जिनके अपने मकान होते हैं वो किरायेदार नहीं होते या इसके उलट जो किरायेदार नहीं होते उनके अपने मकान होते हैं। दार्शनिक स्तर पर देखा जाये तो जिसने भी जन्म लिया है वो सभी किरायेदार ही हैं। ये धरती किसी का ‘ज़ाती मकान’ तो है नहीं। जो आया है कुछ वक़्त रहेगा। यहां का खाएगा-पिएगा, जिसकी कीमत चुकाएगा और फिर एक दिन निकल लेगा।
बाज़ार की नज़र से भी देखें तो सब बराबर हैं। जिसके पास अपना मकान है वो भी और जिनके पास नहीं है वो भी। किसी सोसायटी में ईंट, गारे, सीमेंट, कंक्रीट से बना एक ढांचा जिसे मकान कहा जाता है असल में एक‘सेवा’ है जो ली जाती है। सेवा कहने से भाव स्पष्ट न हो तो एक सर्विस है कहा जा सकता है।
अगर आप बाज़ार की शक्तियों को ठीक ढंग से समझना चाहते हैं तो आपको ब्रोकरों की कार्यशैली को समझना चाहिए। रैपर बदल कर एक जैसा प्रोडक्ट आपको हज़ार नामों से मिलता है। मान लीजिए आपको कपड़े धोने के लिए एक साबुन दरकार है। साबुन का काम इतना ही है कि वो पानी में क्षार बढ़ा दे। इसके लिए उसमें एक रसायन मौजूद होता है। पानी जब क्षार में बदलता है उसमें कपड़े की ऊपरी परत पर चढ़ी मैल, धूल या अन्य प्रकार की गंदगी को साफ़ करने की कुव्वत पैदा हो जाती है। आपके कपड़े उस रसायन (जिसे चलताऊ वैज्ञानिक भाषा में डिटर्जेंट कहा जाता है) के प्रभाव में आकर साफ हो जाते हैं।
यही रसायन हर साबुन में मौजूद होता है। इसके बिना कपड़े धोने का साबुन बन नहीं सकता, लेकिन आपके सामने इसके बहुत सारे विकल्प बाज़ार में मौजूद हैं। आपको आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के विज्ञापन हैं। आपकी मर्ज़ी अब चल नहीं पाती। एरियल में इस रसायन के साथ खुशबू भी है, रिन कम घिसता है, घड़ी जल्दी घुल जाता है। ये आपके तजुर्बों का हिस्सा है। आप तजुर्बों के बल पर आगे बढ़कर एक साबुन उठाते हैं, तभी बगल में रखा साबुन का एक ब्रांड पांच साबुन खरीदने पर दो साबुन फ्री देने लगता है। आप दो फ्री साबुन के चक्कर में अपने तजुर्बे भूल जाते हैं और दस रुपये बचाकर खुद को उस ब्रांड के हवाले कर देते हैं। घर आने तक आप खुश होते हैं और फिर उस साबुन से वही काम लेने लगते हैं जो आपको अपने तजुर्बों से हासिल किसी जाँचे-परखे ब्रांड से लेना था यानी कपड़ों की धुलाई। इससे ज़्यादा काम किसी अन्य ब्रांड का साबुन कर भी नहीं सकता। बहरहाल…
एक सोसायटी है। उसमें ग्यारह सौ फ्लैट हैं। इनमें छह सौ फ्लैट उनके हैं जिन्हें खुद कभी उनमें नहीं रहना। वो कहीं और रहते हैं। अब छह सौ फ्लेट्स में दस फ्लैट खाली हुए हैं जिनके लिए किरायेदार भटक रहे हैं। उसी सोसायटी में आठ–दस प्रॉपर्टी ब्रोकर हैं। सभी फ्लैट्स की एक ही चाभी है जो किसी एक ब्रोकर के पास है लेकिन वो सारे फ्लैट सारे ब्रोकर्स संभावित किरायेदारों को दिखते रहते हैं। फ्लैट्स के बारे में कम लेकिन अन्य ब्रोकर्स के बारे में वो ज़्यादा बताते रहेंगे। सौदा किसी ने भी तय किया हो, हिस्सा सभी को जाएगा। अगर एक ब्रोकर किसी पार्टी ( इस जगत की भाषा) को ठीक से कनविन्स नहीं कर पाया तो दूसरा मुस्तैद होगा और किसी तरह कनविन्स कर लेगा। जिसने पार्टी को कनविन्स किया और जो नहीं कर पाया उनमें ब्रोकरेज का हिस्सा बराबर बंट जाएगा।
आपको लगेगा अच्छा हुआ जो आप उस ब्रोकर के झांसे में नहीं आए। आपको अपनी कनविनसिंग पावर पर यकीन पुख्ता हो जाएगा। अगर पत्नी को ये गुमान हो गया कि उन्होंने अपनी वाकपटुता से सौदा पक्का कर लिया तो वो मंद-मंद मुस्कुराते हुए पति को सुनाती रहेंगीं कि देखा, मुझे दुनिया से डील करना आता है और इसके उलट हुआ तो पति महाशय सैकड़ों बार कही जा चुकी बात को एक बार और कह देंगे कि दुनिया देखी है। कोई बेवकूफ नहीं बना सकता।
उधर सारे ब्रोकर सोसायटी के बाहर बने पार्क में बैठकर इन्हें बेवकूफ बना देने पर एक दूसरे को शाबाशी दे रहे होंगे। ब्रोकर्स की दुकानें या दफ्तर जो भी कहें, बाहर से अलहदा दिखती हैं लेकिन अंदर से उनमें आवाजाही बेरोकटोक होती है। तभी तो एक ही फ्लैट की चाभी इस दुकान से उस दुकान चली जाती है।
ये आपस में ऐसी दुश्मनी दिखाएंगे कि आपको लगने लगेगा कि आपका सबसे बड़ा शत्रु दूसरा ब्रोकर है। जिसे आप जुम्मा जुम्मा एकाध बार मिले हैं उसे आपका दुश्मन बना देंगे और उसके ट्रैप से बच निकालने का जश्न मनाने लगेंगे। नये मकान में पहुँचने के बाद उन आभासी दुश्मनों के और उनके चंगुल से बच निकलने के किस्से आप यार दोस्तों को भी सुनाते रहेंगे।
अब तक ऊपर जो भी कहा गया उनमें दो बातें हैं। पहली, कि आप अपनी मर्ज़ी का साबुन नहीं खरीद सके लेकिन जो खरीद पाये उससे आप खुश रहेंगे कि पांच के साथ दो फ्री मिले। दूसरे मामले में आप फ्लैट किसी भी ब्रोकर के माध्यम से लेते आप किसी और से ठगे जाने से बचने के भ्रम में बने रहेंगे और अपनी वाकपटुता या कनविन्स कर लेने के पावर को लेकर खुश बने रहेंगे। असल बात ये है कि आप ठगे दोनों जगह गये हैं।
यह भ्रम हमारी राजनीति का स्थायी स्वभाव है। कहीं बिजली पानी मुफ्त मिला तो उसे चुन लिया। किसी ने लैपटॉप बाँट दिये तो आप खुश हो गये। किसी ने मुसलमानों को ‘टाइट’ कर दिया, आप खुश गए। किसी ने आपको अपना निजी जीवन अपनी तरह से जीने की सहूलियत दे दी, आपको मज़ा आ गया। कोई आया और उसने सड़कें बनवा दीं, किसी ने मंदिर बनवा दिया और मस्जिदें गिरवा दीं, आपको लगा आपने सही बंदा चुन लिया।
आप तो इससे भी खुश हो जाएंगे कि किसी ने गुड फ्राइडे को गुड गवर्नेंस डे बना दिया। मज़ा आ गया। जबकि न आपको गुड फ्राइडे से मतलब था न गुड गवर्नेंस से। बस आपको कुछ ऐसा मिल गया जो आपको बताया गया कि यही आपके लिए सबसे अच्छा है। ब्रोकर यूं तो बाज़ार का हिस्सा हैं लेकिन यहाँ दिये गये उदाहरण में फिलहाल वो केवल आपको मकान दिलाने के काम आ रहे हैं। राजनैतिक मामलों में आपके निर्णय, कनविन्स होने, कनविन्स करने की जो सलाहियतें आपको मिलती हैं उसके लिए अलग ब्रोकर्स हैं जिन्हें आप न्यूज़ चैनलों के नाम से जानते हैं। कोई शक है क्या आपको?
अब किरायेदार के फलसफे को अपने आज के निज़ाम से समझिए। और सोचिए कि आपने क्या चाहा था? क्या-क्या मिला? क्या आपने वाकई रोजगार, विकास, शांति, तरक्की, दुनिया में देश का ऊंचा नाम चाहा था या कुछ और जो आपको अभी भी मिलता हुआ नज़र आ रहा है और आप खुश हैं कि आपने वो साबुन नहीं खरीदा जो अमूमन आप खरीदते थे या उस ब्रोकर से सौदा फाइनल नहीं किया जिसके बारे में आपको दूसरे ब्रोकर ने बताया था कि वो ठगता है। आओ, एक बार सोचकर देखें।
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं
चुस्त रोचक भाषा संवाद शैली सत्यम
ज़ोर ए कलम और ज़ियादा