जब तमाम राजनीतिक दलों का आर्थिक दर्शन एकसमान है, ऐसे में किसान आंदोलन का हासिल क्या होगा?


सरकार किसान आंदोलन से जितनी भयभीत नहीं है उससे ज्यादा आतंकित इस बात से है कि कहीं इस आंदोलन से किसानों में वर्ग चेतना का उदय न हो जाए। सरकार को भय इस बात का है कि अलग अलग और अलग थलग चल रहे जन आंदोलनों में कहीं पारस्परिक सामंजस्य न स्थापित हो जाए। कहीं देश के आदिवासी यह न समझ जाएं कि उनके जल-जंगल-जमीन पर कब्जा कर उन्हें विस्थापन तथा विनाश के अंतहीन दुष्चक्र में फंसाने वाली शक्तियां और किसानों को कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग की ओर जबरन धकेलने वाली शक्तियां एक ही हैं।

सरकार इस बात से परेशान है कि कहीं देश के मजदूर यह न जान जाएं कि नई श्रम संहिताओं के जरिए मजदूरों द्वारा वर्षों के संघर्ष से अर्जित अधिकारों को समाप्त करने वाली ताकतें वही हैं जो खेती को निजी हाथों में सौंपने के लिए लालायित हैं। सरकार के माथे पर चिंता की लकीरें इसलिए भी हैं कि कहीं पब्लिक सेक्टर अंडरटेकिंग्स में कार्य करने वाले भुक्तभोगी कर्मचारी किसानों को यह न बता दें कि निजीकरण के पहले मौजूदा सिस्टम को किस प्रकार कमजोर किया जाता है ताकि निजीकरण की वकालत की जा सके।

सरकार की घबराहट इस बात को लेकर भी है कि कहीं किसान आंदोलन के बारे में पढ़ते गुनते देश के प्रवासी मजदूर यह न समझ जाएं कि उन्हें गांव से बेदखल कर शहरों में खदेड़ने वाले लोग वही हैं जो आज खुल्लमखुल्ला खेती पर कब्जा करने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार डर रही है कि कहीं इन प्रवासी श्रमिकों को यह भी ज्ञात न हो जाए कि एनआरसी के विरोध में आंदोलनरत जनसमुदाय केवल अल्पसंख्यक वर्ग की लड़ाई नहीं लड़ रहा है बल्कि यह उन करोड़ों प्रवासी मजदूरों के हित की बात कर रहा है जो नागरिकता साबित करने के लिए आवश्यक दस्तावेजों के अभाव के कारण ऐसे किसी सरकारी निर्णय से सर्वाधिक प्रभावित होंगे। सरकार इसलिए भी चिंतित है कि कहीं किसानों के इस आंदोलन से प्रेरित होकर दलित, अल्पसंख्यक और महिलाएं अपने संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष न प्रारंभ कर दें। कहीं वे स्वतंत्रता, समानता, धर्मपालन की आज़ादी, शोषण के विरुद्ध संघर्ष और संस्कृति तथा शिक्षा संबंधी अधिकारों की मांग न करने लगें।

किसान आंदोलन के साथ जनता का सिर्फ़ पेट नहीं, उसकी बोलने की आज़ादी भी जुड़ी हुई है!

सरकार यह जानती है कि ये सारे जनसंघर्ष यदि एकीकृत हो जाएं तो फिर कोई बड़ा परिवर्तन होकर रहेगा। इसलिए वह इस किसान आंदोलन को कमजोर करना चाहती है। वह उन सारी रणनीतियों का सहारा ले रही है जो अभी तक उसके वर्चस्व को बनाए रखने और बढ़ाने में सहायक रही हैं। सरकार समर्थक मीडिया इन आंदोलनरत अन्नदाताओं में खालिस्तानी, पाकिस्तानी और कथित टुकड़े टुकड़े गैंग के एजेंटों की भूमिका की कपोल कल्पित कहानियां दिखाता है और फिर सरकार के मंत्री इसकी पुष्टि करते नजर आते हैं। सरकार की नीतियों का विरोध करना अब राष्ट्रद्रोही घोषित किए जाने का आधार बन गया है। सरकार हर जन उभार को कमजोर करने के लिए इन अफवाहों का उपयोग करती रही है और वह अब भी ऐसा ही करना चाह रही है। सरकार के मंत्री और सरकार समर्थक मीडिया हाउस देश के स्वतंत्रता आंदोलन में सबसे ज्यादा कुर्बानी देने वाले, स्वतंत्र भारत द्वारा लड़े गए युद्धों में बढ़ चढ़ कर शहादत देने वाले और अपने परिश्रम तथा पुरुषार्थ से पूरे देश को अन्न के संकट से मुक्ति दिलाने वाले पंजाब के वीरों और मेहनतकश किसानों पर ऐसे मिथ्या लांछन लगा सकते हैं, यह देखना एक भयावह और दुःखद अनुभव है।

सरकार जानती है कि ये सारे जनसंघर्ष यदि एकीकृत हो जाएं तो फिर कोई बड़ा परिवर्तन होकर रहेगा, Source: Agrifood Atlas,2017

एक प्रयास यह भी हो रहा है कि इस आंदोलन को पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों के संपन्न किसानों के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया जाए। प्रधानमंत्री स्वयं यह आभास देते लग रहे हैं कि देश के छोटे और सीमांत किसान उनके साथ खड़े हैं जबकि सच्चाई यह है कि पंजाब और हरियाणा के जागृत, जुझारू एवं जागरूक कृषक उन आसन्न खतरों के प्रति देश के अन्य किसानों को सतर्क कर रहे हैं जो इन कृषि कानूनों के क्रियान्वयन के बाद आने वाले हैं। सरकार यह चाहती है कि देश के पिछड़े प्रदेशों के किसानों की कम जानकारी और असतर्कता का लाभ उठाकर वह उन्हें भ्रमित कर ले।

प्रधानमंत्री द्वारा अपनी कथित उपलब्धियां गिनाने के लिए मध्यप्रदेश के रायसेन का चयन एक राजनेता के तौर पर उनके अतिआत्मविश्वास और दुस्साहस को तो दर्शाता ही है, किंतु बतौर मनुष्य यह उन्हें संवेदनहीन भी सिद्ध करता है क्योंकि मध्यप्रदेश के इस इलाके में किसान सर्वाधिक बदहाल और आंदोलित रहे हैं। यह क्षेत्र 6 जून 2018 के मंदसौर गोलीकांड के लिए चर्चित रहा है। कमलनाथ की कांग्रेस सरकार के अल्प कार्यकाल को छोड़ कर विगत डेढ़ दशक से भाजपा मप्र में शासन में रही है। 2014 से पांच वर्ष तक तो यहाँ डबल इंजन की सरकार भी थी और आज भी है। ऐसी दशा में इस क्षेत्र के किसानों की बदहाली के लिए क्षमायाचना करने के स्थान पर प्रधानमंत्री जी अपनी उपलब्धियां गिनाकर उनके साथ क्रूर मजाक करते नजर आते हैं। बहरहाल, उनकी रणनीति यह है कि आंदोलन को पंजाब-हरियाणा के किसान विरुद्ध सारे देश के किसान या अमीर किसान विरुद्ध गरीब किसान के रूप में प्रस्तुत किया जाए।

एक कोशिश यह भी हो रही है कि इस आंदोलन को किसान विरुद्ध आम आदमी का रूप दे दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका का स्वरूप ऐसा ही है। अतिसामान्य ढंग से लगाई गई इस याचिका पर त्वरित सुनवाई भी हुई और आवश्यकता पड़ने पर छुट्टियों के दौरान कार्य करने वाली बेंच के पास जाने का अधिकार भी दिया गया। आश्चर्य यह है कि सुप्रीम कोर्ट भी सरकार की तरह सोचता नजर आ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा- पहले हम किसानों के आंदोलन के ज़रिये रोकी गई सड़क और इससे नागरिकों के अधिकारों पर होने वाले प्रभाव पर सुनवाई करेंगे। कानून की वैधता के मामले को इंतजार करना होगा। सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता के इस क्रम से भावी घटनाक्रम का अनुमान लगाया जा सकता है जो निश्चित ही किसानों के लिए आश्वासनदायी और सुखकर नहीं होगा।

इससे भी ज्यादा चिंताजनक है सोशल मीडिया पर किसानों के विरुद्ध किया जा रहा दुष्प्रचार। किसानों को आम जनता को परेशानी में डालने वाले राष्ट्रद्रोहियों के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास हो रहा है। आंदोलनरत किसानों के खानपान पर सवाल उठाए जा रहे हैं। किसानों को भोजन कराने वाले गुरुद्वारों और अन्य संगठनों के विरुद्ध घटिया और अनर्गल आरोप लगाए जा रहे हैं। आंदोलन की फंडिंग पर प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं। यह दुष्प्रचार उस खाते पीते प्रायः शहरी मध्यम वर्ग को लक्ष्य कर किया जा रहा है जिसे सरकारी राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए मर मिटने को तैयार आत्मघाती दस्ते के रूप में प्रशिक्षित किया गया है। धार्मिक और जातीय सर्वोच्चता के अहंकार में डूबा, घोर अवसरवादी, अपनी सुविधानुसार नैतिकता की परिभाषाएं गढ़ने वाला यह वर्ग समाज में सरकारी अनुशासन को बनाए रखने का स्वघोषित उत्तरदायित्व संभाल रहा है।

बॉर्डर पर किसान आंदोलन और मिडिल क्लास का ‘बॉर्डर’!

यह जमीन से इस कदर कट चुका है कि उत्पादन प्रक्रिया और उसमें श्रम के महत्व से यह बिल्कुल अपरिचित है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद की उपभोक्ता संस्कृति ने जिन नए व्यवसायों और रोजगारों को जन्म दिया है उनमें अमानवीयता, अवसरवाद एवं गलाकाट प्रतिस्पर्धा के तत्व इस तरह घुले मिले हैं कि यह नई पीढ़ी को संवेदनशून्य बना रहे हैं। जो नया नैरेटिव सोशल मीडिया पर गढ़ा जा रहा है वह टैक्स पटाने वाली, ईमानदार, सभ्य, अनुशासित सिविल सोसाइटी विरुद्ध अराजक, अनपढ़, असभ्य किसान का नैरेटिव है। सोशल मीडिया पर ऐसी ही भावना तब देखी गई थी जब प्रवासी मजदूरों की घर वापसी की कोशिशों को कोविड-19 के प्रसार के लिए उत्तरदायी ठहराया गया था।

विश्व बाजार में उत्पादन के लिए जमीन की लूट, स्रोत: Agrifood Atlas 2017

किसानों के विरुद्ध जहर उगलने वाले यह लोग कृषि कानूनों के बाद आने वाले संभावित बदलावों से अछूते नहीं रहेंगे। प्रभात पटनायक आदि विशेषज्ञों के अनुसार इन कृषि कानूनों के बाद खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। देश में कृषि भूमि सीमित है, फसलों की उत्पादन वृद्धि में सहायक सिंचाई आदि सुविधाओं तथा कृषि तकनीकों में सुधार की भी एक सीमा है। इस अल्प और सीमित भूमि में ग्लोबल नॉर्थ (विकसित देशों की अर्थव्यवस्था एवं बाजार, ग्लोबल नॉर्थ एक भौगोलिक इकाई नहीं है) के उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए खाद्यान्नों के स्थान पर उन फसलों का उत्पादन किया जाएगा जो इन देशों में पैदा नहीं होतीं। जब तक पीडीएस सिस्टम जारी है तब तक सरकार के लिए आवश्यक खाद्यान्न का स्टॉक बनाए रखने के लिए अनाजों की खरीद जरूरी होगी, किंतु बदलाव यह होगा कि वर्तमान में जो भी अनाज बिकने के लिए आता है उसे खरीदने की अब जो बाध्यता है वह तब नहीं रहेगी।

सरकार पीडीएस को जारी रखने के लिए आवश्यक अनाज के अलावा अधिक अनाज खरीदने के लिए बाध्य नहीं होगी। इसका परिणाम यह होगा कि कृषि भूमि का प्रयोग अब विकसित देशों की जरूरतों के अनुसार फसलें पैदा करने हेतु होने लगेगा। विश्व व्यापार संगठन की दोहा में हुई बैठक से ही भारत पर यह दबाव बना हुआ है कि सरकार खाद्यान्न की सरकारी खरीद में कमी लाए, किंतु किसानों और उपभोक्ताओं पर इसके विनाशक प्रभावों का अनुमान लगाकर हमारी सरकारें इसे अस्वीकार करती रही हैं। विकसित देश अपने यहां प्रचुरता में उत्पन्न होने वाले अनाजों के आयात के लिए भारत पर वर्षों से दबाव डालते रहे हैं। 1960 के दशक के मध्य में बिहार के दुर्भिक्ष के समय हमने अमेरिका के दबाव का अनुभव किया है और खाद्य उपनिवेशवाद के खतरों से हम वाकिफ हैं।

यह तर्क कि नया भारत अब किसी देश से नहीं डरता, केवल सुनने में अच्छा लगता है। वास्तविकता यह है कि अनाज के बदले में जो फसलें लगाई जाएंगी उनकी कीमतें अंतरराष्ट्रीय बाजार में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव दर्शाती हैं, इसी प्रकार के बदलाव विदेशी मुद्रा में भी देखे जाते हैं और इस बात की आशंका बनी रहेगी कि किसी आपात परिस्थिति में हमारे पास विदेशों से अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं रहेगी।

आज हमारे पास विदेशी मुद्रा के पर्याप्त भंडार हैं, किंतु आवश्यक नहीं कि यह स्थिति हमेशा बनी रहेगी। विदेशों से अनाज खरीदने की रणनीति विदेशी मुद्रा भंडार के अभाव में कारगर नहीं होगी और विषम परिस्थितियों में करोड़ों देशवासियों पर भुखमरी का संकट आ सकता है। भारत जैसा विशाल देश जब अंतरराष्ट्रीय बाजार से बड़े पैमाने पर अनाज खरीदने लगेगा तो स्वाभाविक रूप से कीमतों में उछाल आएगा। जब कमजोर मानसून जैसे कारकों के प्रभाव से देश में खाद्यान्न उत्पादन कम होगा तब हमें ज्यादा कीमत चुका कर विदेशों से अनाज लेना होगा।

इसी प्रकार जब भारत में अनाज के बदले लगाई गई वैकल्पिक फसलों की कीमत विश्व बाजार में गिर जाएगी तब लोगों की आमदनी इतनी कम हो सकती है कि उनके पास अनाज खरीदने के लिए धन न हो। यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि खाद्यान्न के बदले में लगाई जाने वाली निर्यात की फसलें कम लोगों को रोजगार देती हैं। जब लोगों का रोजगार छिनेगा तो उनकी आमदनी कम होगी और क्रय शक्ति के अभाव में वे भुखमरी की ओर अग्रसर होंगे। भारत जैसे देश में भूमि के उपयोग पर सामाजिक नियंत्रण होना ही चाहिए। भूमि को बाजार की जरूरतों के हवाले करना विनाशकारी सिद्ध होगा। कोविड-19 के समय देश की जनता को भुखमरी से बचाने में हमारे विपुल खाद्यान्न भंडार ही सहायक रहे।

विश्व में भूख के आँकड़े, स्रोत: Agrifood Atlas 2017

प्रधानमंत्रीजी उस विपक्ष को इस आंदोलन के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं जो खुद इस स्वतः स्फूर्त जन उभार को देखकर चकित है और स्वयं असमंजस में है कि क्या स्टैंड ले? प्रधानमंत्री अपनी सारी शक्ति यह सिद्ध करने में लगा रहे हैं कि किसानों की दुर्दशा के लिए उत्तरदायी कांग्रेस इन कृषि सुधारों की हमेशा वकालत करती थी, किंतु इन्हें अमली जामा पहनाने का उसमें हौसला न था। आज हमारी निर्णय लेने वाली सरकार द्वारा इन सुधारों को क्रियान्वित किए जाने के बाद ईर्ष्याग्रस्त होकर कांग्रेस किसानों को आंदोलन के लिए भड़का रही है।

1991 के बाद हमारा देश एलपीजी (लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन) की राह पर तेजी से चल निकला। नई वैश्विक व्यापार व्यवस्था के सबक बहुत साफ हैं- कृषि में सब्सिडी समाप्त की जाए, पीडीएस खत्म हो, कृषि भूमि का उपयोग बाजार की जरूरतों के अनुसार हो, कृषि क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा मैन पॉवर लगा है अतः कृषि का यंत्रीकरण किया जाए जिससे मैन पॉवर की आवश्यकता कम होगी, उत्पादन लागत में कमी आएगी, (बहुराष्ट्रीय कंपनियों का) मुनाफा बढ़ेगा, गांवों से लोग शहरों में जाएंगे जहां शहरी कारखानों को सस्ते मजदूर मिलेंगे। कांग्रेस भी वैश्विक अर्थव्यवस्था के दबावों के कारण किसानों को एलपीजी की ओर धकेल रही थी, उसी नीति को मोदी सरकार ने आगे बढ़ाया है।

अंतर केवल इतना है कि कांग्रेस स्वाधीनता आंदोलन की अपनी विरासत के कारण (जिसमें किसानों की अग्रणी भूमिका थी) और अपने पूर्ववर्ती नेतृत्व के वेलफेयर स्टेट की अवधारणा में गहन विश्वास के कारण भी वैसी निर्लज्ज निर्ममता से इन कृषि सुधारों को लागू नहीं कर पा रही थी जैसी वर्तमान मोदी सरकार ने दिखाई है। पुनः जो नैरेटिव गढ़ा जा रहा है वह है कांग्रेस और विरोधी दलों द्वारा भड़काए गए किसान विरुद्ध सकारात्मक सोच वाले समझदार राष्ट्रभक्त और तरक्कीपसंद सरकार समर्थक किसान।

कुल मिलाकर सरकार यह चाहती है कि इस आंदोलन की कोई ऐसी व्याख्या जनता के लिए स्वीकार्य बनाई जाए जो नफरत, संदेह और बंटवारे के नैरेटिव को सपोर्ट करे। यह सरकार का होमग्राउंड है और यहां वह अपराजेय है। किसानों ने अपने आंदोलन का स्वरूप अराजनीतिक बनाए रखा है। यह एक दृष्टि से उचित भी है। किसान आंदोलन के वास्तविक लक्ष्य देश के प्रमुख राष्ट्रीय दलों के आर्थिक दर्शन से संगति नहीं रखते। किसान और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विमर्श के केंद्र में लाना तो दूर इन्हें गौण और महत्वहीन बनाना इन राजनीतिक दलों की प्राथमिकता है। किंतु फिर प्रश्न यह उठता है कि इस आंदोलन का हासिल क्या होगा?

क्या लिबरलाइजेशन-प्राइवेटाइजेशन-ग्लोबलाइजेशन का समर्थन करने वाले राजनीतिक दल किसानों के साथ न्याय कर पाएंगे? शायद यह आंदोलन सरकार को इन कृषि सुधारों के क्रियान्वयन को कुछ समय तक स्थगित रखने हेतु विवश कर दे और कुछ समय बाद इन्हें कुछ कॉस्मेटिक चेंज के साथ फिर पेश किया जाए।

केंद्र सरकार को यदि लगातार चुनावी सफलताएं नहीं मिलतीं तो उसका अहंकार शायद कुछ कम होता। किसानों और मजदूरों का जन असंतोष यदि वोटों में तबदील हो जाता तो शायद बिहार के चुनावों का परिणाम कुछ और होता। जब तक किसानों और मजदूरों में वर्ग चेतना का विकास नहीं होगा तथा वे वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध मतदाता समूह की भांति मतदान नहीं करेंगे तब तक चुनावी राजनीति से अपनी प्राथमिकताएं तय करने वाली पार्टियां उनकी समस्याओं के प्रति गंभीर नहीं होंगी।

क्या कोई यह विश्वास भी कर सकता है कि किसान, ग्रामीण अर्थव्यस्था और सहकारिता की जीवन भर पैरवी करने वाले महात्मा गाँधी के देश में किसानों की यह स्थिति हो जाएगी कि उन्हें न केवल आत्मरक्षार्थ आंदोलनरत होना पड़ेगा अपितु राष्ट्रविरोधी, खालिस्तानी और पाकिस्तानी जैसे अपमानजनक संबोधनों का सामना भी करना पड़ेगा। गाँधी के देश के किसान इस धरा को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं। आशा करनी चाहिए कि सरकार के तमाम हथकंडों के बावजूद न तो किसान भ्रमित होंगे न ही देश की जनता। इस आंदोलन का शांतिपूर्ण स्वरूप तथा इसकी पारदर्शिता एवं पवित्रता का बने रहना इसके परिणाम से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि आने वाले संघर्षों बुनियाद इन्हीं विशेषताओं पर रखी जायेगी।


लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित टिप्पणीकार हैं


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