दक्षिणावर्त: राम मंदिर बनने से कुछ नहीं बनने वाला, फिर भी बनने दीजिए!


जुलाई 2020 में तुर्की फिर से एर्दोगन के नेतृत्व में वही हो गया, जो अंततः किसी भी इस्लाम मतावलंबी देश, व्यक्ति या एंटिटी को होना है। पाँचवीं सदी के चर्च, फिर कैथेड्रल, मस्जिद, फिर संग्रहालय से होते हुए हया सोफिया को फिर से मस्जिद में बदल दिया गया। 1935 में कमाल अतातुर्क ने इस्लाम को प्रगतिशील बनाना चाहा था, उसका हश्र यही होना था।

इसी 2020 की जुलाई में भारत से सबसे बड़ी खबर ये है कि 5 अगस्त को अयोध्या में श्रीराम का भव्य मंदिर बनाने के लिए जो भूमिपूजन हो रहा है, उसमें खुद भारत के प्रधानमंत्री हिस्सा लेने जा रहे हैं। कई तरह के मीम, गाने इत्यादि सोशल मीडिया पर वायरल हैं। हिंदूवादी परम प्रसन्न हैं तो छद्म-धर्मनिरपेक्षतावादियों को सांप सूंघ गया है।

यहां एक सवाल उठता है कि तुर्की के हया सोफिया के चर्च (संग्रहालय) को फिर से मस्जिद बनाने और भारत में बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने के बीच बुनियादी अंतर क्या है?

मैं यहां दो मोटे अंतर गिनवाना चाहूंगा। यह अंतर आक्रांता और पीड़ित को देखने के नजरिये का है। भारत में 30 हजार से अधिक मंदिर तोड़े गए, बांग्लादेश-पाकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान तक आज हिंदुओं का निशान ढूंढना मुश्किल है। इनमें से केवल एक मंदिर को 70 वर्षों की मुकदमेबाज़ी के बाद हिंदुओं ने वापस पाया है। वह भी हिंदू धर्म के सर्वोच्च देवताओं में से एक श्रीराम का है, बाकी का तो हिसाब भी नहीं किया जा रहा।

हिन्दू पीड़ित कौम क्यों है, इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है। भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जहां बहुसंख्यक आबादी को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर दीवार से सटाकर रखा गया है। धर्मनिरपेक्षता की यह ऐसी अबूझ पहेली है, जहां मुसलमान, ईसाई और अन्य तो अपने धर्म की शिक्षा मदरसों और कॉन्वेन्ट में, स्कूलों में दे सकते हैं, लेकिन हिंदू अपने विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा नहीं दे सकता। संविधान के अनुच्छेद के जरिये ऐसी व्यवस्था कर दी गयी है कि हिंदुओं के मंदिर तक उनके अधिकार-क्षेत्र से बाहर हैं। यह कैसा सेकुलरिज्म है कि मंदिरों की व्यवस्था तो मुसलमान या ईसाई कलक्टर या अधिकारी कर सकता है, किंतु मस्जिदों या चर्चों के ऊपर ऐसी किसी व्यवस्था की बात सोचना तक गुनाह-ए-अज़ीम हो जाता है?

दूसरा अंतर धर्मों के बुनियादी चरित्र में है। सनातन धर्म अपने मूल में न तो विस्तारवादी है, न ही बिबिलियोलेटरस (एक पुस्तक से बंधा हुआ मजहब या रिलिजन) और न ही यह दूसरों को मतांतरित कर अपना दायरा बढ़ाने की परिकल्‍पना करता है।


अयोध्या में विवादित ढांचे का गिराया जाना दरअसल दीवार से सटे हिंदुओं की सहज-स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी, हिंदू भावनाओं के ज्वार का प्रकटीकरण था। वह किसी राजनीतिक पार्टी (यानी भाजपा) या सामाजिक संगठन (आरएसएस) का किया-धरा नहीं था। इन लोगों ने तो बस उन भावनाओं की पूंजी से अपना राजनैतिक-सामाजिक हित साध लिया वरना राम मंदिर के लिए हुआ उभार इस देश में आज तक ‘आंदोलन’ के नाम से नहीं जाना जाता। वह बाकायदे एक आंदोलन ही था जिसमें सामान्य हिन्दू जनता अपनी अंटी में केवल सत्तू बांधकर अयोध्या पहुंची थी। बताइए, क्या बाद के दिनों में एक बार भी विश्व हिन्दू परिषद के आह्वान पर ऐसी भीड़ कभी जुट सकी? यहां तक कि न्‍यायालय के फैसले के बाद भी लोग अयोध्‍या नहीं पहुंचे। वो इसलिए क्योंकि सन 92 के बाद राम मंदिर आंदोलन को राजनीति ने साध लिया था।  

यह तथ्‍य अब दस्‍तावेज़ों का हिस्‍सा है कि 1980 के दशक की शुरुआत में वीएचपी जब राम मंदिर का प्रस्‍ताव लेकर इंदिरा गांधी के पास गयी तो उसके नेताओं से इंदिरा गांधी ने खुद कहा था कि लोकतंत्र में मांगें ऐसे नहीं मानी जाती हैं, उसके लिए आंदोलन चलाना पड़ता है। उसके बाद ही राम मंदिर के आंदोलन की नींव पड़ी। और ऐसा भी नहीं है कि इस आंदोलन में केवल भारतीय जनता पार्टी ने अपनी रोटी सेंकी। 1989 के लोकसभा चुनाव का आग़ाज़ राजीव गांधी ने फ़ैज़ाबाद से ही किया था और भरी सभा में उन्‍होंने अयोध्‍या की पुण्‍यभूमि को प्रणाम करते हुए रामराज्‍य लाने की बात कही थी।  

हाल-फिलहाल में दिल्ली में एंटी-करप्शन आंदोलन अथवा अन्‍ना आंदोलन के कांधे पर चढ़कर अरविंद केजरीवाल के राजनैतिक दल बनाने और फिर दो बार दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के साथ हम इस प्रक्रिया की समानता को देख सकते हैं। अन्‍ना आंदोलन में सभी राजनीतिक दल अपने तरीके से शामिल रहे। संघ भी था और वाम भी। दोनों ने ही आंदोलन को हाइजैक करने की कोशिश अपने-अपने तरीके से की। अंतत: परिणति वही हुई। आंदोलन राजनीतिक पार्टी में तब्‍दील हो गया। राम मंदिर आंदोलन में बस इतना ही फ़र्क था कि उस आंदोलन को पहले से मौजूद दो राजनीतिक दलों में एक ने गोद ले लिया, हालांकि दूसरे ने कोशिश बहुत की।  

बहरहाल, उसी दौर की बात है जब हिंदू मानस शाहबानो मामले से आहत था ही, जब एक अनुभवहीन प्रधानमंत्री ने खुद को मिले प्रचंड जनादेश का सहारा लेकर न्यायालय के फैसले को ही बदल डाला। हिंदू-मुस्लिम के बीच सेकुलरिज्म के नाम पर पड़ी फांक उस दिन और गहरी हुई थी। इसके समानांतर हिंदू समाज को गहरे तक बांटने वाला आरक्षण-विरोधी और समर्थक आंदोलन भी चल रहा था। ऐसे में मंदिर का आंदोलन दोतरफा ऐसा मरहम सिद्ध हुआ, जिसने हिंदुओं को एक तो किया ही, छद्म-धर्मनिरपेक्षता के चंगुल से भी बहुसंख्यक हिंदू उस दिन आजाद हो गया। इसके पहले 1990 में कार-सेवकों पर गोली चलवाकर ‘मुल्ला’ की उपाधि पाये मुलायम सिंह यादव और लालकृष्‍ण आडवाणी की रथयात्रा को बिहार में घुसते ही रोकने वाले लालू प्रसाद यादव हिंदू समाज के लिए खलनायक सिद्ध हो चुके थे, लिहाजा जिस किसी दल या नेता ने हिंदू-हित (इस पर बहुत लंबी बात हो सकती है, किंतु वह विषयांतर होगा) की बात की, बड़ी आबादी उस दल या नेता के साथ हो ली।

बीते ढाई दशक में भाजपा का उभार इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

अंत में वह सवाल जो सबसे आम है- क्या राम-मंदिर से देश की समस्याएं सुलझ जाएंगी? क्या रोजगार बढ़ जाएंगे? क्या अर्थव्यवस्था कुलांचे मारने लगेगी? क्या महामारी का अंत हो जाएगा? बिल्कुल नहीं होगा, किंतु यह भी परखी हुई बात है कि राम-मंदिर के न बनने पर भी समस्याएं निबटी नहीं हैं, उनके साथ ही हम चलते रहे हैं। अगर राम-मंदिर बन ही रहा है, तो भी समस्याएं रहेंगी, उनके साथ हमें जीना होगा, उनके निबटारे का प्रयास करना होगा, लेकिन देश में बहुसंख्यक आबादी के पुराने ज़ख्‍म पर मुकम्‍मल मरहम लगेगा और घाव दोबारा नहीं बहेगा।

इसीलिए, जब हमें यह भय दिखाया जाता है कि भारत हिंदू-राष्ट्र बनने जा रहा है, तो उसका प्रतिप्रश्न यह होना चाहिए कि अव्वल तो ऐसा हो नहीं रहा है और यदि ऐसा हो भी गया, तो भी क्या? भारत के इस्लामिक देश बनने से जरूर मूलभूत परिवर्तन होंगे (जो हम पाकिस्तान या किसी भी इस्लामिक देश में देखते हैं, जहां दूसरे मतों के लोगों को दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है और उनके मूलभूत अधिकार भी नहीं होते) किंतु भारत यदि हिंदू राष्ट्र बन भी गया तो आज की स्थिति से कोई बहुत परिवर्तन नहीं आने वाला है।


एक फिल्म आयी थी, 2007 में। कनाडा की थी। नाम था Steel Toes. कहानी बड़ी सीधी सी थी। एक नव-नाजीवादी (उस फिल्म के कथानक में) जो जाहिर तौर पर श्वेत यूरोपीय नस्लवादी है, एक अश्वेत या फिर मान लें यहूदी की हत्या करता है। उसे बचाने एक यहूदी वकील आता है, जो अपने पेशे में सर्वश्रेष्ठ है। पूरी फिल्म उन दोनों के डायलॉग के बीच, कुछ फ्लैशबैक और कुछ रीयल टाइम शूटिंग पर आधारित है, जहां कर्तव्य, पेशे, समय, न्याय, बदला, क्रोध आदि की परिभाषाएं तय की जाती हैं।

इसी फिल्म में एक दृश्य है जहां श्वेत नस्लवादी उस यहूदी वकील से पूछता है कि आखिर वह उसका मुकदमा क्यों लड़ रहा है? वकील हंस कर जवाब देता है- ‘एक तो यह मेरा पेशा है, दूसरे अगर मैंने तुम्हारा केस नहीं लिया तो मुझ में और तुम में अंतर क्या रहेगा?’

इस फिल्‍म के जि़क्र का आशय बस इतना है बीते तीन दशक में जो ज़ख्‍म इस देश को सालता रहा है और जिसकी परिणति 5 अगस्त को होने जा रही है, उसके मद्देनज़र इस देश का मुसलमान फराख-दिली दिखाते हुए मथुरा और काशी के जन्मस्थानों पर से खुद ही अपना दावा छोड़ दे, मगर…

और, यह मगर बहुत बड़ा है!



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