- 24 मार्च: करीम ताबू, विरोधी पार्टी के नेता, सितम्बर 2009 से जेल में हैं; एक साल की सजा और जुर्माना; नया आरोप: फ़ेसबुक पोस्ट द्वारा सुरक्षा बलों की निंदा
- 27 मार्च: खालेद दरेनी, संस्थापक, क़स्बा ट्रिब्यून न्यूज़ साइट, रिपोर्टर TV5Monde और रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की गिरफ़्तारी; आरोप: शांतिपूर्ण प्रदर्शन को उकसाना और राष्ट्रीय अखंडता को नुकसान पहुंचाना
- 6 अप्रैल: अब्देलुहाब फरसाओई, नेता युवा संगठन, एक साल की क़ैद और जुर्माना; आरोप: सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से सरकार की निंदा और हिराक आंदोलन में भागीदारी
- 9 अप्रैल: इब्राहिम दाऊदजी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, 6 महीने की सजा और जुर्माना; आरोप: सोशल मीडिया पर देश में चल रहे प्रदर्शनों का विडियो पोस्ट करना और नवम्बर 2019 से जनवरी 2020 उनकी हुई मुक़दमा पूर्व गिरफ़्तारी की शर्तों का विरोध
ये कुछ उदाहरण हैं अल्जीरिया से। ऐम्नेस्टी इंटर्नैशनल की एक प्रेस वार्ता कहती है कि 25 फ़रवरी से लेकर 13 अप्रैल के बीच में तक़रीबन 32 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकार, वकील आदि की गिरफ़्तारी और सज़ा हुई है। इन सभी के ऊपर आरोप हैं: भीड़ को उकसाना, सरकार की निंदा, देश की अखंडता और सम्प्रभुता पर चोट पहुँचाना।
इसके साथ ही अप्रैल के पहले तीन सप्ताह में पांच न्यूज़ मीडिया संस्थानों, कुछ ब्लॉग, वेबसाइट आदि को भी बंद किया गया है। दुनिया के अन्य देशों की तरह अल्जीरिया में भी 20 मार्च से कोरोना महामारी के मद्देनज़र सरकार ने लॉकडाउन की घोषणा कर दी और जैसा कि स्पष्ट है, इस बंदी का पूरा इस्तेमाल सरकार ने पिछले एक साल से चल रहे सरकार विरोधी आंदोलन ‘हिराक’ को कुचलने के लिया किया। प्रमुख नेताओं की गिरफ़्तारी हुई है और देश में आपातकाल की स्थिति है। इस लॉकडाउन के कारण देश में पहले से जारी आर्थिक मंदी और तेज़ हुई है जो अब बढ़कर अराजक होती जा रही है। अभी 15 जून को दक्षिण अल्जीरिया के तमानरस्त राज्य में पानी की क़िल्लत को लेकर जनता द्वारा किये गए प्रदर्शन पर पुलिस गोलीबारी में तीन लोगों की मौत हुई और कई घायल हुए।
अल्जीरिया की पूरी अर्थव्यवस्था पिछले कई साल से चरमरायी हुई है, जो कि तेल और प्राकृतिक गैस पर आधारित है और उनकी क़ीमतों में भारी गिरावट आयी है। सार्वजनिक सेवाएं, विशेष रूप से अस्पताल, शिक्षा आदि प्रभावित हुए हैं। युवा बेरोजगारी की दर 26% तक पहुंच गयी है और यूरोप के लिए पलायन करने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है।
19 जून को ‘हिराक’ (अरबी भाषा में आंदोलन) प्रदर्शन जो सरकार के ख़िलाफ़ 22 फ़रवरी 2019 से लगातार चल रहे हैं और अभी लॉकडाउन में बंद थे, दुबारा शुरू हुए हैं। महामारी का ख़तरा टला नहीं है लेकिन सेना नियंत्रित राष्ट्रपति अबदुलमाजिद तेबों की सरकार के ख़िलाफ़ लाखों की संख्या में लोग सड़क पर उतरे हुए हैं। लोगों का कहना है कि पानी अब सिर के ऊपर से निकल चुका है और इस भ्रष्ट सरकार को इस्तीफ़ा देना होगा। लोगों का ग़ुस्सा इस बात से भी ज़्यादा है कि 22 फरवरी 2019 को जब हिराक प्रदर्शन जब शुरू हुए थे तो कुछ समय बाद ही 2 अप्रैल 2019 को मौजूदा राष्ट्रपति अबदलअज़ीज़ बूतफलिका ने इस्तीफ़ा दिया था और नए चुनाव की घोषणा की थी। दो बार चुनाव स्थगित होने के बाद आख़िरकार नवम्बर 2019 में चुनाव भी हुए। इस चुनाव का सभी विपक्षी दलों ने बहिष्कार किया और बदले हुए चुनावी क़ानून और नए चुनाव आयोग ने जो पांच उम्मीदवार मान्य किए वे सभी पुरानी सरकार के ही मंत्री या अधिकारी थे। पूर्व आवास मंत्री और नए राष्ट्रपति अबदुलमाजिद तेबों, अब तक के सबसे कम मत प्रतिशत से चुने हुए नेता हैं। मतलब ढाक के तीन पात! और इसीलिए हिराक प्रदर्शन दुबारा शुरू हुए हैं।
हिराक प्रदर्शन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
आख़िर अल्जीरिया की जनता सड़क पर क्यों है? मामला फ़रवरी 22 फरवरी 2019 से शुरू होता है जब वहां के 82 वर्षीय बीमार और अपंग राष्ट्रपति अबदलअज़ीज़ बूतफलिका, जो 1999 से राष्ट्रपति थे, ने घोषणा की कि वह पांचवीं बार फिर से चुनाव लड़ेंगे। उम्मीदवारी की घोषणा अल्जीरिया के समकालीन इतिहास में जैसे एक विस्फोट था। जनता का धैर्य टूटा और लोग सड़क पर उतर आए। लगातार हर सप्ताह राजधानी अलजियर्स और अन्य शहरों के मध्य में हरेक मंगलवार (छात्रों का) और शुक्रवार (आम जनता का) को प्रदर्शन शुरू हुए। तमाम सामाजिक विरोधों के बावजूद महिलाओं ने भी इसमें बढ़-चढ़ कर अपनी भागीदारी निभायी।
थोड़ा और पीछे जाएं तो और बातें समझ में आएंगी। दरअसल, अल्जीरिया में सेना का हस्तक्षेप हमेशा से रहा है। लोकतांत्रिक गणराज्य अल्जीरिया पांच करोड़ आबादी वाला मूलतः बर्बर और अरबी मुस्लिम बहुल उत्तर अफ़्रीका का सबसे बड़ा और राजनैतिक रूप से मगरैब यूनियन और अफ़्रीका यूनियन में एक महत्वपूर्ण भूमिका वाला देश है। बर्बर समुदाय का दबदबा इस बात भी साबित होता है कि 15 से 17 शताब्दी के बीच उन्होंने पूर्वी और दक्षिणी यूरोपी देशों के लगभग 15 लाख लोगों को ग़ुलाम बनाया और भूमध्य सागर में तंजीयर्स व्यापार का महवपूर्ण केंद्र रहा। 1830 में अल्जीरिया, मोरक्को, ट्यूनीशिया और आसपास के इलाक़ों में फ़्रान्स का क़ब्ज़ा हुआ। अल्जीरिया ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद फ़्रान्स की कमजोर हालत को देखते हुए 1954-62 तक चले हिंसक गुरिल्ला आंदोलन के बाद आज़ादी प्राप्त की। इस आंदोलन की हिंसा एक मिसाल की बात है जिसका ऐतिहासिक वर्णन फ़्रांज़ फँनों की बहुचर्चित किताब Wretched of the Earth में है।
1962 से 1965 के बाद अबदल बेनबेल्ला राष्ट्रपति बने लेकिन उनके तख्तापलट के बाद 1965 से देश में सेना का शासन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमेशा रहा है। तेल आधारित अर्थव्यवस्था से देश का विकास हुआ और जब-जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल की क़ीमतें घटी हैं, देश में आर्थिक मंदी हुई है और राजनैतिक उभार भी दिखा। अक्टूबर 1988 में उसी मंदी के कारण हुए आंदोलन के चलते राजनीतिक बदलाव हुआ, एकपक्षीय शासन का अंत हुआ और बहुलतावादी चुनाव हुए जिसमें इस्लामिक साल्वेशन फ्रंट (FIS) सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर आया। पुराने राजनैतिक वर्ग और सैन्य शक्तियों ने देश को अतिवादी इस्लामी ताक़तों से बचाने के नाम पर तख्तापलट किया और 90 के दशक में अल्जीरिया में भयानक गृह युद्ध की स्थिति रही। अंततः 1999 में राष्ट्रपति अबदलअज़ीज़ बूतफलिका के नेतृत्व में सुलह और शांति की स्थापना हुई।
कई अल्जीरियाई अब भी इन घटनाओं और हिंसा के अपने व्यक्तिगत अनुभव से प्रभावित हैं और यही वजह है कि 2010-12 के बीच पूरे अरब जगत में जनता के विद्रोह उठे और ट्यूनीशिया, मिस्र, यमन, मोरक्को आदि देशों में सत्ता परिवर्तन भी हुए, तब भी अल्जीरिया में शांति रही।
राष्ट्रपति बूतफलिका के शुरुआती दस साल अगर छोड़ दें, जब उन्होंने देश में शांति स्थापित की, आर्थिक प्रगति की और कई काम किए। उसके बाद 2009 से देश में काफ़ी असंतोष रहा है। उसके पीछे एक ख़ास सामंतवादी और सैन्य वर्ग का दबदबा, भ्रष्टाचार, घोर ग़ैर-बराबरी, बर्बर और अरबी समुदायों में लगातार मतभेद, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं और फ़्रान्स का राजनैतिक और आर्थिक मामलों में बढ़ता हस्तक्षेप, आदि भी है। इसके साथ ही ख़ासकर ट्रेड यूनियन, नागरिक सामाजिक संस्थाओं, पत्रकारों, जन आंदोलनों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं आदि के ऊपर सुरक्षा और ख़ुफ़िया विभाग की बढ़ती ज़्यादती ने भी असंतोष को बढ़ाने का काम किया।
बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी और प्राकृतिक संसाधनों की लूट
2014 के बाद से राष्ट्रपति बूतफलिका के कार्यकाल में कई प्रदर्शन हुए हैं। सुधार के प्रयासों की विफलता के अलावा, प्रचंड मुद्रास्फीति की दर जिससे खाद्य कीमतों में भारी महंगाई और बढ़ती बेरोज़गारी का आप इस बात से अन्दाज़ लगा सकते हैं कि अल्जीरिया के लोग अपनी आय का लगभग 40 प्रतिशत भोजन और पेय पर खर्च करते हैं, जो अक्सर आयात किया जाता है। इनका बोझ सामान्य अल्जीरियाई लोगों द्वारा सबसे अधिक महसूस किया गया है और उसमें भी दक्षिण अल्जीरिया जो रेगिस्तानी इलाक़ा और अत्यंत पिछड़ा इलाका है, काफ़ी ज़्यादा प्रभावित हुआ है।
तेल की घटती क़ीमतों के मद्देनज़र अल्जीरिया सरकार ने प्राकृतिक गैस के उत्पाद बढ़ाने के लिए फ्रैकिंग के माध्यम से दिसंबर 2014 के अंत में पहला परीक्षण किया। गैस उत्पादन को रोकने के लिए बड़े पैमाने पर प्रतिरोध किया गया है- वास्तव में, इतने बड़े पैमाने पर कि नेशनल लिबरेशन फ्रंट (FLN) के नेतृत्व ने अरब स्प्रिंग के उभार की आशंका जतायी गयी। आंदोलन को कुचलने के लिए ख़ुफ़िया और सुरक्षा बलों ने दमन की नीति अपनायी और साथ ही क़ानूनों में बदलाव कर राइट टू एसोसिएशन, जो जनतंत्र में एक मूलभूत अधिकार है, उसको नियंत्रित किया। हो रहे प्रदर्शनों को विदेशी शक्तियों द्वारा प्रायोजित बताया गया, ख़ासकर फ़्रान्स के द्वारा। हक़ीक़त यह है कि इन परियोजनाओं से सबसे अधिक अगर फ़ायदा होगा तो फ़्रान्स की दो बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों टोटल और स्वेज को। इन नए बदले हुए क़ानूनों के कारण अल्जीरियन एनजीओ बाहर के प्रतिष्ठानों से किसी भी तरह की आर्थिक सहायता नहीं प्राप्त कर सकते। नतीजतन बाहर के सहमना संगठनों और संस्थाओं के अल्जीरिया में आने पर भी पाबंदी है।
जब इन दक्षिण के आंदोलनों का समर्थन उत्तर के बड़े शहरों अलजीयर्स, ओराओं आदि में भी होने लगा और लोगों ने अपने मुद्दों पर भी विरोध शुरू किए तो दमन और बढ़ा। हड़ताल, सभा और प्रदर्शन के अधिकारों का उल्लंघन आम बात हो गयी है। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के साथ-साथ राष्ट्रीय मीडिया को भी कसकर नियंत्रित किया जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय पत्रकारों को या तो वीजा नहीं दिया जा रहा या फिर अपनी अल्जीरिया वापसी सुनिश्चित करने के मद्देनज़र वे अपने लेखों में सेल्फ सेंसरशिप करते नज़र आते हैं।
महिलाओं की भूमिका
ज़्यादातर अरब देशों की तरह अल्जीरिया भी एक पुरुष प्रधान और मजबूत पितृसत्तात्मक प्रभुत्व वाला देश है। इस कारण महिलाओं के अधिकारों का मुद्दा, और कुछ हद तक पितृसत्ता, एक प्रमुख मुद्दा है। इस पितृसत्ता के कई पहलू हैं: राजनीतिक और सामाजिक प्रतिनिधित्व की कमी, शिक्षा और काम तक सीमित पहुंच, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, स्वतंत्रता पर प्रतिबंध, विशेष रूप से यौन अधिकारों के क्षेत्र में, सार्वजनिक स्थान तक बहुत सीमित पहुंच, आदि। अल्जीरिया में 2005 में परिवार संहिता में सुधार और 2012 में और फिर 2015 में नए कानूनों को अपनाने से कुछ कानूनी समानता आई। फिर भी, अल्जीरिया में महिलाओं के अधिकारों का कानूनी ढांचा, मानसिकता और इन समान अधिकारों के प्रति दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आए हैं।
इन सब के बावजूद एक साल से अधिक समय से चल रहे हिराक प्रदर्शनों में अल्जीरियाई नारीवादी आंदोलन ने अपनी एक ख़ास पहचान बनायी है। “हम मौजूद हैं, हम हिराक की तस्वीर में हैं” के नारे के साथ हर शुक्रवार हो रहे प्रदर्शनों में उन्होंने फुटपाथ के ऊपर अपना एक जनाना कोना बनाया है। समाजशास्त्री फातमा ओशेडिक कहती हैं कि अल्जीरिया में महिलाएं हर आंदोलन और हर युद्ध का हिस्सा रही हैं और यह जारी है लेकिन आज जो हो रहा है वह थोड़ा अलग है क्योंकि वह अपने हक़ों के लिए खड़ी हैं, वे वहां खुद के लिए हैं, और यह बड़ा परिवर्तन है। यह ओराओं और कॉन्स्टेंटाइन शहर से शुरू हुआ और अब शुक्रवार झुंड, जनाना कोना देश के हरेक शहर के प्रदर्शनों का हिस्सा हो गया है। सबने मिलकर पिछले साल 21 जून को तिग्मर्ट (काबीलिया) घोषणापत्र जारी किया– कुछ पंद्रह समूहों द्वारा हस्ताक्षरित- राजनीतिक, नागरिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और कानूनी स्तर पर पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता की मांग करते हुए।
कई प्रमुख नेता, महिलाएँ और युवा निर्वासित होकर विदेश में हैं और वहीं से संघर्ष को समर्थन दे रहे हैं। एक परिचित चेहरा है युवा महिला पॉप सिंगर राजा मेजियाने का, जो क़ानून की पढ़ाई करने के बाद लेखिका और गायिका बनी और BBC ने 2019 में दुनिया के 100 प्रभावी महिलाओं में उन्हें गिना। हिराक प्रदर्शनों के ऊपर उनके एक गीत को पांच करोड़ से ज़्यादा लोगों ने सुना है।
आगे क्या?
आंदोलन जब लम्बे समय से चल रहे हों और अगर मानें तो अल्जीरिया की जनता की दूसरी आज़ादी की लड़ाई हो, तो कई जटिलताएँ आती हैं। कई समूहों के द्वारा शिरकत, युवाओं की बढ़-चढ़ कर भागीदारी, सोशल मीडिया का इस्तेमाल और इस कारण से फ़्रान्स और अन्य देशों में बसे लगभग 50 लाख अल्जीरियन प्रवासियों का समर्थन, आंदोलन के उद्देश्यों को और जटिल बना देता है। इन जटिलताओं के कई पहलू हैं जैसे, सही मायने में राजनैतिक गणतंत्र लागू करने के लिए मौजूदा संविधान में बदलाव या फिर ट्यूनीशियाई मॉडल पर आधारित एक नयी संविधान सभा स्थापित करना। हिराक आंदोलन पुलिसिया हिंसा के मद्देनज़र शांतिपूर्ण मार्च आधारित हो या फिर हिंसक बने? मांगों में किसकी प्राथमिकता हो? महिलाओं के अधिकारों की रक्षा, विशेष रूप से “नारीवादी वर्ग” के आयोजकों द्वारा प्रस्तावित समाज या फिर एक नए शासन की स्थापना को दी गई प्राथमिकता? बर्बर और अरबी मुस्लिम समुदायों में चल रहे वर्चस्व की लड़ाई भी एक सवाल है।
इन सबसे बढ़कर हालाँकि जो विशेष बात हुई है वह है एक नए क्रांतिकारी आंदोलन का जन्म जिसने कई भेद ख़त्म कर के राष्ट्रीय एकता को मजबूत बनाया है, विशेष रूप से उन लोगों के बीच जो कि फैलते इस्लामिक धार्मिक युद्ध की चपेट में आ रहे थे। सरकार के भीषण दमन के बीच अंतर-क्षेत्रीय एकजुटता भी बढ़ी है, जैसे जब काइल के लोग दमित थे, तो अन्य क्षेत्रों ने उनके समर्थन का दावा किया। जब ओराओं दमन की लहर की चपेट में आया, तो कैबल्स ने घोषणा की कि “हम सभी ओरानी हैं”। प्रदर्शनों में मजदूर वर्ग से लेकर अधिक संपन्न बौद्धिक वर्ग, महिलाएं – जो आंदोलन में बहुत ज्यादा मौजूद रही हैं, और पुरुषों व विभिन्न पीढ़ियों तक बहुत विविध सामाजिक वर्ग एक साथ आए हैं।
सबसे अहम बात रही है युवा लोगों की बढ़-चढ़ कर भागीदारी, जिसे आजतक राजनैतिक दलों और सत्ता ने हमेशा भीड़ के तौर पर अपने समर्थन में इस्तेमाल किया, उन्होंने आगे आकर हर मंगलवार को साप्ताहिक छात्र प्रदर्शन शुरू किए जिसने शुक्रवार के साप्ताहिक प्रदर्शनों के लिए टोन सेट किया। हिराक ने अल्जीरियाई नागरिकों की जागरूकता और राजनीतिक समझ का भी प्रदर्शन किया है, जो राजनेताओं और सेना दोनों द्वारा संचालित संपूर्ण आर्थिक और राजनीतिक प्रणाली को उखाड़ फेंकने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं और किसी भी झूठे समझौते के ख़िलाफ़ है, जैसा 2019 के मध्य में हुआ था।
फ़िलहाल नए राष्ट्रपति अबदुलमाजिद तेबों दबाव में हैं और कुछ महीनों के अंतराल के बाद शुरू हुए हिराक प्रदर्शन घोर दमन और हिंसा के बावजूद दुबारा अपने ज़ोर पर है।
मधुरेश कुमार जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (NAPM) के राष्ट्रीय समन्वयक हैं और मैसेचूसेट्स-ऐमर्स्ट विश्वविद्यालय के प्रतिरोध अध्ययन केंद्र में फ़ेलो हैं।
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