अगर मेरे या आपके पास या हमारे आसपास के बहुत सारे लोगों के पास या उनके भी आसपास के बहुत सारे लोगों के पास किसी समस्या का कोई उचित निदान नहीं है तो यह इत्मीनान कैसे किया जाय कि मुझसे, आपसे और हमारे आसपास के कई लोगों और उनके भी आसपास के तमाम लोगों और उनके भी और इस तरह इस कड़ी के दायरे-विस्तार को बढ़ाते हुए अंतत: पूरे देश के लोगों और उनसे ही बनी सरकारों के पास क्या वाकई किसी समस्या का कोई उचित निदान होगा?
पढ़ाया, बताया और समझाया तो यही गया है कि जम्हूरियत जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए होता है। सवाल है कि जब जनता का है तो वैसा ही न होगा जैसी जनता है! या जनता द्वारा है तो है भी वैसा ही होगा जैसी जनता है! जनता द्वारा इस बार आलू की फसल उगायी गयी तो क्या खाकर जम्हूरियत आलू के बजाय प्याज की जम्हूरियत हो जाएगी? बताइए भला!
अब सवाल है ‘जनता के लिए’ का, तो यहां आकर बात उलझ जाती है। जनता के लिए, जनता की, जनता द्वारा चुनी या बनायी गयी जो सरकार है वह ऐसा क्या कर दे कि लगे कि उसने जनता के लिए कुछ ऐसा किया है जो जनता चाहती है या नहीं भी चाहती है? सबसे बड़ी बात है कि उस देशकाल में सरकार ने जो जनता के लिए किया या करने की कोशिश की या करने के बारे में सोचा, क्या वही सबसे उपयुक्त और अभीष्ट था?
इस बात के संभवतया अनेकानेक जवाब हो सकते हैं। जनता क्या चाहती है? जनता की इस चाह का निर्माण कहां होता है? जनता को अपने जीवनकाल में कब ऐसा लगता है कि उसे अपनी सरकार से कुछ चाहिए और कुछ ऐसा चाहिए जो वाकई उसकी बेहतरी के लिए ज़रूरी है? जनता की मांग किसी जम्हूरियत का बुनियादी ढांचा है।
बात बोलेगी: ‘लोक’ सरकारी जवाब पर निबंध रच रहा है, ‘तंत्र’ खतरे के निशान से ऊपर बह रहा है!
‘राइट टु डिमांड’ शब्द का इस्तेमाल जम्हूरियत जैसी किसी व्यवस्था के वजूद में आने से पहले की दार्शनिक स्थापना रही है, लेकिन क्या जनता का सरोकार खुद से उतना ही है जितना उसके द्वारा, उसके लिए और अंतत: उसकी ही सरकार का उसके प्रति है?
लगता तो नहीं। अगर ऐसा होता तो अपनी नियति को इस कदर जनता ने उसके सामने रेहन पर न रख दिया होता जिसे सिद्धांतत: जनता ने अपने लिए बनाया था। कई बार हम जनता को 1984 (जॉर्ज ऑरवेल) का विंस्टन हो जाना चाहिए जो इस तलाश में लगी रहे कि कोविड के आने से पहले की कोई स्मृति उसके पास बची है या नहीं? 2020 के पहले हुए किसी आंदोलन की कोई डॉक्युमेंटरी देखते हुए अचानक एक सहकर्मी झुँझला उठा- ”अरे देखो, इन सब ने मास्क नहीं पहना है”। किसी पुराने एकदिवसीय क्रिकेट मैच का रिपीट ब्रॉडकास्ट हो रहा था। कैमरा जब दर्शकदीर्घा में पहुंचा तो एक व्यक्ति हमारे बीच का चिल्लाया कि- ”इन्हें देखो कैसी छूट मिली हुई है, बिना मास्क बैठे हैं सब?” यहीं कहीं डॉ. देवेंद्र बल्हारा भी दिख गए जो शुरुआत से ही जनता को जागरूक करते हुए घूम रहे हैं कि मास्क न लगाकर भी कोविड से बचा जा सकता है। खबर है कि उन्हें पंजाब पुलिस ने जेल में डाल दिया है।
मास्क पहनना अब मास हिस्टीरिया में बदल चुका है। यह इतनी तेज़ गति से बदला है कि सरकार के पालतू मीडिया को भी अपनी सड़ी हुई बदबूदार विश्वसनीयता बचाने के लिए इस पर डिबेट करने की जरूरत महसूस होने लगी है। दिलचस्प ढंग से दिल पर कई-कई मन का पत्थर रखकर उसे यह पूछते हुए देखा जा रहा है कि लोग सवाल तो करेंगे ही कि प्रधानमंत्री किसी भी सार्वजनिक जगह पर मास्क क्यों नहीं लगाते? यह हिस्टीरिया ही है जो इस सेक्युलर देश को एक कुंठित और आपराधिक साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद में बदल रहा है। यह हिस्टीरिया सबको मास्क पहना रहा है। तीन रंगों का, जुबान पर जय श्रीराम का और दिल में सह-नागरिकों के लिए रक्तपिपासु कुंठाओं का मास्क। ये तीन रंग जो पहले ही बक़ौल धूमिल थके हुए थे अब नए सिरे से इस हिस्टीरिया की उत्तेजना में कातिलाना हुए जा रहे हैं। तीन रंगों ही, क्या प्रकृति के दिये सभी रंगों में किसी न किसी तरह का हिस्टीरिया है जो उन्हें उत्तेजना की स्याही में रंग रहा है। उनके रंग निखरते हुए दिख रहे हैं लेकिन असल बात है कि उनके रंग उतर रहे हैं। हम रंगों को उतरते हुए देख रहे हैं।
हमें रंग मिले हैं। प्रकृति ने दिये हैं। हमने उन्हें बनाया या रचा या गढ़ा नहीं है। हमने उनका इस्तेमाल किया है। हमने उन्हें बरता भर है। और एक दिन हमने प्रकृति को जीत लिया- इतना जीत लिया कि अब उसे भी बचाने की नौबत आन पड़ी? हमने गुहार लगानी शुरू की- ”ओह, कम ऑन, सेव द अर्थ”… “ओह कम ऑन, जॉइन अस टु सेव द प्लैनेट”! कमाल है! आजकल हम बाई द वे अपनी जम्हूरियत को भी बचाने के लिए एड़ी-चोटी एक किए हुए हैं, लेकिन यहां हम उनसे यानी जनता से अलग हैं जिसने ऐसी जम्हूरियत रच ली है। लगन से। मेहनत से। जुनून से। कुंठा से तो हसरत से भी। बदले की भावना से और श्रेष्ठता के अहंकार से और यहां जनता हमसे और हम जनता से अलग हो गए। फिर दोष हमारे ऊपर आया कि हम जनता की भाषा में उसके मुहावरे में नहीं सोचते-बोलते। जो इस तरह सोचते हैं वो जनता का दिल जीतते हैं और जम्हूरियत को अपनी चेरी बना लेते हैं।
बात बोलेगी: स्मृतियाँ जब हिसाब मांगेंगीं…
तो जो जनता की भाषा में, जनता के मुहावरे में सोचते हैं और जनता का दिल जीतते हैं और जम्हूरियत को अपनी दासी बना लेते हैं तो इसका कुल जमा मतलब तो यही हुआ न कि जनता ठीक वैसा ही सोचती है और उसी मुहावरे में बात करती है जैसा ये लोग करते हैं। इस मुकम्मल समीकरण में जहां समस्या का बायां पक्ष दायें पक्ष के बराबर हो जाय तो कौन सा फार्मूला लगाएं कि इस मुकम्मल हो चुके समीकरण में कोई गणितीय टांग फंसा पाएं? हेन्स प्रूव्ड क्या गणित का पूर्ण विराम नहीं है?
जनता अब जम्हूरियत की चाभी नहीं, उसकी चेरी है। और हम जनता की तरफ से जनता के लिए जनता द्वारा चुनी गयी इस भूमिका को जम्हूरियत बतलाते हुए इसे इसके पुराने वैभव में लौटाने के लिए इसे बचाने पर आमादा हैं।
जनता दूर खड़ी ठिठोली कर रही है। उसकी स्मृतियां मिटायी जा चुकी हैं। स्मृतियां केवल किसी देश का नागरिक बने रहने की ही अर्हताएं नहीं हैं बल्कि यह इंसान होने की बुनियादी शर्त है। एक दार्शनिक सवाल अब और ज़्यादा मुखरता से प्रकट होने लगा है कि- क्या किया जाये अगर यह सिद्ध करना हो कि ये दुनिया अभी महज़ पांच मिनट पहले ही वजूद में आयी है? तब के दार्शनिकों ने कहा– सिंपल, स्मृतियां इरेज़ कर दो। फिर क्या फर्क पड़ता है कि किसी की उम्र मुझसे कितना ज़्यादा या कम है!
कोविड ने यही काम किया है और इसी काम में अनवरत लगा हुआ है। विशाल झा या श्वेता सिंह इसके नए शाहकार हैं, जिन्हें इस जनता ने अपनी जम्हूरियत के कर कमलों से गढ़वाने का काम किया है। श्वेता सिंह या विशाल झा अकेली नस्ल तो नहीं हैं जो स्मृतियों से रिक्त किसी ऐसे उद्याननुमा देश की कल्पना में रत हैं जहां सिर्फ एक रंग के फूल खिलेंगे या केवल उसी रंग के फूलों को खिलने दिया जाएगा। इन फूलों का रंग शायद भगवा होगा। शायद नहीं, पक्का। है न? और विशाल या श्वेता ही क्यों? क्यों नहीं नरेंद्र मोदी या आदित्यनाथ अनुपयोगी? हम क्यों मानते रहते हैं कि ये शिकारी ही हैं? क्यों नहीं ये खुद इस स्मृतिध्वंस का शिकार हो सकते हैं। अगर ऐसा न होता तो मनुष्य होने की बुनियादी शर्तों पर अपनी ज़िंदगी जी रहे होते। कभी इंसानियत की बात करते। दिलचस्प बस इतना है कि एक स्मृतिध्वंस का शिकार हो चुके ये लोग शिकार कर रहे हैं। ऐसे में अब ये पता लगाना और भी ज़रूरी हो जाता है कि असल शिकारी कौन हैं?
इसके बारे में एक खबर आ रही है कि दुनिया भर के नामी-गिरामी जनस्वास्थ्य के पैरोकारों के विरुद्ध जनसंहार करने को लेकर अंतरराष्ट्रीय क्रिमिनल कोर्ट में एक याचिका दायर की गयी है। इसके जरिये उन असल शिकारियों की शिनाख्त की गयी है जो न केवल भौतिक रूप से जनसंहार के दोषी हैं बल्कि मनुष्य की बुनियादी और मौलिक प्रकृति की हत्या के भी। खबर को उस तरह पढ़ा जाये जैसे कभी इंसान इस कोविड के पहले खबरों को पढ़ा करते थे, तो शायद मगज में जाए और कुछ बात बने।
(शीर्षक नोमान शौक़ के एक शेर का टुकड़ा, कवर तस्वीर 2019 की अंग्रेजी फिल्म ‘मास हिस्टीरिया’ का पोस्टर )