दक्षिणावर्त: 12 करोड़ जिंदा प्रेतों का डूबता प्रदेश, जहां किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता!


दो दिनों के लिए लखनऊ जाना था। कोरोना के चलते तय हुआ कि सड़क-मार्ग से ही चला जाए। गाड़ीवाले से बात हो गयी, तय समय पर गाड़ी आ गयी। जब पटना से चले और दीघा के पुल पर चढ़े तो गंगा मैया भरी-पूरी दिखाई दीं। खैर, दिमाग में कई और बातें चल रही थीं, तो ध्यान नहीं दिया। जब पुल से उतरकर छपरा जाने वाले रास्ते की जगह गाड़ी मुज़फ्फरपुर की तरफ चल दी, तो ध्यान गया।

ड्राइवर से पूछा, पता चला कि छपरा वाली सड़क डूब चुकी है, इसलिए उधर की जगह सारी गाड़ियां मुज़फ्फरपुर-पटना हाइवे से होकर ही जा रही हैं। भयंकर जाम को झेलते हुए जब मुज़फ्फरपुर पहुंचे तो पता चला कि यहां भी गाड़ियां रेंग रही हैं। क्यों? क्योंकि, समस्तीपुर वाली सड़क भी डूब चुकी है और उधर के वाहनों का बोझ भी इसी सड़क पर है। सुबह बाबूजी से बात हुई थी, उसकी भी याद आयी। उन्होंने कहा था- “पिछले 17-18 दिनों से पानी सड़क और बाड़ी में घुसा है, अब सड़ रहा है, नीचे का पाखाना काम लायक नहीं रहा।“ बाबूजी तो दूसरे माले पर शिफ्ट हो गए, लेकिन जो बांस-बल्ली की झोंपड़ी मे रह रहे थे, उनका क्या हो रहा होगा? यह बात दीगर है कि इस सरकार की कृपा से सभी को एक कमरे का सही, पर पक्का घर मिल गया है, लेकिन शौचालय के पैसों की बंदरबांट होने से बाहर शौच के लिए नदी का ही सहारा था। अब?

मुझे 1987 की भयंकर बाढ़ याद आ गयी। सात वर्षों का था मैं। बाबूजी 40 वर्षों के कड़ियल जवान। मुहल्ले के चाचाओं के साथ नाव का इंतजाम किया था। हम बच्चों के लिए वह एक रोमांच का, खेल का समय था, लेकिन बड़ों की पेशानी पर बल ही दिखा करता था। हमारे घर में तीन परिवारों ने शरण ली थी। हम सभी बच्चे बगल में बन रहे एक घर को अपना पाखाना बना चुके थे। उसकी छत ढाली गयी थी और हमारी छत से बिल्कुल मिली थी। हम तीनों घरों के बच्चे उसकी मुंडेर पर बैठकर निबटते और 12 फीट नीचे पानी में जब छप्प से पाखाना गिरता तो उस पर आनंदित होते, किसके वाले में आवाज़ ज्यादा हुई, उसका हिसाब लगाते थे।

अचानक एक हचके में गाड़ी का पहिया गया और तंद्रा टूटी। हाइवे का एक तरफ बंद कर दिया गया था, हम लोग गोपालगंज की ओर बढ़ रहे थे। हाइवे के डिवाइडर पर पॉलीथीन और बांस की कमचियों के सहारे एक के बाद के बाद एक गृहस्थियां कायम की गयी थीं। सड़क के नीचे पानी का हहराता हुआ ज़ोर और शोर था। चारों ओर पानी ही पानी, अथाह, अनदेखा, अनजाना, जिसके नीचे न जाने कितनी लाशें हैं, जिसके ऊपर न जाने कितने शव उतरा रहे थे, आदमियों के, जानवरों के और राजमार्ग के डिवाइडर पर कई अभागे ऐसे भी थे, जिनको पॉलीथीन भी मयस्सर नहीं था। जिनको हो गया था, वह उसी में चूल्हा जलाकर खाने का सरंजाम कर रहे थे। गाड़ी भागती जा रही थी, मेरी पथरायी आँखें सब कुछ देख रही थीं।

मानव मन कितना कठोर और कोमल है, एक साथ। कितनी अदम्य जिजीविषा है, हममें। कहीं काले, कहीं हरे, और अधिकतर जगह पीले-मटमैले पानी पर कहीं छप्पर तैर रहा था, कहीं कुछ कपड़े, लेकिन हाइवे पर शरणागत ये परिवार स्मार्टफोन पर उसी बेफिक्री के साथ वीडियो देख रहे थे, कहीं धुआं निकल रहा था, चूल्हे का, तो कहीं बच्चे हाइवे को ही फुटबॉल मैदान बनाकर आनंदित हो रहे थे।

गोपालगंज पहुंचने वाले थे कि भयानक बारिश और तेज़ हवाएं। लगा कि वरुणदेव का प्रकोप साक्षात नीचे धरती पर नुमायां हो रहा है। ड्राइवर बहुत सतर्क और अनुभवी था, फिर भी पानी की बौछार इतनी तेज थी कि लग रहा था, जीयस अपने वज्रकाय हथियार से ताबड़तोड़ प्रहार कर रहा है। रास्ते को देखने के लिए गाड़ी की हेडलाइट बहुत बेचारी सी साबित हो रही थी और अगली गाड़ी के टेल-लाइट, कुछ अनुभव और कुछ यूनानी देवता की बिजलियों के आधार पर हमारी गाड़ी बढ़ रही थी। डिवाइडर पर बन-बिगड़ रही कई गृहस्थियां इस बीच आंधी से उजड़ चुकी थीं।

इस बीच एक और हैरतनाक मंजर देखने को मिला। कतार दर कतार लक्जरी बसें गोपालगंज से उत्तर प्रदेश की सीमा में घुसने को चली जा रही थीं। किसी बस पर हरियाणा का, तो किसी पर राजस्थान का, किसी पर यूपी का नंबर चस्पां था। मैंने ड्राइवर से पूछा कि ये क्या लीला है प्रभु, ये कैसा लॉकडाउन चल रहा है? ड्राइवर ने हंसते हुए जो कहा, वह आज तक छुरी की तरह सीने में पैबस्त है, ‘हम बिहारी सब लतखोर हइए हैं, भाईजी। इ सरवा वहीं मजदूरबन सब है, जो लॉकडाउन शुरू होने के समय आसमान सिर पर उठाकर लंगटे गांड़ी वापस आ गया था। अब सबका पंजाबी-गुजराती बाबू-माय फेरो भेजा है गाड़ी, त लक्जरी बस में बैठकर जा रहा है… मरावे ला। हा हा हा..!’

मैं पिछले चार महीने में पहली बार निकला था, लेकिन यात्राएं बहुत की हैं मैंने। लक्जरी बसों की वह कतार और ड्राइवर की वो हंसी मेरी रीढ़ तक चिलक पैदा कर गयी थी। अभी जून की ही तो बात है, जब हजारों की तादाद में हमने गाजियाबाद की सड़कों पर बिहारी मजदूरों को देखा था, हमारे नेताओं ने रिवर्स माइग्रेशन की बात करते हुए हमें आश्वस्त किया था और आज भी रोजाना ढेरों आंकड़े दिए जा रहे हैं कि इतनी नौकरियां दे दी गयीं, इतने रोजगार दिए गए, ये मनरेगा में हो गया, इतने लाख कार्यदिवसों का सृजन हो गया….फिर ये हजारों लक्जरी बसें कहां से आ गयीं, इनमें सवार मजदूर तबका वापस उसी नर्क की भट्ठी में क्यों जा रहा है, जहां से उसे दुरदुराकर भगाया गया था।

हमारे देश में जान वह भी आदमी की सबसे सस्ती है। बिहारियों की तो और भी अधिक। लगभग तीस वर्षों से सामाजिक न्याय के छद्म पर जारी अराजकता ने बिहार को कुंभीपाक और रौरव नरक में तब्दील कर दिया है। अभी भी यकीन न हो, तो स्वच्छता-सर्वेक्षण के आंकड़े देख लीजिए। नरक और किसे कहते हैं? दस लाख की आबादी हो या दस लाख से कम, हमारे शहर (जिन्हें शहर कहना भी इस शब्द का अपमान है) जगमगाता उदाहरण हैं कि सुअरबाड़े में मनुष्य कितनी सहजता से रह सकता है?

कुछ दिनों पहले कोरोना के नाम पर पंचायतों और प्रखंडों में बने आइसोलेशन सेंटर्स को याद कीजिए, उसके पहले मुजफ्फरपुर के बालगृहों के शोषण को याद कीजिए, जहां शैतानी अट्टहासों ने बिहार की आत्मा पर पड़े चंद चीथड़ों को भी चींथकर फेंक दिया था, उसके साथ ही चमकी बुखार को याद कीजिए, जहां नौनिहालों की मौत होती रही और हमारे सियासतदां अपनी आत्मा की बोली लगाकर ‘लूसिफर’ बनते रहे, उसके पहले चंद दिनों की बारिश में पटना का मरघट बनना याद कीजिए, हमारे उपमुख्यमंत्री का हाफपैंट में भागना याद कीजिए और याद कीजिए नालंदा मेडिकल कॉलेज अस्पताल में तैरते हुए बेड को, याद कीजिए अस्पताल में पड़ी उस लाश को, जो एंबुलेंस न मिलने की वजह से बाइक पर ढोयी गयी।

यह बिहार है। इसके दोषी हम सभी हैं। नेता नहीं हैं। हम, यानी आम जनता हैं। मेरे मोहल्ले में दो-दो पोखर थे, तमाम नामचीनों- प्रोफेसर, इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, साहब, पेशकार आदि-इत्यादि ने मिलकर उनकी हत्या कर दी। आज जब 18 दिनों से पानी रुका हुआ है, तो बाप-बाप कर रहे हैं, दोषी कौन है? उसी विधायक को तीन बार से लगातार जितवा रहे हैं, जो पूरी बेहयाई से, पूरी ठसक से उसी पानी में उतर कर फोटो-शूट करवाता है, दांत चियार देता है। दोषी कौन है?

लालू का जंगलराज मुझे याद है, लेकिन पिछले 15 वर्षों से तो सुशासन का दावा है। आखिर, एक भी अस्पताल इस अभागे राज्य के पास ऐसा क्यों नहीं, जहां मौत को कुछ देर के लिए टाला जा सके, उसका दावा किया जा सके, आखिर अभी भी पांच वर्षों में तीन साल वाली डिग्री क्यों मिल रही है, आखिर पटना यूनिवर्सिटी से लेकर ललित नारायण विश्वविद्यालय की ऐसी दुर्गति क्यों की गयी कि अब बिहार में पढ़ना मतलब बिल्कुल निर्विकल्प ही होना हो गया है। दोषी कौन है?

दोषी लोग हैं, हम सभी हैं। हम सभी सुअऱ हैं, हमें मल ही में आनंद मिल रहा है। आप बिहार के किसी भी नुक्कड़ पर चले जाइए, अभी चुनावी चर्चा हो रही है। बाढ़ में लोग चूड़ा, सत्तू और बिस्किट लेकर आनंदित हैं, अगर टी-शर्ट मिल जाए तो क्या ही अच्छा, सोने पर सुहागा। सरकार ने 6 हजार नकद का भी दांव चल दिया है। उज्ज्वला का सिलिंडर भी है ही।

15 से लेकर 22 वर्ष के बच्चे गुटखा खा रहे हैं, शराब के अवैध धंधे में लगे हुए हैं, छुराबाजी कर रहे हैं, जिनके मां-बाप थोड़े पैसे वाले हैं, वे कोटा जा चुके हैं, दिल्ली जा चुके हैं, गांव के गांव खाली हैं, वहां बैठे बूढ़े अगर सवर्ण हैं तो जगन्नाथ मिश्र का स्वर्णकाल पगुरा रहे हैं, यादव-मियांजी हैं तो लालूजी का और कोइरी व अन्य हैं तो नीतीश कुमार का।

मैथिल विद्यापति और दरभंगा महाराज में व्यस्त है, तो मगही चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक से नीचे नहीं उतरता। मोकामा और बेगूसराय वाले अपनी लंठई और कूढ़मगजी को साहस का पर्याय माने बैठे हैं, तो भोजपुरिया अश्लील भोजपुरी गीतों में मोक्ष तलाश रहा है। गया के आदमी ने पूरी सभ्यता का पिंडदान कर दिया है, तो आरा और बक्सर वाले सीमा पार कर गोरखपुर में बसने की तलाश में हैं। बिहार में बचा कौन है? वही, जिंदा प्रेत…

12 करोड़ जॉम्बीज़ का एक प्रदेश इस देश में है, जहां किसी बात से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह सचमुच डरावनी बात है। आप पूछेंगे हल क्या है? मुझे सचमुच नहीं पता। पता है तो इतना ही कि पूरे बिहार को ध्वस्त कर देना होगा, समूल, आद्यांत, आपादमस्तक। तब, शायद नया बिहार बने।



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