भारत में मुसलमानों को हमेशा मुख्यधारा में समाहित होने के लिए कहा जाता है। कुछ हद तक आदिवासियों के लिए भी यही बात कही जाती है। दोनों के बीच बस अंतर इतना है कि ऐसा मान लिया जाता है कि मुसलमान ‘मुख्यधारा’ में आने के इच्छुक नहीं हैं जबकि आदिवासी इसमें सक्षम नहीं हैं। जिसे ‘मुख्यधारा’ कहते हैं, उसके बारे में आम तौर से यह मानकर चला जाता है कि वह तो केवल उच्च जाति के हिंदुओं से मिलकर बनी है जिसमें अल्पसंख्यकों का कोई योगदान नहीं है। इसी के समानांतर, जब जेलों में ज्यादातर मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों को भर दिया जाता है और बिलकुल उन्हीं अपराधों में उन्हें जमानत नहीं मिलती जिसमें बाकी को आसानी से मिल जाती है, तब इस बात को कोई नहीं मानता कि मुख्यधारा ने कैसे जान-बूझ कर उन्हें बाहर रखा हुआ है।
ऐसे में जब उमर ख़ालिद जैसा एक मुसलमान सीमाएं लांघता है, तो मुख्यधारा सदमे में ही आ जाती है। उसके लिए वह एक अजूबे की तरह सामने आता है- एक तो मुखर मुस्लिम युवा, उस पर से वह टोपी नहीं पहनता, नास्तिक भी है और उसने सिंहभूम के आदिवासियों पर इतिहास विषय में पीएचडी की है, वो भी जेएनयू से! आरएसएस जैसी बंटी हुई दुनिया बनाना चाहता है, उसमें ऐसा एक शख्स विसंगति बन कर उभरता है। फिर उसे उसकी पहचान के केवल एक पहलू तक सीमित करने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं, ताकि वह जो कुछ भी कहे, करे या या लिखे, उसे महज एक मुसलमान की अभिव्यक्ति माना जाए। और एक मुसलमान का कहा, किया लिखा मतलब सीधे तौर पर हिंसक, राष्ट्रविरोधी और ‘भारतीय मुख्यधारा’ के लिए खतरा! इतना बड़ा खतरा, कि वह तीन साल से बिना जमानत के जेल में क़ैद है। यह आश्चर्य की बात नहीं है कि सीएए विरोधी प्रदर्शनों के लिए गिरफ्तार किए गए बहुत सारे युवा भारत के प्रमुख विश्वविद्यालयों के मुस्लिम छात्र थे।
उमर के खिलाफ कायम किया गया मुकदमा कितना लचर है, इस पर कई लोग लिख चुके हैं। मुकदमे की तमाम कानूनी विचित्रताएं एक तरफ, उसके ऊपर एक व्हाट्सएप ग्रुप का सदस्य होने और ‘इंकलाबी सलाम’ जैसा अभिवादन करने तक का आरोप है। जिस भाषण में वह नफरत के खिलाफ प्रेम को खड़ा करने की बात कर रहा है उसे अदालत द्वारा ‘घिनौना’ करार दिया जाना विशुद्ध न्यायिक पाखंड है, जब अपने नफरती भाषणों से दिल्ली में 2020 में मुसलमानों पर हमले को भड़काने वाले कपिल मिश्रा और अनुराग ठाकुर न सिर्फ खुला घूम रहे हैं बल्कि सरकारी पदों का मजा भी ले रहे हैं।
इन सब बातों के बजाय हालांकि मैं यहां अकादमिक जगत को हो रहे उस नुकसान की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगी जो उमर जैसी इतिहास की तीक्ष्ण मेधा को सलाखों के पीछे रखने से हो रहा है। मैंने आदिवासी इतिहास पर बहुत गहराई से काम किया है, इस नाते कह सकती हूं कि जब मैंने उमर की पीएचडी थीसिस पढ़ी तो मुझे लगा कि मैंने वास्तव में कुछ नया सीखा है। अगर आप इस बात पर गौर करें कि यह थीसिस किन हालात में लिखी गई है- जब वह देशद्रोह के आरोप में कानूनी लड़ाई लड़ रहा था, कुछ समय कैद में बिता चुका था, उसके ऊपर गोली चली थी जिसमें वह बाल—बाल बच गया था और इसके बाद से ही लगातार मीडिया में उसका इतना अपमान हो चुका था कि वह कहीं खुलकर आ जा भी नहीं सकता था- तो आपको मानना पड़ेगा कि यह न सिर्फ मेधावी बल्कि साहसिक भी है।
इस संदर्भ में यह भी जानना चाहिए कि उमर को अंतिम सेमेस्टर में युनिवर्सिटी से निकाल दिया गया था। थीसिस लेखन के दौरान यह ठीक वह चरण होता है जब किसी छात्र को यूनिवर्सिटी की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। इसके बाद थिसिस जमा करने का आदेश उसे अदालत से लाना पड़ा। विडम्बना है कि जिस जज ने उसे और दूसरे छात्रों को जेएनयू में उनकी थीसिस जमा करने का आदेश दिया था, उसी ने बाद में उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया। वह जज निश्चित रूप से इस युवक के संघर्ष को जानता रहा होगा, कि इसने ऐसी बाधाओं का सामना किया है जो किसी हलके इंसान को तोड़ ही देतीं।
उमर चाहता तो वह भी चुप मारकर दूसरे शोधकर्ताओं की तरह पोस्ट डॉक या नौकरी के लिए आवेदन में जुट जाता या फिर इसी निजाम में आगे का रास्ता बनाने के लिए घिसी-पिटी पत्रिकाओं में शोधपत्र छपवाता रहता। इसके बजाय उसने कठिन राह चुनी- राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ चले संघर्ष में दिलो जान से खुद को झोंक डाला।
सीएए के बारे में सामान्य धारणा यह थी कि इससे सिर्फ मुसलमानों की नागरिकता को खतरा है। यह सच नहीं है। आदिवासियों, दलितों, गरीबों, औरतों, खतरा उन सब को है जिनके पास कागज या लिखित वंशावली नहीं है। इन सबके लिए निस्वार्थ भाव से ल़ड़ने और भारतीय लोकतंत्र को बचाने वाले उमर को बतौर ईनाम जेल मिली, जिसकी मीयाद आज तीन साल के पार जा चुकी है।
उमर का शोध
उमर की थीसिस (Contesting Claims and Contingencies of Rule: Singhbhum 1800 – 2000) भारत के सबसे अलग—थलग और पिछड़े क्षेत्र के रूप में देखे जाने वाले खनन-सघन भूखंड सिंहभूम में आदिवासियों और राज्य के बीच के संबंध की एक अंतर्दृष्टिपूर्ण शोध पड़ताल है।
समूचा आदिवासी समाज एकरूप होकर राज्य के खिलाफ खड़ा हो गया है, उमर इस लोकप्रिय समझ का खंडन करते हुए बताते हैं कि आदिवासी समाज के भीतर भी दरारें मौजूद हैं। राज्य ने इन्हीं दरारों के जरिये उनके बीच हस्तक्षेप किया है। अप्रत्यक्ष रूप से शासन करने की औपनिवेशिक नीति ने ‘हो’ आदिवासियों के भीतर एक विशेष वर्ग को मजबूत करने में मदद की। वे कहते हैं कि आदिवासी समाज के भीतर मौजूद ऊंच-नीच को राज्य ने न केवल मजबूत किया, बल्कि बदले में नई परतें भी बनाईं।
उमर का शोध प्रबंध एक क्षेत्र के रूप में सिंहभूम के गठन और औपनिवेशिक प्रशासनिक ढांचे के भीतर मानकी—मुंडा (आदिवासी गांवों के परंपरागत मुखिया) प्रथा को समाहित किए जाने की प्रक्रिया पर विस्तार से निगाह डालता है। उन्होंने विश्लेषण किया है कि कैसे इस प्रणाली ने कृषि योग्य भूमि का विस्तार किया, लगान को बढ़ाया और वन प्रबंधन में मदद की। इस सुदीर्घ इतिहास के भीतर वे जयपाल सिंह मुंडा की आदिवासी महासभा का पक्ष खंगालते हुए बताते हैं कि उसकी वैचारिक जड़ें दरअसल अंग्रेजों द्वारा प्रतिपादित विशिष्टतावाद और अंतर-जनजातीय भेद तक जाती थीं। इसीलिए जयपाल सिंह जनजातीय स्वायत्तता की बात तो कर रहे थे, लेकिन उसकी हदें भारतीय संविधान के चौखटे में ही सीमित थीं।
इस थीसिस में ऐसा कुछ भी नहीं है जो दर्शाता हो कि लेखक का कोई सरोकार खूनी क्रांति से है। इस थीसिस की विषयवस्तु पूरी तरह से लोकतंत्र और उसके आचार के साथ लेखक की गहन संलग्नता की गवाही देती है।
इस बीच उमर ने जेल में अपने समय का उपयोग काफी पढ़ने-लिखने में किया है। उसने रणजीत गुहा पर एक स्मृतिलेख भी लिखा था। एक विशुद्ध अकादमिक के तौर पर मैं बस इतना कहूंगी कि इस युवा को जल्द से जल्द जेल से बाहर निकाल जाना चाहिए, सामान्य जीवन जीने का मौका दिया जाना चाहिए ताकि अपनी थीसिस को वह एक किताब की शक्ल दे सके।
उमर की थीसिस का अंतिम पैरा एक मार्मिक टिप्पणी से समाप्त होता है:
मैं ख़ास तौर पर यह देखना चाहता था कि आदिवासी समुदाय के हाशिये पर रहने वाले लोग नई संरचनाओं के निर्माण की प्रक्रिया में अपने समुदायों की विभिन्न प्रभुत्ववादी संरचनाओं के साथ कैसे जुडते हैं और आदान-प्रदान करते हैं। किस्मत को यह मंजूर नहीं था। चीजें मेरे नियंत्रण में नहीं रहीं। 2016 के बाद मैं झारखंड नहीं जा सका। उम्मीद है कि भविष्य में कभी किसी अनुकूल समय में इस कहानी पर लौटूंगा ताकि इस बगावत की तह में छुपी परिवर्तनकारी सामाजिक प्रक्रिया की संभावनाओं और सीमाओं की पड़ताल कर पाऊं।
हम महज उम्मीद कर सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट उसकी जिंदगी में ऐसा अनुकूल समय लेकर आए, उमर सहित उन तमाम युवाओं को रिहा करे जिन्हें अन्यायपूर्ण तरीके से कैद किया गया है, सिर्फ इसलिए कि वे अपने घरो और परिसरों से बाहर निकले और सीएए के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों में शामिल हुए। इनकी अकादमिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने में न्यायपालिका का पक्ष निर्णायक होगा।
यह लेख द वायर पर छपे नंदिनी सुंदर के अंग्रेजी लेख का अनुवाद है। अनुचाद रोहित जोशी ने किया है