दक्षिणावर्त: हिंदी का एक लेखक क्या, किसके लिए और क्यों लिखे? साल भर के कुछ निजी सबक

लेखन एक तपस्या है, जिसमें आपका हृदय और मस्तिष्क समिधा बनते हैं। यह कोई हंसी-ठट्ठा नहीं है। न ही, यह अंशकालिक काम है। अगर आप लेखन को अपना सर्वस्व समर्पित नहीं कर चुके हैं, तो फिर वह लेखन भी आपको पूर्ण-काम नहीं बनाएगा। बहसें भले ही आप कितनी करते रहें।

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तिर्यक आसन: मेरी दो महत्वाकांक्षाएँ चोरी की और बाकी सब साइलेंट कॉपी!

हजार-दस हजार करोड़ की चोरी को ‘करप्शन’ कहा जाता है। दस-बीस रूपये की चोरी को चोरी कहा जाता है। बड़ी चोरी करने वाला ‘करप्ट’ होता है। छोटी चोरी करने वाला चोर। करप्ट एलिट वर्ग से है, तो हजार-दस हजार करोड़ की चोरी करने के बाद भी उसका वर्ग नहीं बदलता। वो कैपिटलिस्ट ही रहता है। दस-बीस रूपए की चोरी करने वाले का वर्ग बदल जाता है।

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बात बोलेगी: परेशानियों को पहचानने की सलाहियत से महरूम सरकार पर मुस्कुराता बुद्ध का चाँद

आज किसान पूरी दुनिया में भारत के राजदूत बन गये हैं। दुनिया सरकार की कम, किसानों की बातें ज़्यादा सुन रही हैं। सरकार इस बात से हलकान है। वह अपनी भड़ास उन माध्यमों पर निकाल रही है जिनके मार्फत आज के बुद्ध अपनी बात दुनिया तक पहुँचा रहे हैं। बुद्ध अगर आज हुए होते तो उन्हें दीक्षाभूमि में ही महदूद किये जाने की कोशिशें की जा रही होतीं। ठीक वैसे ही जैसे किसानों को सिंघू, गाजीपुर, टिकरी में घेर देने की कोशिशें की जा चुकी हैं।

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दक्षिणावर्त: शायद तुम्हारी उपस्थिति है वाहियात तुम्हारी अनुपस्थिति से…

होश का पैमाना किसे बनाओगे, कैसे बनाओगे और इन सबसे बढ़कर क्यों बनाओगे? क्या तुम जॉन नैश के उस होश को पैमाना बनाओगे, जिसने नोबल प्राइज जीत लेने लायक थियरी दी, लेकिन वह तो उस समय पागलपन के दौरे में था? क्या तुम गांधी के उस होश को पैमाना बनाओगे, जब देश जश्न-ए-आजादी मना रहा था और वह बूढ़ा नोआखाली घूम रहा था? तुम्हारा होश, मेरे होश का निकष क्यों हो, या वाइसे-वर्सा ही। मैं एक मनुष्य हूं, तुम एक मनुष्य तो हम-तुम एक-दूसरे को अपने हाल पर क्यों न छोड़ दें?

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तिर्यक आसन: योगास्कर गोज़ टु मिस्टर प्राइम मिनिस्टर!

विदेशियों से क्या उम्मीद की जाय, जब देश वाले ही सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का कोई अवार्ड नहीं दे रहे। ‘डेली सोप्स ऑपेरा’ वालों को तो दे ही देना चाहिए। उन्हीं के सोप्स के कारण कठपुतली का रोना खाबसूरत लगता है।

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बात बोलेगी: खुलेगा किस तरह मज़मूं मेरे मक्तूब का या रब…

जिसके कहे पर देश चलने लगा था या उतना तो चलने ही लगा था जितनों की उँगलियों में देश की बागडोर सौंपने का माद्दा था, आज वे उँगलियां उस नीली स्याही को कोसती नज़र आ रही हैं जिसे वोट करते वक्‍त उन्‍होंने लगवाया था। ऐसी हर कम होती उंगली का एहसास इस विराट सत्ता को हो चुका है।

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तन मन जन: जनस्वास्थ्य के अधूरे ढांचे और गाँव गणराज्य की उपेक्षित संकल्पना के सबक

गांव गणराज्य की कल्पना भारत के पूर्व आइएस एवं सिद्धान्तकार डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा ने स्पष्ट रूप से ढाई दशक पहले ही दी थी जिसे सरकारों ने कूड़े में डाल दिया। यदि जनस्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा का प्रबन्धन और कार्यान्वयन गांव या प्रखण्ड के स्तर पर हो तो देश में कभी भी ऐसी मारामारी और हाहाकार की स्थिति उत्पन्न नहीं होगी।

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दक्षिणावर्त: क़त्ल पर जिन को एतराज़ न था, दफ़्न होने को क्यूं नहीं तैयार…

दरक चुके अपने समाज की आलोचना हम कब करेंगे? अपने सामाजिक-सांस्‍कृतिक दायित्व का बोध हमारे भीतर कब होगा और हम संविधान में वर्णित अधिकारों को रटने के साथ सामाजिक ‘कर्त्तव्यों’ को भी कब जानेंगे?

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तिर्यक आसन: बुद्धि की शव-साधना में विश्वगुरु

निजीकरण की नींव तैयार करने में गारा-मिट्टी ढोने वाले कोरोना की दूसरी लहर में ईवेंट जी से नाराज हैं। जब वे कोरोना के इलाज के लिए प्राइवेट हॉस्पिटल में जाते हैं, तो बिल देखकर सोचने लगते हैं- क्या ये वही बुलंद इमारत है, जिसे तैयार करने के लिए हमने गारा-मिट्टी ढोयी थी?

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बात बोलेगी: बीतने से पहले मनुष्यता की तमाम गरिमा से रीतते हुए हम…

हम पिछली सदी से ज़्यादा नाकारा साबित हुए। हमने संविधान को अंगीकार किया और अपनी आवाजाही और बोलने की आज़ादी पर बलात् तालाबन्दी को भी अंगीकार किया। हम एक अभिशप्त शै में तब्दील हो गये। हम न मनुष्य रहे, न नागरिक हो सके। हम कुछ और बन गये, जिसके बारे में अगली सदी में चर्चा होगी।

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