अभी-अभी सोशल मीडिया पर स्क्रॉल करने का मौका मिला। पता चला कि मशहूर क्रिकेट खिलाड़ी सुनील गावस्कर अव्वल दर्जे के स्त्रीद्रोही, लफंगे, मर्दवादी किस्म के इंसान हैं और हिंदी फिल्मों की नामचीन अदाकारा अनुष्का कोहली स्त्री-अधिकारों की महान ध्वजधारिणी, अद्भुत समाज-सुधारिका और देश की अजीमोश्शान मल्लिका हैं। मैं हालांकि शायद इस सूचना तक पहुंचने में थोड़ी देर कर चुका, लेकिन फिर भी, ‘मोर पावर टू यू…अनुष्का।’
यह इसलिए लिखना पड़ा कि हम लोगों ने शब्दों के मायने ही ऐसे कर दिये हैं कि अगर अभी अनुष्का को मोर पावर न कहा गया, तो फिर फेमिनाजियों के आपको घेर लेने का खतरा है। आपके नाम का मर्सिया पढ़ दिया जाएगा और यह फतवा जारी हो जाएगा कि आप तो मैसोचिस्ट हो, एमसीपी (यानी ब्लडी मेल शॉवनिस्ट पिग) हैं। शब्दों की इयत्ता और उनके अर्थ ही हमने साफ जो कर दिये हैं।
पूरे हंगामे के बाद आप गावस्कर का वीडियो देखिए। उन्होंने कहा, ‘लॉकडाउन के दौरान लगता है, विराट ने केवल अनुष्का की बॉलिंग पर ही प्रैक्टिस की है…।‘ इसके साथ ही एक वीडियो भी है, जो तीन महीने पहले नमूदार हुआ है। उसमें अपने घर के आंगन या बरामदे में अनुष्का-विराट (या विरुष्का लिखूं) क्रिकेट खेलते दिखते हैं। इसके साथ मिलाकर आप फेमिनाजी का गावस्कर पर हमला झेलिए, उसके साथ स्वयंभू फेमिनिस्ट चिल बेबी अनुष्का का गावस्कर को लिखा हुआ संदेश पढ़िए।
इस वक्त अगर आप कुछ देर के लिए ऊपर के तीन अनुच्छेद भूल जाएं, तो जरा कंगना और अनुष्का को याद कर लीजिए। इनके बरक्स अर्णब और रवीश को देख लीजिए, फिर पूरी फिल्म चलाइए और हंसते-हंसते लोट जाइए। इरिटेटिंग रवीश भी उतने ही हैं, जितने बड़े अर्णब। कंगना भी उतनी ही बड़ी सिरदर्द हैं, जितनी अनुष्का। फर्क केवल यह है कि एक Suave और अंग्रेजीदां है, दूसरा देसी और भदेस है (हालांकि, अर्णब ने अंग्रेजी वालों को भी पर्याप्त बदनाम कर दिया है, स्टूडियो में उछलकर, चिल्लाकर और नाचकर)।
बहरहाल, जरा अनुष्का की चिट्ठी देखें और उन फेमिनाजियों को देखें, जो गावस्कर को ट्रोल कर रही हैं। पहली बात, गावस्कर हिंदीभाषी नहीं हैं। दूजे जो वीडियो है, उसके संदर्भ में वह बात कही है तो कोई बेईमानी की बात नहीं कही है। अगर किसी को अपनी कल्पना के सातों तुरंगों को दौड़ाकर ‘अनुष्का के बॉल’ का कुछ और सोचने की चाह है, तो उनके लिए अंग्रेजी में ही शिट करने वाली कुछ फेमिनाजियों ने बाकायदा पुरुष के जननांग का नाम लेकर आज से पांच साल पहले ही विराट को बैट के बदले उससे खेलने वाला बताया था (य़ह दीगर बात है कि ट्विटर पर उसके वायरल होते ही उन्होंने ट्विटर के शॉर्ट होने का बहाना बनाकर पिंड छुड़ा लेना चाहा है)।
अनुष्का की शिकायत क्या है? यही, कि उनको भला उनके पति के खेल में क्यों घसीट लिया जाता है? अनुष्का से यह पूछा जाना चाहिए कि जब उन्होंने विराट से प्रेम किया था, तो क्या उनको यह पता नहीं था कि जिस तरह विराट की टांग-खिंचाई उनको लेकर होती है, उतनी ही बतकही क्या विराट को नहीं सुननी पड़ती है। अपने दिल पर हाथ रखकर अनुष्का को यह भी बताना चाहिए कि जब पापराज़ी उनका पीछा नहीं करेगा, कैमरों और मोबाइल फोन्स के शटरबैग उन पर नहीं खुलेंगे, तो भी उनको कोई समस्या नहीं होगी।
अनुष्का पर इतना अधिक लिखने या रैंट की जरूरत नहीं थी। दरअसल, इसके बहाने अपने समय के क्षरित होते मूल्यबोध को दिखाना ही समस्या थी। अभी मैं किसी एंटरटेनमेंट चैनल का वीडियो देख रहा था। उसकी संवाददाता इस तरह रिपोर्टिंग कर रही थी, मानो उसे मिर्गी का दौरा पड़ गया हो- ये रही वह काली गाड़ी, जिसमें दीपिका हैं, दीपिका, क्या आपने ड्रग्स किया है, आप ड्रग्स करती हैं… आदि-इत्यादि।
क्या पागलपन है भाई? किसी मरे हुए आदमी को चींथते हुए तुमको तीन महीने हो गये, फिर भी चैन नहीं और दूसरी तरफ तुम इतने संवेदनशील हो कि एक कमेंटेटर ने किसी पुराने वीडियो पर कुछ कह दिया, तो आपकी फेमिनिस्ट भावनाएं आहत हो जा रही हैं!
शब्दों का खोखलापन अब जगजाहिर हो चुका है। मुझे याद है कि बचपन में कोटेशन्स की एक किताब आती थी। लिखे शब्दों का वह महत्त्व था कि बड़े लेखकों का लिखा हुआ हम लोगों की पीढ़ी याद रखती थी, रट्टा मारती थी। अब हाल यह है कि हम पोस्ट-ट्रुथ के युग में जी रहे हैं, जहां लिखे हुए शब्दों पर ही भरोसा नहीं है। जिस वक्त कुछ भी लिखा या कहा जा रहा है, लोगों के दिमाग में यह बात आती है कि यह झूठ तो नहीं, फ़ेक तो नहीं?
कुल जमा यही पाया है, हम लोगों ने…। दरअसल, यही हैं हम लोग!
कवर तस्वीर: अनुष्का के ट्विटर से साभार