(रबीन्द्रनाथ टैगोर की कविता ‘जहां निर्भय चित्त हो’ से प्रेरित)
जहाँ ‘अमेजन’ हो बस एक अंतहीन वर्षावन का विस्तार,
ना कि होता हो जहाँ बे-अंत ख़रीददारी का नंगा नाच
जहाँ झमामझम बरसें ‘क्लाउड’,
ना कि हो ताक-झांक के आँकड़ों का वहां बसेरा
जहाँ ‘रिलायंस’ हो तो अपने दोस्तों पर,
ना कि जहाँ किसी पूँजीपति का हाथ हो आपकी जेब में
जहाँ ‘एपल’ हो सबका मनपसंद ज़ायक़ेदार फल,
ना कि भीतर तक दुर्गन्ध से भरी किसी कंपनी का नाम
ओ, मेरे देशज मित्र, मुझे उस दुनिया में ले चलो
जहाँ ‘शेल’ समुद्रतट पर पाई जाने वाली एक चमत्कारिक चीज़ होती है,
ना कि समंदर के सीने को चीरने वाले किसी कॉरपोरेशन का नाम
जहाँ ‘ट्विटर’ करते हों आसमान में पंछी,
ना कि जहाँ हो वो बातूनियों का अखाड़ा
जहाँ ‘जगुआर’ बिल्लियाँ हों और जंगलों में अपने शिकार पर घात लगाती हों,
ना कि शहर की सड़कों पर पैदल चलने वालों को रौंदने वाली चमचमाती गाड़ियाँ
जहाँ ‘माइक्रोसॉफ़्ट’ हो माँ का कोमल स्पर्श,
ना कि मुनाफाखोरी की मशीन
ओ, मेरे पर्यावरणीय नारीवादी मित्र, मुझे उस दुनिया में ले चलो
जहाँ मेरा चेहरा हो एक किताब,
लेकिन जिसे मुझ पर नज़र रखने के लिए सत्ताधरियों को ना बेचा जाता हो
जहाँ ‘मस्क’ हो हिमालय के हिरन की गंध,
ना कि किसी अमीरज़ादे का नाम, जो पैसे वालों को मंगल ग्रह पर भेजने में मददगार
जहाँ ‘गौतम’ हो करुणा की सीख देने वाले अध्यापक का नाम,
ना कि किसी देशी लोलुप कंपनी के मालिक का नाम
जहाँ ‘स्मार्ट’ हो धरतीपुत्र ऑस्ट्रेलियाई मूल निवासी,
ना कि वो आइबीएम जो इस धरती को स्मार्ट बनाने पर तुला है
ओ, मेरे पर्यावरणीय न्यायवादी मित्र, मुझे उस दुनिया में ले चलो
जहाँ धर्म के मर्म में अनुकंपा हो, ना कि कट्टर हठधर्मिता
जहाँ शक्ति सभी का जन्मसिद्ध अधिकार हो, ना कि चंद सत्ताधारियों की बपौती
जहाँ अक़्लमंदी क़ुदरत की नेमत हो,
ना कि प्रयोगशालाओं में दिमागों में ठूंसी गई समझदारी
जहाँ संपदा, सुख का पैमाना हो,
ना कि फ़ोर्ब्स-500 की सूची में डाला जाने वाला मानक
ओ, मेरे अशक्त मित्र, मुझे उस दुनिया में ले चलो
उस हसीन दुनिया में,
जहाँ ना ख़ौफ़ हो ना आतंक…
चले चलो…कुछ की अगुवाई तुम करो, कुछ के पीछे मैं हो लूं
उस हसीन दुनिया में,
जो दुर्गम दिखती है… पर
हमने भी हार कहाँ मानी है!
आशीष कोठारी स्वयंसेवी संस्था कल्पवृक्ष के संस्थापक सदस्य हैं। अनुवाद राजेन्द्र सिंह नेगी ने किया है।