दक्षिणावर्त: थोपी गयी महानताएं और खंडित बचपन के अंतर्द्वंद्व


हाल ही में 23 वर्ष की मलाला युसुफजई ने शादी और पार्टनरशिप को लेकर कुछ ऐसे बयान दिए, जिसकी वजह से वह सुर्खियों में आ गयीं। वोग पत्रिका को दिये एक साक्षात्‍कार में उन्होंने कहा कि शादी की कोई खास जरूरत नहीं है और लोग इसको लेकर बेवजह ही फिक्रमंद रहते हैं, दरअसल पार्टनरशिप ही असली चीज है। आज के क्षणजीवी समय में जाहिर तौर पर इस बयान पर भी तेज़ खेमेबाज़ी हुई और पाकिस्तान सहित दुनिया के कई हिस्सों से इस्लामी कट्टरपंथी उन पर राशन-पानी लेकर चढ़ बैठे, यहां तक कि उनके पिता को सामने आकर सफाई भी देनी पड़ी।

मलाला के बयान से पहले ज़रा उनकी स्थिति को हमें समझना चाहिए। वह इस्लामी माहौल में पली-बढ़ीं, जहां उदारवाद की कोई जगह नहीं है। वोग पत्रिका के जिस इंटरव्यू पर यह बवाल हुआ है, उसके कवर फोटो में भी वह हिजाबनशीं हैं। इसके ठीक उलट भारत में आप ज़ायरा वसीम को याद कर सकते हैं, जिन्होंने बॉलीवुड में अपने आरंभिक सफल करियर के बाद अचानक महसूस किया कि उनका काम उनके ‘ईमान’ के आड़े आ रहा है। मलाला तालिबान की गोली का शिकार हुई थीं और लॉ के लिए इंग्लैंड गयीं, जहां वह अभी तक अपनी पढ़ाई पूरी कर रही हैं। ज़ायरा बॉलीवुड को छोड़ धर्म-ईमान के रास्‍ते निकल चुकी हैं। दोनों एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं।  

इनके अंतर्द्वंद्व को समझिए। एक तरफ तो तालिबानी शासन से मुक्ति, जिस दौरान गुल-मकई के छद्म नाम से लिखकर मलाला प्रख्यात हुईं, दूसरी तरफ इंग्लैंड का खुलापन और तीसरी तरफ इस्लाम का शिकंजा, जहां तयशुदा नियमों और संहिता के अलावा कुछ भी बोलना शिर्क है, गुनाह-ए-अज़ीम है। हो सकता है कि मलाला ने शादी के विषय में खुलकर बोल दिया हो, वह पश्चिम के खुलेपन से प्रेरित रही हों, लेकिन वह अपने देश की ‘कल्चरल एंबैसडर’ भी तो हैं और इसीलिए हिजाब, इसीलिए उनके पिता की सफाई, आदि!

मलाला महज 23 की हैं, लेकिन उनके कंधों पर ‘महानता’ का बोझ पिछले एक दशक से रखा हुआ है। उनको खुले आकाश में उड़ने देने की जब आजादी मिलनी चाहिए थी, तब आपने उन्हें एक ऐसे समाज का प्रवक्ता बना दिया जो अपने घेट्टो में महदूद है। जब उनके ऊपर किसी विचारधारा को मानने या नहीं मानने का दबाव भी नहीं होना चाहिए था, तब उन पर नोबल पुरस्कार की महानता थोप दी गयी। जरूरी नहीं कि वह सर्वज्ञ हों- वह बहुत कुछ नहीं भी जान सकती हैं और बहुत बातों पर उनके विचार ‘नहीं’ भी हो सकते हैं, रेडिकल भी हो सकते हैं, इस्लामी भी हो सकते हैं। जरूरत शायद उन्हें अकेला छोड़ देने की थी। बॉलीवुड की चकाचौंध और अचानक मिली कामयाबी ने ज़ायरा से भी उनका बचपन छीन लिया। नोबल तो बराक ओबामा को भी शांति के लिए मिला था, जिन्होंने ग्वांतानामो पर आंखें मूंद ली थीं, उसके अपराधियों को बचाया था और इराक व अफगानिस्तान को धूल में मिलाने में अपना सहयोग दिया था। नोबेल या फिल्‍मफेयर या कोई भी पुरस्‍कार किसी की रूहानी या दिमागी काबिलियत को साबित नहीं करता।

मलाला की बात को यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली एक युवती की बात से अधिक महत्व देने की जरूरत ही क्या है? वैसे भी शादी उनका व्यक्तिगत मसला है। हां, अब भी लाखों लड़कियों को इस्लामिक देशों में ‘खतने’ का शिकार होना पड़ता है, उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाता है, उनके ऊपर कई तरह की हिंसा होती है। मलाला अगर उनके लिए, अपने इस्लामिक भाई-बहनों से अपील करें, ज़मीनी काम करें तो उनकी ‘महानता’ का सदुपयोग होगा। बाकी वोग और टाइम में छपना थोपी गयी महानता का ही बाइ-प्रोडक्‍ट है।

मलाला की बात से हाल ही में रिलीज़ हुई सिरीज़ ‘फैमिली मैन-2’ में श्रीकांत तिवारी का एक डायलॉग याद आता है, जब दाम्‍पत्‍य जीवन में ‘’टाइम ऑफ’’ लेने की अपनी बीवी की सलाह पर वे खीझकर कहते हैं, ‘’ये गोरों की तरह टेक अ ब्रेक का मतलब मुझे समझ नहीं आता। हमारे यहां या तो शादी होती है या नहीं होती है।’ मलाला भी भारतीय उपमहाद्वीप की ही हैं। वह इंग्लैंड के खुले माहौल में जब अपने साथियों को देखती होंगी, तो उनके भी अरमान जागते होंगे, जैसा कि उनका इंटरव्यू लेने वाली ने कहा भी है कि मलाला दोस्ती, प्रेम और शादी के सवालों पर शरमा रही थीं। यह उनके संस्कार हैं। उन्होंने शादी को लेकर जो कुछ भी कहा हो, सामाजिक भय, दबाव या पारिवारिक प्रेशर से निकलकर वह उस पर अमल कितना कर पाएंगी, यह बड़ा प्रश्न है।


भारतीय उपमहाद्वीप का समाज आलोड़न से गुज़र रहा है और यह हमारी वेब-सि‍रीज़, सीरियल्स और फिल्मों में साफ दिख रहा है। हम लोग उस भाग्यशाली पीढ़ी से हैं जिसने चुंबन के समय दो फूलों को मिलते देखा था जबकि आज किशोरों का खुलेआम स्मूच और फ्रेंच किस ही नहीं, संभोग दृश्‍य तक परदे पर खुलेआम प्रदर्शित हो रहे हैं। इंटरनेट की वजह से आप चाहें तो भी इनको रोक नहीं सकते हैं। हालिया जितनी भी सि‍रीज़ या फिल्में हैं, इन सब में खासकर ‘विवाह’ नाम की संस्था को जड़ से हिलाया जा रहा है। ‘अनुपमा’ हो, ‘इमली’ हो, ‘बांबे बेगम्स’ हो या ‘फैमिली मैन-2’, हरेक जगह ‘कोवर्ट’ या ‘ओवर्ट’ तरीके से विवाहेतर संबंधों को या तो चित्रित किया जा रहा है या फिर उसके संकेत दिये जा रहे हैं। हरेक पुरुष अपनी पत्नी को छोड़कर दूसरी महिला की बांहों में सुकून तलाश रहा है और हरेक महिला पति को छोड़कर दूसरे पुरुष की गोद में जा बैठ रही है।

दक्षिणावर्त: दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख…

ये सारे पात्र ‘सामान्य’ लोग हैं। इन कथानकों में ऐसा भी नहीं कि पुरुष हिंसक हो या महिला घर में कैद हो। इनकी महिला किरदार कॉरपोरेट सेक्टर में काम कर रही हैं, फिर भी इनकी ‘बदफैली’ को बेहद ‘आम’ बना दिया गया है जो चिंताजनक है। इन चरित्रों के पास अपने फरेब को पुख्ता करने के लिए कोई ‘तर्क’ नहीं है, यह बेहद अजीब बात है। इन्‍हीं किरदारों से बाल किरदार भी प्रेरित होते हैं- फिल्‍मों से लेकर समाज तक। ‘फैमिली मैन-2’ में एक दृश्य है, जब श्रीकांत तिवारी (मनोज वाजपेयी) की बेटी धृति अपहृत हो जाती है और वह उसके सहपाठियों से पूछताछ करते हैं। इन किशोरवय के बच्‍चों के जवाब सुनकर आप सामाजिक संदर्भ में हो रहे परिवर्तनों को समझ सकते हैं और चाहें तो ब्‍वायज़ या गर्ल्‍स लॉकररूम के ताले खोल सकते हैं।  

इनमें से एक लड़के का बयान कितना मानीखेज़ है, ‘वह तो हमारे लिए बहन जैसी थी, इसलिए हम लोगों में ज्यादा बातचीत नहीं होती थी’। दूसरी लड़की कहती है कि ‘हमारे आइडियोलॉजिकल डिफरेंसेज (विचारधारात्‍मक मतभेद) थे’। उसकी सबसे पक्की सहेली कहती है, ‘हरेक लड़की का बॉयफ्रेंड है… यह गलत है क्या?’ और आखिरी जवाब तो सबसे धांसू है, ‘वह फेमिनाज़ी थी और मैं लिबरेटेरियन’! मनोज वाजपेयी फेमिनाज़ी पर चौंक पड़ते हैं।

ये 10वीं-11वीं के बच्चे दिखाये जा रहे हैं आपकी सि‍रीज़ में और ये सभी मध्यवर्गीय हैं, कोई सेलिब्रिटी के बेटे-बेटी नहीं, न ही किसी फिल्म स्टार के। इनके मां-बाप हमारे-आपके जैसे सामान्‍य लोग हैं। इनकी बातों से जो निष्‍कर्ष निकल कर आ रहा है वो यह है कि बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड होना सहज नहीं, बेहद अनिवार्य है और जिन किशोरों के पास नहीं, वे ‘कूल’ नहीं हैं; या बहन जैसी थी, तो अधिक बात नहीं होगी, यानी भाई-बहनों में दोस्ती नहीं होगी। जो दोस्त होंगे, उनके साथ ही आप सहज होंगे।

सोचिए, बच्चों की बातचीत कितनी दुरूह, कितनी जटिल हो गयी है। आइडियोलॉजिकल डिफरेंस, फेमिनाज़ी, मां-बाप से बिना किसी तर्क या बात के बहस करना, डांट देना ही बचपन और किशोरावस्‍था का नया सामाजिक नॉर्मल है। नोबेल मिलने के बावजूद सोच कर देखिए कि मलाला का बयान क्‍या इन फिल्‍मी किरदारों से कोई अलग है? करियर निर्माण के बीचोबीच ज़ायरा वसीम की ‘ईमान’ की चिंता क्‍या इससे अलग है? ये बचपन के असमय छीन लिए जाने के स्‍वर हैं। मेरे निष्कर्ष गलत भी हो सकते हैं, लेकिन मलाला के बयान और हालिया पटकथाएं देखकर यही कहा जा सकता है कि बच्चों और किशोरों को वापस उनका बचपन दिया जाए, उन पर ‘महानता’ कतई न थोपी जाए। मशहूर लेखक पाउलो कोएल्हो ने लिखा है-

बच्चा हमेशा एक वयस्क को तीन चीजें सिखा सकता है: बिना किसी कारण खुश रहना, हमेशा किसी न किसी चीज में व्यस्त रहना, साथ ही यह कि जो वह चाहता है उसे पूरी ताकत के साथ कैसे मांगा जाए।

हमारे समय की दिक्कत यह है कि हम बच्चों से यही तीनों खासियतें छीन कर उन्हें जबरन वयस्क बना रहे हैं। हम खुद तो पागल हैं ही, बच्चों और किशोरों को भी अपने पागलखाने में जबरन भर्ती कर रहे हैं।


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