डिक्टा फिक्टा: मेलज़र की चेतावनी, भुतहा फिल्में और ‘सब याद रखा जाएगा’ की फंतासी


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यदि आप भारतीय मीडिया की स्थिति से खिन्न हैं, तो आपको यह जानना चाहिए कि विदेश में, ख़ासकर प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय मीडिया के इदारों की हालत बहुत बेहतर नहीं है. इसकी एक बानगी बीते 26 जून को मिली. इस दिन को दुनिया भर में यातना/यंत्रणा के पीड़ितों के समर्थन में अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में चिह्नित किया गया है.

यातना पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष रैपोर्टर्र (प्रतिवेदक) प्रोफ़ेसर निल्स मेलज़र ने विकीलीक्स के संस्थापक जूलियन असांज के साथ हो रहे दुर्व्यवहारों का विश्लेषण करते हुए एक लेख लिखा और उसे प्रकाशन के लिए ‘द गार्डियन’, ‘द टाइम्स’, ‘द फ़ाइनेंशियल टाइम्स’, ‘द सिडनी मॉर्निंग हेराल्ड’, ‘द ऑस्ट्रेलियन’, ‘द कैनबरा टाइम्स’, ‘द टेलीग्राफ़’ (लंदन), ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’, ‘द वाशिंगटन पोस्ट’, ‘थॉमसन रॉयटर फ़ाउंडेशन’ और ‘न्यूज़वीक’ को भेजा था, लेकिन इनमें से किसी ने भी उस लेख में दिलचस्पी नहीं दिखायी. यह लेख उन्होंने ख़ुद मीडियम पर प्रकाशित किया है.

मेलज़र नवंबर, 2016 से संयुक्त राष्ट्र के विशेष रैपोर्टर्र (प्रतिवेदक) हैं. वे अंतरराष्ट्रीय मानवीय क़ानूनों और मानवाधिकार की जेनेवा एकेडमी में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर हैं. वे ग्लासगो विश्वविद्यालय के भी प्रोफ़ेसर हैं. वे रेड क्रॉस की अंतरराष्ट्रीय समिति में लंबे अरसे तक अहम ज़िम्मेदारियाँ संभालने के अलावा अनेक संस्थानों में योगदान दे चुके हैं. वे स्विट्ज़रलैंड के विदेश विभाग के भी सलाहकार रहे हैं तथा संयुक्त राष्ट्र की कई समितियों में भी रह चुके हैं. अनेक किताबों और रिपोर्टों के लेखक प्रोफ़ेसर मेलज़र की ख्याति एक समर्पित मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में रही है.

ऐसे प्रतिष्ठित विद्वान से इन अंतरराष्ट्रीय अख़बारों को क्या परहेज़ हो सकता है? इस सवाल का जवाब उस लेख के विषय में है. प्रोफ़ेसर मेलज़र ने कई बरसों से जूलियन असांज को दी जा रही यातना की परतें खोल दी हैं. पहली बात तो यह है कि असांज के ख़िलाफ़ कभी यौन अपराध का कोई अभियोग नहीं लाया गया और कथित रूप से पीड़ित औरतें भी ऐसा आरोप नहीं लगा रही थीं, लेकिन अमेरिका के कहने पर स्वीडन के अधिकारियों ने टैब्लॉयड अख़बारों के माध्यम से इस मसले को उछालकर दुनिया भर में असांज को एक बलात्कारी के रूप में पेश कर दिया, जबकि न तो सबूत के रूप में जमा कंडोम में कोई डीएनए सबूत मिला और न ही कुछ और साबित किया जा सका. एक महिला ने तो यह मोबाइल संदेश भी भेजा था कि वह सिर्फ़ इतना चाहती है कि असांज एचआइवी टेस्ट करा लें.

पूरे मामले के दौरान और ब्रिटेन व स्वीडन सरकार/पुलिस असांज को अमेरिका को सौंपने का कुचक्र करती रहीं. फिर असांज को लंदन के इक्वाडोर दूतावास में शरण लेनी पड़ी, जहां बाद में उन्हें परेशान किया गया और अंततः अमेरिकी दबाव में ब्रिटेन को सौंप दिया. ब्रिटिश सरकार ने आधिकारिक रूप से जूलियन को अमेरिका को देने का आदेश दे दिया है और यह मामला अब ब्रिटेन की अदालत में लंबित है. असांज को कष्टकारी अमानवीय परिस्थितियों में मामूली सुविधाओं के साथ जेल में रखा गया है. कुछ दिन पहले उन्हें एक रेडियो हासिल करने में भी बड़ी मुश्किलों से गुज़रना पड़ा था.

मेलज़र ने बलात्कार के आरोपों को तो ख़ारिज़ किया ही है, उन्होंने यह भी कहा है कि असांज हैकर नहीं हैं और विकीलीक्स को मिली तमाम सूचनाएं विभिन्न स्रोतों ने स्वेच्छा से उपलब्ध करायी थीं. इस लेख में कहा गया है कि जूलियन असांज ने जनहित में सही सूचनाएं छापीं तथा युद्ध अपराधों, भ्रष्टाचार और दुर्व्यवहारों को दुनिया के सामने रखा.

प्रोफ़ेसर मेलज़र ने स्पष्ट लिखा है कि इतने साल तक वे जूलियन असांज के विरुद्ध चल रहे दुष्प्रचार के प्रभाव में रहे और उन्हें भी लगता रहा था कि असांज पर लगाए जा रहे आरोप सही हैं, जबकि सच यह है कि यह सब उन अपराधों से ध्यान हटाने के लिए किया गया है जिन्हें असांज ने हमारे सामने उजागर किया है. लेख में चेतावनी दी गयी है कि अगर हमने इस अन्याय- जहां सच बोलना अपराध हो और ताक़तवर को दंडित नहीं किया जा सके- को नहीं रोका तो हम अपनी आवाज़ को सेंसरशिप तथा अपने भाग्य को अनियंत्रित उत्पीड़न के सामने समर्पित कर देंगे.     


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तमिलनाडु के सतानकुलम क़स्बे में पुलिस हिरासत में पिता-पुत्र की नृशंस हत्या ने देश में पुलिस तंत्र के आपराधिक चरित्र को फिर उजागर किया है. लॉकडाउन के दिनों में देश ने देखा कि किस तरह से लगभग हर राज्य में उन बेबस प्रवासी मज़दूरों को प्रताड़ित किया गया, जो अपना सब आसरा लुटाकर किसी तरह अपने गाँव लौटना चाहते थे. रसूखदार लोगों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले आम नागरिकों पर पुलिसिया अत्याचार एक सामान्य व्यवहार बन चुका है और ऐसे कुछ मामले ही चर्चा में आते हैं, पर कुछ दिन के बाद बिसार दिए जाते हैं. देश की संसद और राज्यों की विधानसभाओं में भी यह मुद्दा नहीं उठता तथा नागरिकों की चिंता में भी यह कोई अहमियत नहीं रखता. लिखने-कहने के लिए भले ही जयराज और बेनिक्स को ‘जॉर्ज फ़्लायड ऑफ़ इंडिया’ कह दिया जाए, पर सच यही है कि थोड़े हंगामे और रोष के बाद यह मामला भी भुला दिया जाएगा. ‘सब याद रखा जाएगा’ एक फ़ंतासी से ज़्यादा कुछ नहीं है.

यातना/यंत्रणा के पीड़ितों के समर्थन में अंतरराष्ट्रीय दिवस के मौके पर 26 जून को नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि 2019 में हमारे देश में हिरासत में 1731 लोग मारे गये. इनमें से 1606 मौतें न्यायिक हिरासत में तथा 125 पुलिस हिरासत में हुईं. पुलिस हिरासत में सबसे अधिक मौतें उत्तर प्रदेश (14), तमिलनाडु व पंजाब (11) तथा बिहार (10) में हुई थीं. इनके बाद मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली, ओडिशा, झारखंड, छतीसगढ़, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, हरियाणा, केरल, कर्नाटक, बंगाल, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और मणिपुर आते हैं. इन 125 मौतों में 93 की वजह कथित यातना/दुर्व्यवहार थी, जबकि 24 मौतें संदिग्ध स्थितियों में हुईं. पांच मौतों का तो कारण भी पता नहीं है. इस तादाद में 75 व्यक्ति ग़रीब और वंचित समुदायों से थे. इनमें 13 दलित व आदिवासी और 15 मुस्लिम थे, जबकि 35 को मामूली अपराधों के लिए हिरासत में लिया गया था. मरने वालों में तीन किसान, दो सिक्योरिटी गार्ड, दो ड्राइवर, एक मज़दूर, एक कबाड़ी बीनने वाला और एक शरणार्थी थे. साल 2019 में चार महिलाओं की भी पुलिस हिरासत में मौत हुई थी.     

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के आधार पर ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा तैयार रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2015 के बीच पुलिस हिरासत में 591 मौतें हुई थीं. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार 2017 में कम-से-कम 100 लोग पुलिस हिरासत में मारे गये. इनमें से 58 रिमांड पर भी नहीं थे यानी उन्हें अदालत में पेश भी नहीं किया गया था.     

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पुलिस तंत्र को प्रशिक्षित और संवेदनशील बनाने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है, लेकिन सबसे पहले यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हर मौत की समुचित जांच हो और दोषियों को सज़ा मिले, लेकिन जो देश फ़र्ज़ी मुठभेड़ों पर जश्न मनाता हो और जान से मार डालने को न्याय समझता हो, वहां यह संभव नहीं लगता. 


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अस्सी के दशक में रामसे ब्रदर्स और कुछ अन्य फ़िल्मकारों की ‘भुतहा’ फ़िल्में ख़ासा लोकप्रिय थीं, लेकिन उन फ़िल्मों को ‘सी ग्रेड’ कहा जाता था. फिर एक लंबा दौर गुज़रा, जब वैसी फ़िल्में बनना बंद हो गयीं, जो गाँवों में पुरानी हवेलियों और मंदिरों से जुड़ी होती थीं, जहां किसी भूत, प्रेत या भटकती आत्मा का डेरा होता था. कुछ फ़िल्में सस्पेंस, हॉरर या डर के मनोविज्ञान पर बनीं, लेकिन भूतों और चुड़ैलों का वह जलवा नज़र नहीं आया, जो कभी हुआ करता था.

बहरहाल, ‘स्त्री’, ‘घोस्ट स्टोरीज़’, ‘तुम्बाड़’, और अब ‘बुलबुल’ ने कुछ समय से एक बार फिर डरावनी फ़िल्मों का सिलसिला शुरू किया है. ऐसी फ़िल्मों की कहानियां ऐसी होती हैं, जो पहले कई बार सुनी और देखी जा चुकी हैं, इसलिए सारा दारोमदार फ़िल्मकार और कथानक लेखक के काँधे पर रहता है कि वे किस तरह दर्शकों की दिलचस्पी को बनाये रखते हैं. इस मामले में नये निर्देशक व लेखक उम्दा काम कर रहे हैं. दो साल पहले आयी ‘स्त्री’ निर्देशक अमर कौशिक की पहली फ़ीचर फ़िल्म थी. फ़िल्म ने न केवल दर्शकों और समीक्षकों की प्रशंसा बटोरी, बल्कि लागत से लगभग दस गुना अधिक कमाई भी की. इसे राज निधिमोरू और कृष्णा डीके ने लिखा था.

राही अनिल बर्वे की ‘तुम्बाड़’ भी 2018 में आयी थी और तब से सिनेप्रेमी उसकी चर्चा कर रहे हैं. इस फ़िल्म को देश में ही नहीं, विदेश में अनेक सम्मानित फ़िल्म समारोहों में सराहना मिली है. इसकी कहानी मराठी के जाने-माने साहित्यकार नारायण धरप ने लिखी है, जिसे निर्देशक ने वर्षों की मेहनत से एक नायाब शाहकार बना दिया है. फ़िल्म के दृश्यांकन और डिज़ाइन जिस स्तर के हैं, वह भारतीय सिनेमा में एक बड़ी उपलब्धि है और इस नाते इसे बहुत अरसे तक याद रखा जाएगा. ‘घोस्ट स्टोरीज़’ चर्चित निर्देशकों की लघु फ़िल्में हैं और उनका हॉरर में हाथ आज़माना यह जताता है कि ऐसी फ़िल्में हमेशा सिनेमा में बनायी जाती रहेंगी, जैसे कि साहित्य या लोक गाथाओं में भूतों की कथाएं निरंतर कही जाती रही हैं.

इस कड़ी में अब अन्विता दत्त की ‘बुलबुल’ आयी है. बर्वे और कौशिक की तरह दत्त की भी यह पहली फ़िल्म है. कोरोना संकट से ग्रस्त हमारे समय में इस फ़िल्म का भी सिनेमाघरों में प्रदर्शित होना संभव नहीं था, सो इसे नेटफ़्लिक्स पर लाया गया है. समीक्षकों ने इसे एक अच्छी फ़िल्म तो बताया ही है, सोशल मीडिया पर दर्शक भी इसकी ख़ूब बड़ाई कर रहे हैं. जैसा कि ऊपर कहा गया है, अनगिनत कहानियों की तरह ‘बुलबुल’ में भी एक ‘चुड़ैल’ लोगों की हत्या करती है और उसकी सच्चाई किसी को पता नहीं चल पाती. ‘तुम्बाड़’ की तरह ‘बुलबुल’ की डिज़ाइन कमाल की है और दर्शकों को बांधे रखने में यही सबसे असरदार है. राहुल बोस, तृप्ति डिमरी, अविनाश तिवारी, पाओली दाम आदि कलाकारों के काम तथा अमित त्रिवेदी के संगीत को भी शानदार कहा जाना चाहिए, पर असली खेल निर्देशक और संपादक का है.

महान फ़िल्मकार सत्यजित रे कहा करते थे कि फ़िल्में एडिटिंग टेबल पर बनती हैं. अन्विता दत्त के निर्देशन और सिद्धार्थ दीवान की फ़ोटोग्राफ़ी को रामेश्वर भगत ने ऐसी कुशलता से संपादित किया है कि फ़िल्म की कहानी सपाट लोक गाथा से असरदार सस्पेंस थ्रिलर बन जाती है. फ़िल्म उन्नीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में एक ज़मींदार परिवार की कहानी है. अंग्रेज़ी शासन के क़ायदों और आधुनिकता के बढ़ते असर से पुराने सामंती ढांचे में दरार आने लगी थी. पुराने सामाजिक और पारिवारिक मूल्य संकटग्रस्त होने लगे थे. इस परिवेश में उस परिवार की एक बहू, जिसका विवाह उससे बहुत अधिक आयु के लगभग अधेड़ से बचपन में ही हो गयी थी, अपने साथ होने वाले अन्यायों का प्रतिकार करती है.

‘बुलबुल’ और ऊपर चर्चा में आयी कुछ फ़िल्में इसलिए अहम तो हैं ही कि निर्देशकों, लेखकों, कैमरा संचालकों, कलाकारों, संपादकों आदि की नयी पौध अपने व्याकरण के साथ सिनेमा का दरवाज़ा खटखटा रही है और इस तरह वे एक नये दौर की आहट दे रहे हैं. इन्हें इसलिए भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि इनकी फ़िल्में संदेश और समझ का प्रसारण भी बख़ूबी करती हैं. यह करते हुए उपदेशात्मक भी नहीं होतीं और न ही फ़िल्म के अंत को बोझिल या साधारण करती हैं. इन सभी युवा फ़िल्मकारों ने आनन-फ़ानन में इन फ़िल्मों को नहीं बनाया है, बल्कि अपनी कहानी को कई साल तक पकाया है. 



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