कोरोना काल में मांग कर खाने को मजबूर हैं बाँसफोर और बहेलिया जैसी घुमंतू जातियों के लोग


कोरोना महामारी और इसके चलते लगाये गये लॉकडाउन की वजह से घुमंतू जातियों का जीवन दूभर हो गया है। ज्यादातर ऐसे समुदाय भुखमरी के कगार पर पहुँच गये हैं। खासकर, उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में रहने वाले बाँस पर निर्भर समुदायों की हालत बहुत नाजुक है जिनके पास कोई सरकारी कागजात न होने के चलते उन तक सरकारी मदद नहीं पहुँच पा रही, नतीजतन ये मांग कर खाने को विवश हैं।  

समाज वैज्ञानिक रमाशंकर सिंह के अनुसार उत्तर प्रदेश में इस किस्म की कम से कम ऐसी चार जातियाँ हैं जिनका जीवन बाँस पर निर्भर करता है; इनमें बंसोड़, बांसफोर, धरकार और डोम हैं। कुछ समय पहले तक इन जातियों को बाँस आसानी से मिल जाता था, इसलिए उनके सामने जीविका का संकट नहीं हुआ करता था लेकिन आज इन जातियों के सामने जीविका का ही नहीं बल्कि अस्तित्व का भी संकट पैदा हो गया है। इनकी इस स्थिति को कोरोना महामारी ने और बदतर बना दिया है।

कोरोना के दौर में हमने बाँसफोर और बहेलिया (ये अपने आपको करोड़ी जाति का भी बताते हैं) समुदाय के लोगों से उनके जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को जानने-समझने की कोशिश की। उनका कहना है कि कोरोना ने उनकी सम्पूर्ण रोज़ी रोटी पर ही वार किया है। ये यूपी के आजमगढ़ से आये लोग हैं और उनके समुदाय के लोग गाजीपुर बलिया, मऊ, गोरखपुर, बहराइच आदि में घूम-घूम कर रहते है। ये अपनी जाति बीन बंशीबासफोर बताते हैं जो बाँसफोर समुदाय के अंतर्गत ही आते हैं।

कोरोना की वजह से गांवों में होने वाली शादियाँ रद्द हो गईं जिसका असर इनके आर्थिक जीवन पर पड़ा। शादियों में लोगों द्वारा बांस के बने दऊरा, दौरी, चंगेरी जैसी अन्य वस्तुएं सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए उपयोग में लायी जाती हैं। वे गांवों में घूम-घूम कर ये वस्तुएं बेचा करते थे जिससे अच्छी-खासी कमाई हो जाती थी। इस बार शादियाँ रद्द होने से लोग नहीं आये। इसका परिणाम हुआ कि इनका जीवन आसपास के लोगों की दयादृष्टि पर निर्भर हो गया है।

बाँसफोर समुदाय के गुलाब कहते हैं, “बाज़ार के लोगों ने, सेठों ने हमारी मदद की। जिससे जितना हुआ उतना कपड़ा, राशन, दाल, आटा, अनाज दिया और ग्राम प्रधान ने भी हमारी बहुत मदद की।” इसी समुदाय के मनोज कहते हैं, “भैया, लॉकडाउन में पेट पालना मुश्किल हो गया है।”

इस समुदाय के पास आधार कार्ड जैसे कागजात का अभाव होने के कारण सरकारी सुविधाओं का ये लाभ नहीं ले पाते हैं। सरकारी राशन की दुकान से राशन भी नहीं मिलता है। कोरोना में सरकार द्वारा मुफ्त राशन वितरण की योजना से भी ये समुदाय वंचित रह जा रहे हैं।

महामारी के दौरान सरकारी सहायता या सरकारी राशन आदि के बारे में इनका कहना था, “हमें किसी भी तरह की सरकारी सहायता नहीं मिल रही है। यहाँ के ग्राम प्रधान के यहाँ हम गये थे, उन्होंने सहायता की और गाँव के कुछ लोगों ने भी मदद की।” 

बाँसफोर समुदाय की रिहाइश से कुछ दूरी पर एक और समुदाय के आने के बारे में जानकारी मिली। ये बहेलिया समुदाय के लोग हैं और बिहार के समस्तीपुर से आये हैं। इन्होंने अपनी जाति करोड़ी बतायी। भारत में जाति का भौगोलिक दूरियों के अनुसार जो वर्गीकरण है उसे समझना बहुत कठिन काम होता है। इनका कहना है बहेलिया और करोड़ी दोनों एक ही है। बिहार में आजकल बाढ़ आयी हुई है इसलिए वे यहां चले आये हैं। आज यहाँ हैं, कल किसी और जगह, अगले दिन किसी और जगह। मुश्किल से इनका किसी स्थान पर ठहराव एक हफ्ते होता होगा।  इनका साजोसामान हमेशा ऐसी स्थिति में रखा जाता है कि अगर किसी भी समय स्थानान्तरण करना हो तो कोई ज्यादा समस्या न हो। अधिकतर सामान साइकिल पर लदे रहते हैं, सिर्फ जरूरत की चीजों को ही ये उतारते हैं।  शिक्षा इनकी पूरी तरह से जीरो है। 

ये लोग जड़ी-बूटी से निर्मित दवाओं को गांवों में घूम-घूम कर बेचते हैं, उससे जो पैसा मिलता है उसी से जीवन चलता है। जड़ी बूटियों को ये जंगलों, पहाड़ों से लेकर उसकी औषधि बनाते हैं। ये औषधि दर्द, चोट इत्यादि से सम्बन्धित होती है। कोरोना में इनकी स्थिति बहुत दयनीय हो गयी है। खाने के लिए आजकल भोजन मिलना भी मुश्किल हो गया है। ये आसपास के घरों, दुकान वालों से मांग कर खाते हैं।

समुदाय की एक महिला ने बताया, “आज मेरे पास खाने में बनाने के लिए कुछ भी नहीं है। कोरोना में कुछ घूम के बेच भी नहीं सकते जिससे कुछ कमाई हो। इसलिए मछली का कटा हुआ हिस्सा, जिसे मछली की दुकान वाला फेंक देता है उसे उठा के लायी हूँ खाने में बनाने के लिए”।

बाँसफोर की तुलना में इनकी स्थिति ज्यादा शोचनीय है। आसपास गांवों में लोग इनको शक की निगाह से भी देखते हैं, लोगों की नजर में ये विश्वसनीय नहीं होते चूंकि इन का स्थायी निवास स्थान नहीं होता है। इनकी भाषा, रहन- सहन, खानपान का तौर-तरीका लोगों की नजर में इन्हें संदेहास्पद बनाता है जबकि बाँसफोर समुदाय के लोग एक स्थान पर 10-20 साल तक रहते हैं।   

औपनिवेशिक काल में इन समुदायों को शक और आपराधिक दृष्टि से देखा जाता था। 1871 में औपनिवेशिक सत्ता ने आपराधिक जनजातीय अधिनियम के तहत बहुत बड़ी संख्या में ऐसे  घुमंतू समुदायों को इस अधिनियम में डाल दिया था। आज तक उससे उपजी धारणा हमारे समाज में इनके प्रति कायम है जो इन्हें कोरोना के दौर में अलगाव और मौत की ओर  धकेल रही है।    

बांसफोर और करोड़ी(बहेलिया) जाति के समुदायों में बड़ा अंतर दोनों के रहन-सहन और व्यवसाय में है। बाँसफोर समुदाय के लोगों की जरूरतें आसपास के लोगों की जरूरतों से जुड़ीं हुई होती हैं। जहाँ बाँसफोर समुदाय के लोग गाँव से बांस लेते हैं वहीं बांस की बनी वस्तुएं गाँव के लोग खरीदते हैं। इस तरह के  सम्बन्ध का निर्माण वे आसपास के समाज में करते हैं। कोरोना में ये संबंध धराशायी हो गये हैं।

इस तरह के समुदायों की घुमक्कड़ी जीवनशैली, गरीबी और वंचना का स्रोत राज्य की संरचना और उसकी नीतियों में खोजा जा सकता है। इनकी प्रमुख समस्या स्थायी रूप से निवास को लेकर रही है। इसका शायद एक बड़ा कारण इनकी राजनीतिक भागीदारी का न होना है क्योंकि ये चुनाव में मतदान भी नहीं कर पाते हैं चूंकि स्थायी निवास न होने के कारण इनका निवास प्रमाण-पत्र और वोटर आइडी कार्ड नहीं बन पाता है। सरकार की नीतिगत विफलता और लम्बे समय तक इस तरह के समुदायों के प्रति राजनीतिक नजरंदाजी, वादाखिलाफी इन समुदायों की समस्याओं के लिए जिम्मेदार हैं।    


लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी के शिक्षा विभाग में शोधार्थी हैं


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