिक्कततलब तो है, लेकिन इसके कुछ परिचित जवाब मौजूद हैं। इनमें एक जवाब यह है कि ये निरंकुश एलीट प्रभाव जमाने वाले औजारों को अच्छे से समझते हैं और उनका इस्तेमाल करते हैं (जैसे प्रेम, त्याग, आक्रोश, नफ़रत, हानि के मनोभाव) जबकि इनके विरोधी लोग विचारों, मानकों, तर्कों आदि के सागर में उतराते रहते हैं, जिसका लोक में खरीदार ही नहीं बचा है। दूसरी बात महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने वाली टेक्नोलॉजी से जुड़ी है जिसका उभार दुनिया भर में हुआ है (जैसे विज्ञापन, उपभोक्ता सामग्री, सेलिब्रिटी कल्ट, कॉरपोरेट मुनाफा)। गरीब और निम्न वर्ग विवेकसंगत उदार प्रक्रियाओं की धीमी चाल से थक कर बेचैन हो चुका है। उसे अभी और तुरंत समृद्धि व आत्मप्रतिष्ठा चाहिए। ये नेता उनसे इसी का वादा करते हैं।

एक और दलील यह है कि निचले वर्ग अपने अलगाव, अभाव और कलंकीकरण से इतना पक चुके हैं कि उन्हें अपने आदिम नेता ही सही लगते हैं (जो कोई भी चीज़ पसंद आने पर बस छीन लेते हैं)। इसके अलावा इन तबकों में दूसरे समुदायों (मुसलमान, शरणार्थी, चीनी, जिप्सी, यहूदी, प्रवासी, इत्यादि) के प्रति भयवृत्ति (ethnophobia) पहले से कहीं ज्यादा हो गयी है, जिसका इस्तेमाल नेताओं द्वारा ध्यान भटकाने की रणनीति के तहत किया जाता है। ये तमाम दलीलें अलग-अलग राष्ट्रीय संदर्भों में अपने मायने रखती हैं। इस पृष्ठभूमि में ओर्टेगा गैसे हमारी सबसे बड़ी मदद यह करते हैं कि उनके माध्यम से हम देख पाते हैं कि हम एक ऐसे दौर के आरंभ में हैं जिसमें जनता के विद्रोह को बंधक बना लिया गया है, उसे कोआप्ट कर (अपने पाले में खींच) लिया गया है और एलीटों की बग़ावत ने उसे विस्थापित कर डाला है। चुनावों में आज भी निरंकुश शासकों का जैसा भरोसा कायम है, उसमें इस प्रक्रिया का सबसे परेशान करने वाला आयाम दिखता है।

वो यह, कि जनता (चाहे वह जो हो) यह मान चुकी है कि नये अभिजात्यों की बग़ावत ही उसकी अपनी बग़ावत है और उसे तो बस अपने शैतानी नेताओं का हौसला बढ़ाना है (और संभव हो तो पीछे चलना है)। मुमकिन है कि ये नेता उसे उसकी समस्याओं का कोई तुरंता जुगाड़ भी पकड़ा दें, शायद इसी उम्मीद में इस सूरत को बुनियादी रूप से बदलने के लिए जनता एक सच्चा परिवर्तनकारी प्रयास नहीं करती। फिलहाल स्थिति यह है कि ऊपर से गरीबों और निम्नवर्गीय लोगों के पास जो रिस कर पहुंचा है, वो यह भरोसा है कि बिना किसी दंड के भय के ये अब अपने से कमज़ोर आदमी को सता सकते हैं और उसकी हत्या कर सकते हैं। नौकरी, स्वास्थ्य सेवा, अधिक कमाई, सुरक्षित शहर, जैसे कहीं ज्यादा दैनंदिन लाभों के नीचे तक रिस कर आने के लिए तलछट में जीने वालों को अभी असीम धैर्य अपनाना होगा। अगर नफ़रत ऊपर से रिस कर नीचे तक आ सकती है, तो शायद समृद्धि भी कभी आ ही जाए।


अर्जुन अप्पादुरै आधुनिकता, सांस्कृतिकता और वैश्वीकरण पर हमारे समय के महत्वपूर्ण विचारकों में एक हैं। वे न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी में गोदार प्रोफेसर आफ मीडिया, कल्चर एंड कम्युनिकेशन हैं, बर्लिन के हर्टी स्कूल में एंथ्रोपोलॉजी और ग्लोबलाइज़ेशन के प्रोफेसर हैं और टाटा इंस्टिट्यूट आफ सोशल साइंसेज़, मुंबई में टाटा चेयर प्रोफेसर हैं।

यह लेख ग्रैजुएट इंस्टिट्यूट की वेबसाइट से साभार प्रकाशित है। इसका अनुवाद और संक्षेपण अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।


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3 Comments on ““एलीट के विद्रोह को जनता अपनी बग़ावत समझ बैठी है”!”

  1. पढ़ लिया। दिलचस्प लेख है। नयी [अब उतनी नई भी नहीं] तकनीक द्वारा हासिल अधिकार लेकर एक तबक़ा पुराने ज्ञान और ज्ञान की सत्ता पर क़ाबिज़ एलीट को धक्का मार रहा है। यह तबक़ा ज्ञान की पुरानी नैतिक ताक़त को हवा में उड़ा रहा है और नए क़िस्म की साठ-गाँठ में मुब्तिला है।

  2. सोच में सच्चाई है। समूचे देश को देखें तो एक भयानक चित्र उभरता है। पंचायती राज दिवस पर प्रधान सेवक द्वारा चर्चा से कुछ डरावना झॉंक रहा है। गरीब किसान मज़दूर आगे आगे और भी अपमानित होता रहेगा। भ्रष्टाचार और बाहुबल का शासन गॉंव गॉंव में पनपेगा।
    उ.प्र.,म.प्र.,राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखंड आदि में हर जगह राशन कोटेदार,ग्राम प्रधान,ब्लॉक कर्मचारी मिल कर घपला करते हैं। मनरेगा तो पूरा का पूरा घपला है। इस बुनियाद पर जो सत्ता चलेगी, वह गरीब को चूसेगी ही।
    इस पर विस्तार से चर्चा करें।

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