बात बोलेगी: एक ‘सिविल सोसायटी’ के राज में दूसरे का ‘वध’ और तीसरे का मौन


सिविल सोसायटी के भीतर ‘सिविल सोसायटी’ शब्द एक बार फिर से चर्चा में है। एक लोकतान्त्रिक देश जो नागरिकों का है, नागरिकों के द्वारा है और नागरिकों के लिए ही वजूद में है, वहां सिविल सोसायटी या नागरी समाज का भिन्न-भिन्न कारणों से चर्चा में आना इस बात का पुख्ता सबूत है कि तमाम मान्यताओं और स्थापनाओं के बावजूद इस देश में नागरिक और उसके समाज में अब भी बहुत निकटता नहीं है। पूरा समाज अभी नागरिक समाज नहीं हुआ है। बस कुछ लोग हैं जो नागरिक समाज का सृजन करते हैं और उसमें निहित आंतरिक शक्तियों का अभ्यास करते हैं।

प्राय: लोग ‘नागरी समाज’ का अर्थ इसके पहले शब्द से लगाते हैं- जो नगरों में रहता है वो नागरी समाज का हिस्सा है। इसके पक्ष में वो किसी तजुर्बेदार की कही वह सूक्ति उद्धृत करते हैं जिसे बात में दिव्यता लाने के लिए टूटी-फूटी संस्कृत में कुछ इस तरह कहा गया था- ‘गाँव बसन्ति भूतानाम, नगर बसन्ति देवानाम’ अर्थात गांवों में भूत और नगरों में देवता निवास करते हैं। यह ठीक वैसा भाव है जिसे अंग्रेजी में ‘लिटरल’ यानी शाब्दिक कहा जाता है। यहां उस तजुर्बेदार का तात्पर्य ऐसे लोगों से रहा होगा जो शहरों, नगरों और महानगरों में रहते हैं, सुशिक्षित हैं, जागरूक हैं, आधुनिक हैं, जात-धर्म से बिलांग भर ऊपर हैं और अखबारों, पत्रिकाओं, टेलीविज़न आदि से जुड़े हैं आदि, आदि। 

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आम मान्यता यह है कि इस देश में जन्म लेने वाला हर व्यक्ति इस देश का नागरिक है (कम से कम राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर- एनआरसी की चर्चा से पहले तक) और 18 वर्ष की उम्र पूरी कर चुका हर व्यक्ति एक मतदाता है। यानी जो तमाम जन्मजात नागरिक हैं और एक आयु के बाद मतदाता हैं और अपनी सरकार बनाते हैं, वो इस सिविल सोसायटी का हिस्सा नहीं हैं। इसीलिए जब 29 सितंबर, 2020 को भारत के राजपत्र में विदेशी अनुदान से सम्‍बंधित कानून में बलात् संशोधन होते हैं, तो उसे सिविल सोसायटी पर हमला तो कहा जाता है लेकिन उस हमले से देश के तमाम नागरिक चिंतित या भयभीत नहीं होते हैं, बल्कि इस पर कोई चर्चा भी नहीं करते। यह चर्चा, चिंता, भय आदि सब उन्हें व्यापते हैं जो किन्हीं अन्य वजहों से नागरिक समाज के लोग कहे जाते हैं या जिनसे मिलकर एक नागरिक समाज का गठन होता है।

इनमें कुछ वजहें ये हैं- एक पंजीकृत संस्था का सदस्य होना, उनका लोगों के बीच काम करना, स्वैच्छिक, गैर-सरकारी, अ-लाभकारी, अमर्यादित (नॉन-लिमिटेड होने के अर्थ में) होना। समाज में मौजूद नागरिकता और मतदाता की परिभाषा को आत्मसात करते हुए जागरूक हो चुके लोग, जो वैज्ञानिक चिंतन पद्धति से सोचते हैं; संगठित होने के अधिकार, बोलने के हक़-अधिकार, न्याय, समता, समानता, अभिव्यक्ति और अंतत: हर इंसान के गरिमापूर्ण जीवन जीने के संवैधानिक निर्देशन के अनुसार चेतना के प्रसार में मुब्तिला; और संविधान को सर्वोपरि मानते हुए उसके अनुसार देश के सीमित-असीमित दायरे में काम करने को आतुर; लोग जिस समाज को निर्मित करते हैं, उसे हिंदुस्तान में सिविल सोसायटी के नाम से जाना जाता है। इसका मतलब कहीं आप ये तो नहीं लगा रहे हैं कि जो लोग इस तरह के कामों में मुब्तिला नहीं हैं वो इस सिविल सोसायटी का हिस्सा नहीं हैं? ज़्यादातर लोग ऐसा ही समझते हैं।

इस तरह के नागरी समाज में शामिल होने की जो अहर्ताएं यहां बतायी गयी हैं, उसमें देश की तमाम आबादी क्यों शामिल नहीं हो पायी यह एक अलग चिंता का हिमालय हो सकता है, लेकिन सच्चाई तो यही है। ऐसे में यदि बाकी लोग इसमें शामिल होना चाहें तो वो क्या और कैसे कर सकते हैं? इसका जवाब शुरू होता है खुद को नागरिक मान लेने से। नागरिक कैसा? जैसा होने और बनने की उम्मीद देश का संविधान आपसे करता है। अब कोई इस पर सहज पूछ सकता है- “लेकिन मैं भी तो वही सब करता हूं जो बातें आपने ऊपर बतायी हैं?” बिल्कुल सही, लेकिन क्या आप किसी पंजीकृत संस्था से जुड़े हैं?

इस सवाल का जवाब हाँ भी हो सकता है और नहीं भी। इसका मतलब यह है कि देश में दो तरह के नागरी समाज एक ही समय में एक साथ हो सकते हैं- एक पंजीकृत और दूसरा अपंजीकृत। अगर आपका जवाब ‘ना’ में है, तो आप ऊपर वर्णित ‘पंजीकृत नागरी समाज’ का हिस्सा नहीं हैं जिस पर देश की संघीय सरकार ने इधर बीच प्राणघातक हमला किया है। इसीलिए आपको इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। इस ‘पंजीकृत नागरी समाज’ के साथ हिंदुस्तान की जनता ने निदा फाजली साहब और उनकी उर्दू की तरह बर्ताव किया है। सोचिए, रजिस्टर्ड सिविल सोसायटी ने अपने दायरे में काम करते हुए लोगों को सब मामलों में जागरूक किया, सिवाय अपने होने के मामले में। इसलिए लोग इन्हें भांति-भांति के लोगों में से ही एक भांति का मानते रहे। इस तरह के लोगों की बोली, वाणी, विचार, ख्याल सबको पसंद किया गया लेकिन इनके वजूद से वो निस्बत न बांध पाए। बिल्कुल उर्दू की ही तरह, जिसे पसंद तो किया हमने, सुनने-बोलने में उसकी शाइस्तगी के मुरीद भी हुए हम पर कुछ ऐसा रह गया कि उसके हो न सके। इसी के लिए निदा साहब ने कहा था- “सब मेरे चाहने वाले हैं मेरा कोई नहीं, मैं भी देश में उर्दू की तरह रहता हूं।“

यही हाल सिविल सोसायटी का है- चाहिए सबको, लेकिन अपना कोई नहीं मानेगा इसे। इस नागरिक समाज के हिस्से में सब तरफ से तोहमतें ही ज़्यादा आयीं। कौन हैं ये लोग? कहां से आते हैं? जैसे सवाल उस समाज में भी बने रहे जिनका हिस्सा और जिनकी स्व-नियुक्त नुमाइंदगी ये लोग करते रहे। अगर मैं एक ऐसी पंजीकृत सिविल सोसायटी का हिस्सा हूं और 20 वर्षों से यहीं हूं तो भी मेरे पिता को मैं यह नहीं बता पाता कि मैं क्या बला हूं, क्या करता हूं, क्यों करता हूं, किसके लिए करता हूं। यहां तक तो ठीक है। पिता तो पिता हैं, कम-ज़्यादा समझ लेंगे। असल दिक्कत उनके सामने है कि वो किसी को नहीं समझा पाते कि उनका पढ़ा-लिखा बेटा करता क्या है! कई बार तो लोग इतना कहकर परिचय करा देते हैं कि दिल्ली में रहता है, कुछ करता है। वहीं खड़े डॉक्टर, इंजीनियर को तो कुछ और कहने की ज़रूरत नहीं है- नाम ही काफी है। बहरहाल, इससे याद आया कि अपनी आवासीय सोसायटी में नेमप्लेट पर अपना तार्रुफ़ कैसे कराया जाए? एडवोकेट, डॉक्टर, इंजीनियर, सीए, प्रोफेसर का तो बढ़िया है। यहां हम क्या लिखें कि हमारे काम का पढ़ने वाले को पता चले? खैर, ये सब बस ऐवेईं लिखा गया। ऐसे-वैसे ख्याल कई बार सेमीनारों से बेहतर रिजल्ट दे जाते हैं।

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अब आते हैं ज़ेर-ए-मुद्दे पर। इन दोनों के अलावा एक और सिविल सोसायटी है- देश की सबसे बड़ी सिविल सोसायटी जिसका पंजीकरण गुप्त है, दान भी गुप्त है और उनका काम भी लंबे समय तक गुप्त रहा। वे सिविल नहीं हैं बल्कि अतीतजीवी हैं, जो समाज को वापिस वहां ले जाना चाहते हैं जहां ‘इनके अच्छे दिन थे’। हिंसा, घृणा, नफरत, वैमनस्य, संकीर्णता आदि का प्रसार समाज में करते हैं। ये कौन लोग हैं? बताते हैं, लेकिन इसके लिए पहले दस साल पीछे चलना पड़ेगा। यह आम धारणा है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए की सरकार में सोनिया गांधी ने सिविल सोसायटी के लोगों को जोड़कर एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) बनायी थी, जिसके कहने पर मनमोहन सरकार चलती थी। तमाम नियम विधान (अच्छे-अच्छे) इन्हीं के कहने पर बनते थे। कहा जाता है कि इन लोगों ने एक समय में बहुत मलाई खायी है। अब ‘न्यू इंडिया’ है। यहां इनकी ज़रूरत नहीं है। परामर्श की ज़रूरत तो है, लेकिन इस समाज से नहीं जो ऊपर विस्तार से वर्णित है। क्यों?

इसके पीछे कई कारण गिनाये गये, इल्जाम लगाये गये- कहा गया कि सिविल सोसायटी देश को भीतर से खोखला कर रही है; आतंकवाद से लेकर धर्मांतरण वाया उग्रवाद, नक्सलवाद आदि आदि को खुला समर्थन कर रही है; इसके तार विदेशों से जुड़े हैं; अनुदान के नाम से आए फंड का इस्तेमाल पता नहीं ये कहां-कहां करते हैं; वगैरह वगैरह। सरकार इनकी बोलने की आदत से तंग आ गयी है। उधर अडानी से लेकर अंबानी और पास्को और वेदांता जैसे शरीफ़ लोग और कंपनियां हलकान हुई जा रही हैं कि ये सिविल सोसायटी तो गांव में जाकर लोगों को उनके अधिकारों के पाठ पढ़ाती है। ये लोग आदिवासियों को यह समझाते हुए भी पाये गये कि तुम लोग हिन्दू नहीं हो। एक जगह तो आदिवासियों ने अपना गणराज्य ही घोषित कर दिया। कहीं बेटी जला दो तो हाय हाय, कहीं अल्पसंख्यकों को थोड़ा टाइट करो तो हाय हाय, कानून बना नहीं कि कानून के पैम्‍फलेट हाजिर कर देते हैं ये लोग।

यही वजह है कि इस समाज पर प्राणघातक हमला किया गया है। इनसे निपटने का एक ही तरीका था कि इनके विदेशी तारों और वहां से मिलने वाले अनुदान पर हमला करो। न रहेगा फंड न बजेगा इनका भोपूं। और आ गया एफसीआरए संशोधन। कहा जा रहा है कि इससे ‘अच्छे एनजीओ’ को इनकी संगत से बचाया जा सकेगा और उन्हें नुकसान पहुंचाए बगैर इन सबों को सबक सिखाया जाएगा।

अब ज़रा तमीज़ से इन कही जाने वाली तमाम बातों पर कान दें और इसका मिलान इस सरकार की पैदाइश से कीजिए। क्या आपको नहीं लगता कि आप उस विराट और छतनार पेड़ जैसी सिविल सोसायटी के नीचे हैं जिसने देश की सरकार, मीडिया, न्यायपालिका, नौकरशाही और तमाम जिंदा-मुर्दा संस्थाओं को अपने कब्जे में ले लिया है? ये वही ऊपर बतायी गयी तीसरी श्रेणी वाली सिविल सोसायटी है जो मूल रूप से अनसिविल है- देश की सबसे बड़ी सिविल सोसायटी, सरकार जिसके कहे अनुसार काम करती है; जिसने सरकार चला रहे राजनैतिक दल को मुर्गी की तरह अंडे को ताप देकर पैदा किया है। इस अनसिविल सोसायटी की हजारों शाखाएं हैं- झोला, थैला लेकर चलने वालों की भी और सूट-बूट पहनने वालों की भी। संस्कृत बोलने वालों की भी, हिन्दी बोलने वालों की भी, अंग्रेजी बोलने वालों की भी। नहीं समझे तो नाम लिया जाय! नोट कीजिए- वनवासी कल्याण आश्रम से लेकर विवेकानंद फ़ाउंडेशन तक।

अभी ये जो कानून आए हैं पंजीकृत नागरी समाज को नेस्तनाबूत करने के, वो आपको लग सकते हैं कि सरकार लायी है लेकिन असल बात ये है कि इन्हें यह अनसिविल सोसायटी लायी है ताकि सिविल सोसायटी का वध किया जा सके (वध इनका प्रिय शब्द है)। ये वध करते हैं, हत्या नहीं। हत्या में पाप लग सकता है। वध एक धर्मानुमोदित कर्तव्य है। वैदिकी है। तो असल में यह वध-अनुष्ठान एक अनसिविल सोसायटी ने किया  है। अब और क्या कहें? आप सिविल रहेंगे तो इंशाल्लाह समाज भी सिविल हो जाएगा। उसके लिए ज़रूरी है कि इस छतनार पेड़ को पहचान लिया जाय और तशरीफ़ किसी और पेड़ के नीचे ले जायी जाय।



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