पिछले दिनों एक मित्र का फोन आया. थोड़ी हड़बड़ाहट में, चिंता में भी. उनका कहना था कि मुझे पहले फलाना वाला ट्वीट डिलीट करना चाहिए उसके बाद कुछ और बात करते हैं. उनकी दलील थी कि मैंने जो ट्वीट किया है वह मानहानि की श्रेणी में लाया जा सकता है और मुझे परेशान किया जा सकता है. मैं उनसे तर्क करना चाह रहा था कि आखिर उस ट्वीट में ऐसा क्या है कि कोर्ट उसे अवमानना समझेगी? मेरे इस बात के जवाब में उनका कहना था कि आखिर प्रशांत भूषण के ट्वीट में ऐसा क्या है कि कोर्ट उसे अवमानना समझ रही है? लेकिन कोर्ट उसे अवमानना समझ रही है! और जब प्रशांत भूषण जैसे व्यक्ति को, जो खुद इतना नामी-गिरामी वकील है, कोर्ट अवमानना के मामले में घसीट सकता है तो मेरी क्या औकात है? आखिरकार मैंने उनकी बात मानते हुए अपने ट्वीट को डिलीट कर दिया. वैसे उनका यह भी सुझाव था कि एक दिन सबको मिलकर प्रशांत भूषण के उस ट्वीट को रिट्वीट करना चाहिए, देखते हैं कि कोर्ट क्या करती है!
पिछले छह वर्षों के मोदी के कार्यकाल पर गौर करें तो हम पाते हैं कि हर संस्थान वही नहीं रह गया है जो पहले था. जो संस्थाएं बेहतर काम कर रही थीं उन्होंने काम करना बंद कर दिया है और जो संस्थान बिल्कुल ही काम नहीं कर रहे थे वे अलग तरह का काम करने लगे हैं. जिन संस्थानों के भरोसे लोग अपने को सुरक्षित महसूस करते थे, वे निष्पक्ष नहीं रह गये हैं बल्कि पार्टी बन गये हैं और आपके खिलाफ खड़े हो गये हैं. न्याय की सारी अवधारणाएं लगातार कमजोर होती जा रही हैं और कहीं-कहीं तो पूरी तरह ध्वस्त हो गई हैं.
इसके लिए तो उदाहरणों की भरमार है, लेकिन कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनके बारे में सब जानते हैं लेकिन बात नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें कहीं न कहीं डर है कि अगर कुछ बोल दिया तो लेने के देने न पड़ जाएं! ऐसा भी नहीं कि यह डर बेवजह है. इतने उदाहरण हैं कि नाम लेते ही डर पैदा होने लगता है. उदाहरण के लिए सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, आनन्द तेलतुंबडे, वरवर राव जैसे कई लोगों का नाम लिया जा सकता है जिन्हें भीमा कोरेगांव के मामले में जेल में बंद कर दिया गया है. उसी भीमा कोरेगांव के मामले में रोना विल्सन, सुरेन्द्र गाडलिंग और अन्य लोगों को पहले ही जेल में डाल दिया गया है. असम के अखिल गोगोई का उदाहरण भी सामने है जिन्हें पिछले लंबे समय से एक से हटाकर दूसरे मामले में जेल में डाला जा रहा है जिसके चलते उन्हें कोरोना का संक्रमण हो गया है. गोरखपुर के डॉक्टर कफील के मामले की सुनवाई इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पिछले पांच महीने में 12 बार टाल दी जबकि अन्य हर तरह के मामले की सुनवाई लगातार हो रही है. जेएनयू के छात्र शरजील इमाम को, जिन्हें एनआरसी विरोध के दौरान गिरफ्तार किया गया था, उनके ऊपर राजद्रोह के मामले में चार्जशीट दाखिल कर दी गयी है. इतना ही नहीं, दिल्ली में एनआरसी का विरोध कर रही जेएनयू की दो छात्राओं देवांगना कालिता और नताशा नरवाल को भी गिरफ्तार कर लिया गया है जबकि इसी प्रदर्शन में शामिल गुलफिशा फातिमा भी लगभग पिछले साढ़े तीन महीने से अधिक समय से जेल में बंद है.
ये वे लोग हैं जो सरकार के अमानवीय और अलोकतांत्रिक कानूनों या फैसलों के खिलाफ सरकार की मुखालफत कर रहे हैं और वे जेल में डाल दिए गए हैं जबकि जेएनयू में शिक्षकों के साथ मारपीट करने वाले लोगों में से एक कोमल शर्मा और एनआरसी आंदोलनकारियों के खिलाफ एसीपी के सामने हिंसा का एलान करने वाले बीजेपी नेता कपिल मिश्रा खुलेआम घूम रहे हैं, पुलिस ने इन्हें पूछताछ के लिए भी नहीं बुलाया है.
कल यानि 27 जुलाई को द हिन्दू अखबार में लिखे अपने लेख में दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस ए. पी. शाह ने कहा है कि जिस ब्रिटेन से हमें यह अवमानना कानून विरासत में मिला है, इसको लेकर वहां कानूनी स्थिति स्पष्ट है. हाउस ऑफ लॉर्ड्स द्वारा अस्सी के दशक में चर्चित स्पाइकैचर निर्णय जब दिया गया तब ब्रिटिश टेबलॉयड डेली मिरर ने जजों की सिर के बल एक तस्वीर छापी थी जिसका कैप्शन था,“यू ओल्ड फूल्स”! इस अखबार के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही करने से इनकार करते हुए बेंच के एक जज लॉर्ड टेम्पलटन ने कहा था,“मैं इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि मैं बूढ़ा हूं, ये तो सच है। जहां तक मेरे मूर्ख होने का सवाल है, ये सामने वाले के नज़रिये पर निर्भर करता है. इसलिए अवमानना के अधिकार को यहां लाने की कोई जरूरत नहीं है.” यहां तक कि 2016 में भी ब्रेग्जि़ट सम्बंधी कोर्ट के एक फैसले के बाद जब डेली मेल ने तीनों जजों की तस्वीर “एनेमीज़ ऑफ दि पीपॅल” के कैप्शन से छापी, जिसे बहुत से लोगों ने वाकई अतिवादी माना, तब कोर्ट ने इस स्टोरी को काफी विवेकपूर्ण तरीके से नजरंदाज कर दिया और कोई अवमानना कार्यवाही नहीं की.
जस्टिस शाह ने लिखा है कि यह अफ़सोस की बात है कि जज ऐसा मानते हैं कि आलोचना को चुप कराने से न्यायपालिका के प्रति इज्जत में इजाफा होगा. इसके उलट, स्वतंत्र अभिव्यक्ति को नकली तरीके से रोकने से हालात और गंभीर होते जाएंगे. जैसा कि अमेरिका में 1941 के ब्रिजेज़ बनाम कैलिफोर्निया के मुकदमे में दिये गये ऐतिहासिक फैसले में टिप्पणी की गयी थी, “थोपी गयी चुप्पी बेंच के प्रति शायद असंतोष, संदेह और अवमानना को पैदा करे, इज्जत को नहीं जैसा कि वह चाहती है.”
प्रश्न यही है कि जब राजसत्ता के इशारे पर सारे निर्णय लिए जा रहे हैं तो लिखित कानून और उसे पालन करने वाले संस्थानों की क्या भूमिका रह जाएगी? हमारे संवैधानिक अधिकारों की गारंटी कौन करेगा जो हमें भारतीय कानून के तहत एक नागरिक के तौर पर मिले हुए हैं? उस नागरिक स्वतंत्रता का क्या होगा जिसकी दुहाई बार-बार दी जाती है?
हालात ऐसे बना दिए गए हैं जिसमें हर इंसान के मन में राज्य के प्रति डर पैदा हो गया है. हर एक नागरिक इस आशंका में जीता है कि कहीं राजसत्ता उसके खिलाफ कार्यवाही करके उसे कहीं जेल में न डाल दे. प्रशांत भूषण के साथ सुप्रीम कोर्ट में शुरू किया गया अवमानना का मामला बिल्कुल वही है. हम जानते हैं कि प्रशांत भूषण इस देश के मुट्ठी भर ‘कॉशिएंस कीपर’ में से एक हैं जो सरकार को लगातार आईना दिखाने का काम करते रहे हैं. कोर्ट ने उनके ऊपर अवमानना का मामला इसलिए शुरू किया है जिससे कि आम लोगों के मन में सत्ता प्रतिष्ठान को लेकर भय पैदा हो. लोगों में यह संदेश भी जाए कि अगर प्रशांत भूषण जैसे लोग ‘कोर्ट में. कोर्ट द्वारा, कोर्ट के लिए’ घसीटे जा सकते हैं तो छोटे-मोटे लोगों की क्या बिसात है!
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दो साल पहले हारवर्ड विश्वविद्यालय के पब्लिक पॉलिसी के दो प्रोफेसर स्टीवन लेविटिस्की और डैनियल जिबलैट ने मिलकर एक किताब लिखी थी- ‘हाउ डेमोक्रेसीज़ डाई’. इस किताब में लेखकद्वय बताते हैं कि अब जनता पर नियंत्रण के लिए टैंक चलाने या सेना द्वारा तख्तापटल करने की जरूरत नहीं है. अब जनता पर शासन करने के लिए बस बने बनाए कानून को कोर्ट के द्वारा संचालित किया जाता है. अब इसके लिए संसद या विधानसभा जाने की जरूरत नहीं पड़ती. पिछले छह वर्षों के अनुभव को देखिए तो हम पाते हैं कि संसद द्वारा बनाए गए अधिकांश कानूनों को कोर्ट ने या तो स्थगित कर दिया या उसे खत्म कर दिया.
इस संदर्भ में केवल अपवाद के रूप में एससी एसटी प्रिवेंशन ऑफ एट्रॉसिटीज़ एक्ट आता है जिस पर सुप्रीम कोर्ट के दिए फैसले को जन आंदोलन के दबाव में लोकसभा को 2018 में बदलना पड़ा था। इसके ठीक उलट एससी, एसटी और ओबीसी को मिले आरक्षण और उसके प्रावधानों को विभिन्न अदालतों के अलग-अलग फैसलों के मद्देनज़र धीरे-धीरे समाप्त करने की साजिश की जा रही है.
इसलिए हमारे देश में प्रशांत भूषण जैसे जो कुछ लोग हैं, जो कुछ गिने-चुने बुद्धिजीवी हैं, छात्र-छात्राएं हैं, जो सरकार की कारगुजारियों का विरोध कर रहे हैं, उनके ऊपर कानूनी दमन चलाया जा रहा है और अंत होते-होते इसे न्यायिक फैसला बताकर जीत के रूप में दर्ज करा दिया जाएगा.
वर्तमान राजसत्ता इसे समझ नहीं पा रही है कि डर की एक सीमा होती है. पिछले छह वर्षों में भारतीय हुकूमत ने अपनी जनता को इतना डरा दिया है कि वह डर से पीछे हटते-हटते दीवार से सट गयी है. अगर अब उन्हें और अधिक डराया गया तो जनता प्रतिरोध करना शुरू कर देगी क्योंकि उनके पीछे हटने की सीमा खत्म हो गई है. चारों तरफ हाहाकार है, बेरोजगारी युद्ध गति से बढ़ रही है, छद्म राष्ट्रवाद अपनी सीमा को पार कर गया है, तरह-तरह के दावों के बावजूद देश में अभी भी लगभग 40 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे जी रहे हैं. लोगों की आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो गई है. बहुसंख्य जनता किंकर्तव्यविमूढ़ है, ऐसे में एक छोटी सी चिंगारी भी प्रतिरोध का ऐसा रूप धारण कर सकती है जिसे सरकार चाहकर भी नहीं रोक पाएगी.
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