दक्षिणावर्त: भाजपा वो हाथी है जिसे अपनी पूंछ नहीं दिख रही… और मोदी ये बात जानते हैं!

मोदी को अपना रास्ता पता है और समय से वह बखूबी वैसा करेंगे भी, हालांकि हमारे यहां न तो मुफ्त और गजब की सलाह देनेवाले ‘स्वामियों’ की कमी है, न ही ‘कौआ कान ले गया’ सुनकर कौए के पीछे भागनेवाले ‘गुप्ताओं’ की।

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बात बोलेगी: जीने के तमाम सुभीते मरने की आस में मर गए…

भारत का संविधान मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार देता है उसमें भी मोक्ष का अधिकार देने की हैसियत नहीं है या उसने इसके बारे में कुछ नहीं सोचा किया। क्या प्रेरणादायी नरेन्द्र मोदी देश के संविधान में छूट गये अधिकारों का सृजन अपने नागरिकों के लिए कर रहे हैं?

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तन मन जन: जन-स्वास्थ्य की कब्र पर खड़ी कॉरपोरेट स्वास्थ्य व्यवस्था और कोविड

मुनाफे के लालच में देश में गोबरछत्ते की तरह उगे पांच सितारा अस्पतालों की हकीकत को देश ने इस बार देख लिया। वैश्विक आपदा की इस विषम परिस्थिति में भी आखिरकार सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक एवं चिकित्साकर्मियों ने ही अपनी जान जोखिम में डालकर पीड़ितों की सेवा की और हजारों जानें बचायीं।

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दक्षिणावर्त: कोविडकाल में एक विश्रृंखल डायरी के बेतरतीब पन्ने

वे दरअसल कठोरता की ऐसी कच्ची बर्फ पर खड़े हैं, जिसके नीचे अथाह समंदर है- दुःख और अवसाद का। उस कच्ची बर्फ को तड़कने से बचाने के लिए ही दोनों एक दूसरे के साथ खूब स्वांग करते हैं- वैराग्य और ‘केयर अ डैम’ वाले एटीट्यूड का। एक खेल है दोनों के बीच, जो चल रहा है।

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बात बोलेगी: दिल्ली ‘ज़फ़र’ के हाथ से पल में निकल गई…

दिल्ली में बदलाव की बयार हमेशा हलचल में रहती है। कभी बहुत धीरे तो कभी बहुत तेज। और कई बार इतनी तेज कि जब तक बातें समझ में आयें, यहां बदलाव हो जाता है। ‘’परिवर्तन संसार का नियम है’’ कहने वाले का ज़रूर कोई सीधा संबंध दिल्ली से रहा होगा।

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संक्रमण काल: महामारी के दौर में डॉक्टरों की भूमिका, सीमाएं और प्रोटोकॉल के कुछ सवाल

कोविड जानलेवा नहीं है। अधिकांश मामलों में हमारा शरीर उससे लड़ सकता है और परास्त कर सकता है। मानवजनित अफरातफरी, जिसके सुनियोजित होने की पूरी आशंका है, ने उसे जानलेवा बना दिया है।

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दक्षिणावर्त: मौत का समाचार, तथ्यों का अंतिम संस्कार और श्मशान में पत्रकार

तकनीक की अबाध और सुगम पहुंच ने घर-घर में इन 24 घंटे चलने वाली ‘थियेट्रिक्स’ की दुकानों को तो पहुंचा दिया, लेकिन पत्रकारिता के सबसे जरूरी आयाम ‘ख़बर’ की ही भ्रूण-हत्या कर दी गयी। अब कहीं भी कुछ भी बचा है, तो वो है प्रोपैगैंडा, फेक न्यूज़ और कम से कम ‘व्यूज़’। समाचार कहीं नहीं हैं, विचार के नाम पर कुछ भी गलीज़ परोसा जा रहा है।

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संक्रमण काल: बदलती हुई दुनिया और उभरते हुए सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर जिरह

हिंदी में अपने तरह के इस अनूठे कॉलम में यह बात देखने की रहेगी कि भविष्य की दुनिया किन तकनीकी और आर्थिक प्रक्रियाओं के बीच निर्मित हो रही है और किस प्रकार का एक नया सामाजिक, राजनीतिक (और साहित्यिक-सांस्कृतिक भी) परिदृश्य इस बीच आकार ले रहा है।

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बात बोलेगी: भंवर में फंसी नाव के सवार

भंवर में फंसी एक नाव में हम सब सवार हैं। खेवैया बंगाल में चुनाव प्रचार कर रहा है। नाव डगमगाती है तो हमें ही संभालना है। डूबती है तो हमें ही डूबना है। और बच निकल आती है तो भी हमें ही बचना है। क्यों न इस बार कुछ नया होकर लौटें?

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तन मन जन: कोरोना की दूसरी लहर का कहर और आगे का रास्ता

यदि वैक्सीन लगाने की रफ्तार नहीं बढ़ाई गई तो 70 फीसद आबादी को वैक्सीन लगाने में दो साल से भी ज्यादा का वक्त लग सकता है। एक अनुमान के अनुसार भारत में अब तक लगभग 30 करोड़ लोग कोरोनावायरस की चपेट में आ चुके हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अभी 100 करोड़ लोग कोरोना से संक्रमित नहीं हुए हैं और उन्हें बचाना सबसे बड़ी चुनौती है।

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