आर्टिकल 19: क्या आप जानते हैं कि भारत ने ‘लोकतंत्र’ के रूप में अपनी स्थिति लगभग खो दी है?

रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए लगातार कम होती जा रही गुंजाइश के कारण भारत लोकतंत्र का दर्जा खोने की कगार पर है। रिपोर्ट की प्रस्तावना में ही लिखा है कि भारत ने लगातार गिरावट का रास्ता जारी रखा है।

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बात बोलेगी: ‘टिकाऊ’ और ‘बिकाऊ’ बटमारों के दो लोकतांत्रिक शगल

बिहार पर बहुत बात हो रही है। लगभग एक तरह की ही बात हो रही है। बदलते मौसम की बात करना वैसे भी सबसे बड़ा शगल है हमारे समाज का। चुनाव के संदर्भ में यह शगल सत्‍ताधारी दल के बदलाव को लेकर है। इस बीच मध्य प्रदेश का उपचुनाव मेले के किसी कोने में लगी उस दुकान की तरह है जहां आम तौर पर सट्टेबाज बैठते हैं जिन पर ध्यान सबका रहता है पर वहां कोई जाता नहीं।

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छान घोंट के: अमन के लिए भूख-कुपोषण के खिलाफ जारी संघर्षों पर मुहर है इस बार का नोबेल

अभिजात्य समाज और उनके समर्थन में खड़ा शासन-प्रशासन भुखमरी और कुपोषण के खिलाफ लड़ने वाले लोगों के खिलाफ लगातार हमले करता है। इसी माहौल में क्राई के साथ मिलकर जनमित्र न्यास 50 गांवों में मुसहरों के बीच व्याप्त कुपोषण को समाप्त करने के लिए सतत काम कर रहा है। ऐसे काम के कुछ सुखद परिणाम भी मिलते हैं तो इसकी कीमत भी कभी-कभार चुकानी पड़ती है।

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राग दरबारी: 28 लाख बिहारी मजदूरों की पीड़ा को जाति के खांचे में डाल के आप खारिज कर देंगे?

अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकार एनडीए व महागठबंधन में मौजूद घटक दलों, किस मजबूत जाति का नेता किस गठबंधन के साथ है और किसका वोट परंपरागत रूप से किसे पड़ता रहा है, या फिर मोदी जी कितने चमत्कारिक रह गये हैं- के आधार पर बातों का विश्लेषण कर रहे हैं जबकि पिछले 15 वर्षों में बिहार कितना बसा और कितने बिहारी उजड़े- यह कहीं भी विश्लेषण में दिखायी नहीं पड़ता है।

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तन मन जन: ‘स्वास्थ्य की गारंटी नहीं तो वोट नहीं’- एक आंदोलन ऐसा भी चले!

भारत में जन स्वास्थ्य राजनीति का मुख्य एजेण्डा क्यों नहीं बन पाया? यह सवाल भी उतना ही पुराना है जितना कि देश में लोकतंत्र। आजादी के बाद से ही यदि पड़ताल करें तो लोगों के स्वास्थ्य और शिक्षा की मांग तो जबरदस्त रही लेकिन राजनीति ने लगभग हर बार इस मांग को खारिज किया। अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ तथा कई गैर सरकारी संगठनों ने अपने तरीके से जन स्वास्थ्य का सवाल उठाया, सरकारों ने महज नारों को स्वास्थ्य का माध्यम माना और संकल्प, दावे, घोषणाएं होती रहीं लेकिन जमीन पर हकीकत कुछ और है।

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देशान्तर: बोलीविया में वामपंथ की वापसी क्या सही मायनों में प्रगतिशील राजनीति की जीत है?

दुनिया के सामाजिक आन्दोलन अपनी ताकत बनाये रखने के लिए वामपंथी दलों के सिर्फ पिछलग्गू बन कर नहीं रह सकते। दक्षिणपंथी ताकतों ने न सिर्फ जनतांत्रिक अधिकारों और संगठनों को कमजोर किया है बल्कि एक जनतांत्रिक राजनीति की ज़मीन को बहुत हद तक सिकोड़ दिया है। वैसे में राजनैतिक विकल्पों के साथ साथ वैकल्पिक राजनीति की संभावनाओं को बचाने और बनाने की लड़ाई जारी रखनी होगी।

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गाहे-बगाहे: या रब अगर इन कर्दा गुनाहों की सज़ा है

लोग आकुल-व्याकुल हैं। हर जगह असुरक्षित और अधिकतम गरीब हैं। अपने खेतों और घरों पर आए संकटों से लड़ रहे हैं। अपने छूट गए रोजगारों को वापस पाने के लिए प्रयास कर रहे हैं। अपनी दुकानों और रिक्शों-ठेलों को फिर से दुरुस्त कर रहे हैं और स्टेट पुलिस को अपने षडयंत्रों को अंजाम देने के लिए उतार चुका है। न्यायाधीश झूठे फैसले दे रहे हैं। वे स्टेट के दबाव में किसी को भी जेल में डालने और बेदखल करने के फैसले लिख रहे हैं। क्या इन सबका उस लड़के की मौत से कोई भी ताल्लुक नहीं?

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पंचतत्व: सोन से रूठी माँ रेवा कहीं हमसे भी न रूठ जाए

लगातार होते रेत खनन, नदियों के पास ताबड़तोड़ कथित विकास परियोजनाओं, बांध बनाए जाने और इसके जलागम क्षेत्र में जंगल का अबाध कटाई ने नर्मदा को बहुत बीमार बना दिया है. पिछली गर्मियों में नर्मदा का जलस्तर तो इतना गिर गया था कि कोई पांव-पैदल भी नदी को पार कर सकता था. इस नदी को नदी-जोड़ परियोजना ने भी काफी नुक्सान पहुंचाया है

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दक्षिणावर्त: सेकुलर खोल, बाइनरी बोल और अश्लीलताओं के बीच

हरेक घटना के पक्ष या विपक्ष में बैटिंग तो हो रही है, लेकिन किनारे बैठकर थोड़ी धूल बैठ जाने का इंतजार नहीं किया जा रहा है। राजनेताओं का तो समझ में आता है, लेकिन हम जैसे जो आम लोग हैं, उन्हें पंजाब पर राहुल गांधी को और हाथरस पर योगी आदित्यनाथ को घेरने में क्यों संकोच हो रहा है, यह समझ के बाहर है।

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आर्टिकल 19: मीडिया निगल गया वरना दिल्ली के दंगे पर कोर्ट की टिप्पणी आज राष्ट्रीय शर्म होती

अदालत ने कहा कि “इतने कम समय में इतने बड़े पैमाने पर हिंसा फैलाना पूर्व-नियोजित साजिश के बिना संभव नहीं है।” कौन थे वो साजिशकर्ता और कौन थे उनके आका? यह बताने में दिल्ली पुलिस का दिल बैठ जाता है। वह इधर-उधर की बात करने लगती है। इसकी वजह हम भी जानते हैं और आप भी।

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