दक्षिणावर्त: विरोधी विचारों के बीच संवाद स्थापित करने के निर्णायक क्षण में…


बात शुरू करने से पहले अतीत की दो-तीन घटनाओं को ज़रा याद कर लेते हैं।

  1. लगभग एक दशक पहले योगी आदित्यनाथ से हिंदी के लेखक उदय प्रकाश एक कथित पुरस्कार ग्रहण करते हैं। उसके बाद उनकी खिंचाई (आज की भाषा में ट्रोलिंग) उनके ही साथी करते हैं, जिसे वह आज तक नहीं भूले हैं। हिंदी के जगत में किसी लेखक के खिलाफ़ चलाया गया यह हस्ताक्षर अभियान ऐतिहासिक था। उदय प्रकाश के मामले में सबसे ज्यादा मुखर रहे मंगलेश डबराल का राकेश सिन्हा के मंच पर अध्यक्षता करना इसी का विस्तार था।
  2. सात साल पहले हंस पत्रिका के वार्षिक आयोजन में गोविंदाचार्य के साथ अरुंधति रॉय और वरवरा राव मंच साझा करने वाले थे। अंतिम समय में इन दोनों ने बिना बताये अपना आना स्थगित कर दिया। अरुंधति ने तो फिर भी नीलाभ (स्वर्गीय) को मेल लिखकर यह सूचना दी, राव दिल्ली आकर भी उपस्थित नहीं हुए। अरुंधति ने एक बार और राजेंद्र यादव का न्यौता ठुकराया था, जब विश्वरंजन के साथ उन्हें हंस के सालाना आयोजन में बुलाया गया था।
  3. कुछ साल पहले जेएनयू में समाजशास्त्र के विख्यात प्राध्यापक प्रो. विवेक कुमार पर संघ का मंच साझा करने का ‘आरोप’ लगता है। चूंकि वह रा.स्व.सं. के मंच पर गये, तो उनकी अकादमिक उपलब्धि से लेकर प्रतिबद्धता तक सवालों के घेरे में आ जाते हैं।

इसका एक उल्टा उदाहरण भी देखिए। उस वक्त स्मृति ईरानी मानव संसाधन मंत्री थीं और देश में ‘असहिष्णुता’ चरम पर थी। संस्थानों का ‘भगवाकरण’ करने का आरोप लग रहा था और एफटीआइआइ से लेकर कई सारे विश्वविद्यालय छात्रों के आंदोलन से दहले हुए थे। तब, भरे सदन में स्मृति ईरानी ने बाकायदा नाम लेकर कहा था कि उनकी सरकार विचारधारा के आधार पर भेदभाव नहीं करती है और श्रीमान या श्रीमती ‘क’ के मार्क्सवादी होने के बावजूद सरकार उनकी सेवाएं ले रही है।

ये उदाहरण मैंने वैचारिक दृढ़ता और स्पष्टता को लेकर साफ-साफ दिखते फ़र्क को उजागर करने के लिए दिये हैं। इन घटनाओं को वैसे विलगा कर देखें, तो अलग हैं, पर सूत्र एक ही है। आखिर, ‘वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः’ के देश में ऐसे सार्वजनिक व्यवहार के बीज कहां पाये जाते हैं, जहां विचारों का संचरण तो छोड़िए, प्रकटीकरण भी कठिन हो गया है।

वामपंथी अपने रुख को लेकर काफी हठधर्मी होते हैं और वे इस रुख पर काफी गर्व भी महसूस करते हैं। इसके उलट जो तथाकथित दक्षिणपंथी हैं भारत के, यानी मोटे तौर पर संघ और भाजपा वाले, वे अपने वैचारिक रुख को लेकर न केवल लचीले होते हैं, बल्कि काफी हद तक इसकी परवाह भी करते हैं कि उन्हें लेफ्ट-लिबरल विचार-समूह से स्वीकृति और सनद मिले। साथ ही, अपनी वैचारिक जड़ और उत्थान को लेकर ये इतने अपोलोजेटिक (क्षमाप्रार्थी) भी होते हैं, कि प्रचंड बहुमत से चुनी एक ताकतवर सरकार की मंत्री को संसद में घिघियाना पड़ता है कि नहीं जी, हम तो वामपंथियों के साथ भी काम करते हैं।

मंच साझा न करने, विरोधी विचारों को हीन समझने, एक विचार से सहमत लोगों को ही वैचारिक रूप से सहमत बनाने की यह कहानी बहुत लंबी है। इस संदर्भ में इस लेखक की मंशा दो मूल प्रश्नों से टकराने की है। पहली, कि दो विभिन्न विचारधाराओं के बीच आदान-प्रदान की बात तो दूर जाने दीजिए, ये जो अछूत मानने वाली बात है, उसके पीछे का कारण क्या है। दूसरे, तथाकथित दक्षिणपंथियों की इस लड़खड़ाहट का कारण क्या है। इन दोनों के जवाब से टकराने के लिए हमें इतिहास के पन्ने पलटने पड़ेंगे।

पिछले सात दशकों का इतिहास देखें तो पुराने समय में जैसे राजधर्म होता था, वैसे ही 1947 के बाद इस देश में वाम-उदारवादी खेमा और विचार यहां का राजधर्म बना। इसकी जड़ पहले प्रधानमंत्री नेहरू के समय से ही पड़ गयी जब इतिहास के ‘राष्ट्रवादी’ लेखन को नकार कर उन्होंने ‘प्रगतिशील’ प्रारूप को चुना। इसके बाद तो गंगा और वोल्गा को एक करने की जितनी कोशिशें हुईं, वे इंदिरा से होते हुए मनमोहन सरकार तक कमोबेश अपनी गति से चलती ही रहीं। राज्याश्रय में रहकर ‘वामपंथ’ को जितनी मजबूती मिलनी थी, वह मिली और वहीं उसका ‘ब्राह्मणवाद’ यानी श्रेष्ठता-बोध भी जन्मा। जिस देश में ‘एकं सत्, विप्रा बहुधा वदन्ति’ की टेर लगायी जाती थी, वहां वामपंथ ने ‘एकोsहं, द्वितीयो नास्ति’ की तर्ज़ पर सारे विरोधी विचार अमान्य कर दिये। वामपंथ जब कभी अकादमिक खेमेबाजी, अड़ीबाजी, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और तमाम तरह के गर्हित कर्मों में मुब्तिला हुआ, तो उसके पास राज्याश्रय की चमकती हुई तलवार थी।

इसके ठीक उलट, दक्षिणपंथ इस देश में हमेशा दुरदुराया जाता रहा। विचार-विमर्श और अकादमिया में भी। यदि अकादमिक घेरे में किसी को अपनी बात रखनी होती थी, तो वह रास्ता वाम के जरिये ही तय होता था, वरना उसकी प्रतिष्ठा धूल-धूसरित करते देर नहीं की जाती थी। यही वजह है कि सीताराम गोयल के उठाये प्रश्नों का जवाब तो छोड़िये, उनके सवाल पूछने की सलाहियत पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिये जाते हैं। पहले तो टालना, फिर मज़ाक बनाना और आखिर में खारिज कर देना- ये त्रिशूल था, जिससे हरेक दक्षिणपंथी को गुजरना होता था। अगर आपको वामपंथी आख्यानों का, सिद्धांतों का जवाब भी देना है तो आपको मार्क्सवादी टूल ही अपनाने पड़ेंगे।

यहां मुझे जेएनयू के दिन याद आते हैं जहां लगभग हरेक तीसरे दिन कोई-न-कोई टेस्ट होता था। कभी एक सवाल, कभी पांच। हरेक सवाल में एक बात क़ॉमन होती थी- कविता चाहे गुंटर ग्रास की हो या गोएथे की, व्याख्या आपको ‘मार्क्सवादी दृष्टिकोण’ से ही करनी होती थी। यहां तक कि पढ़ आप चाहे दर्शनशास्त्र रहे हों, या फिर जर्मनी की संस्कृति के बारे में विचार-विनिमय करना हो, हरेक चीज को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से ही देखना और समझना सिखाया जाता था। याद कीजिएगा तो शायद इसीलिए, अरुण शौरी अकादमिक जगत में रगड़घिस्स करके फिर भी अपनी जगह बना लेते हैं, लेकिन देवेंद्र स्वरूप या सीताराम गोयल को भारतीय अकादमिक जगत कभी नहीं स्वीकारता। यहां अरुण शौरी के साथ उनकी अंग्रेजी, पत्रकारिता की उनकी पृष्ठभूमि और अन्य तात्कालिक राजनीतिक कारण जुड़ जाते हैं, लेकिन मुख्य बात जो थी, वह है वामपंथ के अकादमिक ‘टूल्स’ का इस्तेमाल। इसके नायाब उदाहरण आप ‘वर्शिपिंग फॉल्स गॉड्स’ और ‘एमिनेंट हिस्टोरियंस’ में देख सकते हैं।

दक्षिणपंथियों की मिमियाहट और वाम से सनद पाने की ख्वाहिश के पीछे ये कुछ ठोस वजहें हैं। पिछले छह वर्षों से अपनी तमाम मज़बूती के बावजूद यह घिघियाहट शायद दक्षिणपंथ के माज़ी का बोझ है और सनद पाने की यह ललक, शायद उसके खेमे में महारथियों की कमतरी को भी दिखाता है। कमतरी की दिक्कत हालांकि वामपंथ में भी कम नहीं है। सोचने वाली बात है कि आखिर पूर्व सोवियत संघ में समाजवाद एक भी दॉस्तोवस्की, तुर्गनेव, टॉल्टस्टॉय या गोर्की क्यों न पैदा कर सका? सोचने वाली बात तो ये भी है कि राजेंद्र यादव के बाद उनके जितना नहीं, तो उनसे उन्नीस ही सही, कौन संपादक हुआ जिसने दो धुर विरोधी विचारधाराओं के वाहकों को एक नहीं कई बार एक मंच पर बुलाने का जोखिम उठाया?

इस वक्त दक्षिणपंथ अपने उरूज पर है, लेकिन वामपंथ अपने घटते दायरे को लेकर अवसन्न और क्लांत पड़ा है। पूरा समाज दो पाले में बंटा दिखता है और पाला खींचने वाले इधर हों कि उधर, समान अपराध के भागी हैं। आप साहित्य में इंची-टेप लेकर, सरकारी हिसाब से कतर-ब्योंत करेंगे, तो आपके विचारों में फूलों की सुगंध नहीं, कागज के निष्प्राण देह की बदबू ही होगी। आप सार्वजनिक मंचों पर, नाम देखकर अपनी शिरकत का फैसला करेंगे, तो विचारों का वितान और तंग होता जाएगा। आज जो संकट हमारे सामने है, वह इसी व्यवहार की देन है और सबका साझा है। ठीक इस निर्णायक वक्त में यदि विरोधी विचारों के बीच कोई संवाद कायम हो सके, तो शायद भविष्य की कोई राह दिखे। गलतियां हमने की हैं, तो उन्हें दुरुस्त करने कोई तीसरा नहीं आएगा।


लेखक स्वतंत्र पत्रकार और सोशल मीडिया कंसल्टेन्ट हैं


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