‘बात’ की शक्ति का स्रोत क्या है? बात में बल, दम या वज़न कैसे आता है? ये ऐसे सवाल हैं जिनके बारे में हमेशा जिज्ञासा बनी रहती है। ऐसे तो मानव का स्वभाव है बात करना। वह दिन भर बात करता है। आज गर्मी ज़्यादा है, इतनी ठंड कभी नहीं पड़ी, बारिश ने तो जीना मुहाल किया है। ये कुछ जैसे विषय हैं जिन पर हर व्यक्ति कभी न कभी, किसी न किसी रूप में बात करता है। इन बातों का कोई मतलब नहीं होता है।
मान लीजिए मैंने किसी की कही इस बात को मान ही लिया कि वाकई आज बहुत गर्मी है तो उससे मेरे जीवन में कोई बदलाव आ जाएगा? बिलकुल नहीं। मैं न तो उसकी बात काटूंगा और न ही उसे दुरुस्त करने की कोशिश करूंगा और न ही उसकी बात मुझे बुरी लगेगी, न ही अच्छी ही लगेगी। उसे कहना था उसने कहा, मुझे सुनना था मैंने सुना। बात जो है वो आयी-गयी हो गयी।
सारी बातें हालांकि ठीक इतनी ही सामान्य और मासूम नहीं होती हैं। कुछ बातें इसलिए स्वेच्छा से मान ली जाती हैं क्योंकि वो मानने लायक हैं। अगर स्वेच्छा से नहीं मानीं तो मनवायी जाती हैं।
तो एक बात होती है जिसमें एक आंतरिक बल होता है और यह बल ही उसे बात बनाता है। यानी वो बात खुद की शक्ति से भरपूर होती है। यह शक्ति अब तक जाने गये ज्ञान में ‘तर्क’ कहलाती है।
एक दूसरे प्रकार की बात है जिसके पीछे तर्क का नहीं, संख्या का बल होता है। यानी एक बात को कई सारे लोग एक साथ बोल रहे हैं इसलिए भले ही बात में कोई तर्क न हो, बल न हो, वज़न न हो, पर उसे संख्या के बल पर आपसे मनवा लिया जाएगा। यहां संख्या का बल बात को हस्तांतरित हो जाता है और बात में एक आभासी बल पैदा हो जाता है।
‘अगर इस वक़्त देश के प्रधानमंत्री फलाने नहीं होते तो कोरोना की वजह से मरने वालों की संख्या करोड़ों में पहुंच जाती’, यह कथन उस बात का एक मुकम्मल उदाहरण है जिसे आपसे मनवाने की चेष्टा की जा रही है। आप जानते हैं कि इस बात में कोई दम नहीं है, तर्क नहीं है, लेकिन देश में मुख्यधारा का मुखर मीडिया हर समय यही कह रहा है। व्हाट्सएप पर बीते दो महीनों से यही संदेश चल रहे हैं और घर, परिवार, रिश्तेदार सब यही बोल रहे हैं। आप क्या कर सकते हैं?
यह संख्या का बल बहुत तेज़ी से बात को बदलने, बनाने, फैलाने और मनवाने में पुरजोर तरीके से मुब्तिला है। हमारी जम्हूरियत अब किसी भी वजह से अकेले पड़ते जा रहे व्यक्ति के मत या विचार की रक्षा करने के बजाय उसे घेरने, उसका शिकार करने की एक शासन पद्धति बनती जा रही है।
हम ऐसी जम्हूरियत का हिस्सा बनाये जा रहे हैं जहां दस व्यक्ति मिलकर एक व्यक्ति को मूर्ख साबित करने पर आमादा हैं क्योंकि उस एक व्यक्ति ने उनकी बात को इस लिहाज से मानने से इंकार कर दिया है क्योंकि उनकी बात में तर्क नहीं था।
आप बात में तर्क तलाश करेंगे तो इसका मतलब यही होगा कि आप उनकी बात मानने से इंकार कर रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि उनकी बात में कोई तर्क नहीं है और इसीलिए तो वे हुजूम में आये हैं ताकि आप उनकी बात को तर्क पर नहीं बल्कि उनकी संख्या की कसौटी पर परखें और अगर खुद की सुरक्षा चाहते हैं तो उनके साथ हो जाएं।
आज जो हमारे देश और दुनिया के सबसे विशाल लोकतन्त्र में हो रहा है, वो इसी संख्या के बल पर हो रहा है। इस जम्हूरियत का एक ठिकाना है जिसे ‘संसद’ कहा जाता है। इस संसद में पूरा देश सिमट आता है। एक व्यक्ति को कम से कम 10 लाख लोगों की नुमाइंदगी करने यहां जनता द्वारा भेजा जाता है, हालांकि सभी दस लाख लोग उसे नहीं भेजते। औसतन तीन-चार लाख उसे चुनते हैं जिसे बाकी छह-सात लाख लोगों का भी चुनाव मान लिया जाता है। अभी इस तरह के 335 लोग आये हैं जिन्होंने एक ‘सत्ता’ का निर्माण किया है। महज़ 35-40 प्रतिशत लोगों की प्रत्यक्ष नुमाइंदगी के बल पर बाकी 60-65 लोगों की नुमाइंदगी करने के भी अधिकार भी इन्होंने हासिल कर लिये हैं। 60-65 प्रतिशत लोगों का बल जिन्हें मिला वो यहां नहीं पहुंच पाये।
‘बहुमत’ विपक्ष के लोगों के साथ होता है लेकिन उनकी संख्या का बल बिखर जाता है और उनकी नुमाइंदगी नहीं हो पाती। ऐसी सूरत में सत्ता में शामिल ये लोग जो कुछ भी बोलें उसे नाहक बात मान लिया जाता है जिसमें कुछ दम नहीं भी हो, पर संख्या का दम तो है ही।
तो मूल बात है संख्या का बल। अब यह संख्या निकल रही है देश को यह बताने कि पिछले एक साल में हमारे नेता ने क्या-क्या उपलब्धियां अर्जित कीं। कायदे से इस बार उन्हें यह बताने की ज़रूरत है नहीं। उनकी सरकार की उपलब्धियां तो सड़कों पर चलते देश के श्रमिक नागरिकों के रूप में रोज़ शाया हो रही हैं।
उनकी उपलब्धियां अस्पतालों की लचर व्यवस्थाओं में दिख रही हैं। कोरोना के योद्धाओं के ज़रूरी संसाधनों की कमी के कारण पस्त पड़ते हौसलों में दिखायी दे रही हैं। रेलगाड़ियों के पटरी बदलकर भटक जाने में भी दिखलायी पड़ रही हैं और 60 दिनों में आ चुके सैकड़ों परस्पर विरोधी आदेशों के रूप में देश के सामने हैं।
इसके बावजूद यह दल निकलेगा, हज़ार कार्यक्रम करेगा और वह सब मनवा लेगा जो आप नहीं मानना चाहते क्योंकि आपको उनकी बातों में भरोसा नहीं है। आपको पता होगा कि वे झूठ बोल रहे हैं लेकिन आप मानेंगे क्योंकि आपको दिन भर कई-कई लोगों, कई-कई माध्यमों से, कई-कई तरीकों से यह बताया जाएगा। आपके अपने लोग उनकी तरफ से बोलने लगेंगे और आपसे उनकी बात मनवाने की कोशिश करेंगे।
ऐसे में जो असल बहुमत है यानी विपक्ष, वो कुछ कोशिश करेगा। कुछ सवाल पूछेगा। लेकिन तब तक उसके जूते की कीमत आपके मुंह पर चस्पां कर दी जाएगी। अब आप तर्क ढूंढते रहिए कि सवाल पूछने वाले के जूते अगर पंद्रह हज़ार के हैं भी तो इससे उसके सवाल या उसकी बात कैसे कमजोर हो जाएगी?
अब आपके सामने एक ‘बात’ होगी और एक ‘संख्या’ होगी। बात आपको जंच रही है लेकिन संख्या आपको वह बात जंचने नहीं देगी। आप कहेंगे कि बंदे ने बात तो ठीक की है लेकिन संख्या कहेगी उसके जूते देखे? आप कहेंगे जूते का बात से क्या ताल्लुक? वो कहेंगे कि उसके जूते की कीमत ज़्यादा है और इसलिए उसकी बात में दम नहीं है। आप मन में इस तर्क को समझते रहिए लेकिन वो आपसे यही सुनकर जाएँगे कि– हां, आपकी बात ठीक है, हालांकि आपने कहा होगा- आपकी बात बकवास है। लेकिन आपकी संख्या ज़्यादा है।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं
सत्यम आपने संख्या की गणित जो बताई किसी गलत चीज को जस्टीफाई करने की वही आज हो रहा है और हम सहमत नहीं होते हुए भी अंतत: उस बहुविध संख्या वाली इनफार्मेशन से संतुष्ट हो जाते हैं।
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