इस समय हिंदुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया के लीगल वर्ल्ड यानी वैधानिक दुनिया में सबसे बड़ा इंतजार दिल्ली से आने वाली खबर का है। और वो खबर ये है कि प्रशांत भूषण के साथ क्या होने वाला है। भारत का सुप्रीम कोर्ट उनकी सिद्ध गुस्ताखी के लिए उन्हें क्या सजा सुनाता है। वो उन्हें जेल भेज देगा? या फिर छोड़ देगा। अदालत का फैसला कुछ भी हो लेकिन प्रशांत भूषण हीरो हो चुके हैं। सबसे पहले समझ लीजिए सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें अवमानना का गुनहगार बताते हुए लिखा क्या था। इसके बिना आप न्यायिक दुनिया की दुविधा और चुनौतियों को नहीं समझ सकते।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा था:
“पहली नज़र में हमारी राय ये है कि ट्विटर पर प्रशांत भूषण के बयानों से न्यायपालिका की बदनामी हुई है और सुप्रीम कोर्ट और ख़ास तौर पर भारत के चीफ़ जस्टिस के ऑफ़िस के लिए जनता के मन में जो मान-सम्मान है, ये बयान उसे नुक़सान पहुंचा सकते हैं।”
प्रशांत भूषण का वो ट्वीट या बयान क्या था जिस पर सुप्रीम कोर्ट की त्योरियां चढ़ गईं? भूषण ने ट्वीट किया था:
“जब उच्चतम न्यायालय लॉकडाउन की अवस्था में नागरिकों को न्याय के उनके मौलिक अधिकारों से वंचित कर रहा है तब नागपुर स्थित राजभवन में प्रधान न्यायाधीश बगैर मास्क या हेलमेट के भाजपा नेता की 50 लाख की मोटरसाइकिल की सवारी कर रहे हैं।”
लिमिटेड एडिशन यानी सीमित संस्करण वाली सीवीओ 2020 हार्ले डेविडसन बाइक पर बैठे हुए चीफ जस्टिस की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई थी। इसके बाद से वो तस्वीर चर्चा में थी। और वो तस्वीर प्रशांत भूषण ने नहीं खींची थी। तो फिर प्रशांत भूषण ने न्यायिक दुनिया को इतना बेचैन क्यों कर दिया है? दरअसल कोर्ट को उम्मीद थी कि प्रशांत भूषण अपने लिखे पर शर्मिंदा होंगे और इसके लिए माफी मांगकर छूटना चाहेंगे। लेकिन हुआ उल्टा। प्रशांत भूषण अपनी बात पर अड़ गए।
उन्होंने अपने हलफनामे में कहा कि “पिछले तीन महीने से भी ज़्यादा समय से सुप्रीम कोर्ट का कामकाज सुचारू रूप से न हो पाने के कारण वे व्यथित थे और उनकी टिप्पणी इसी बात को जाहिर कर रही थी।” उनका कहना था कि “इसकी वजह से हिरासत में बंद, ग़रीब और लाचार लोगों के मौलिक अधिकारों का ख्याल नहीं रखा जा रहा था और उनकी शिकायतों पर सुनवाई नहीं हो पा रही थी।” लोकतंत्र की बर्बादी वाले बयान पर प्रशांत भूषण की ओर से ये दलील दी गई कि “विचारों की ऐसी अभिव्यक्ति स्पष्टवादी, अप्रिय और कड़वी हो सकती है लेकिन ये अदालत की अवमानना नहीं कही जा सकती।”
इसके साथ ही लोकतंत्र में नागरिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आजादी और न्यायपालिका के रिश्ते पर बहुत बड़ी बहस शुरू हो गई। इस बहस में सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व जज, नामी वकील, दिग्गज नेता और नागरिक समूहों के बड़े चेहरे शामिल होते चले गए। पूर्व जस्टिस मदन लोकुर ने यहां तक कह दिया कि “अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट और उसके जजों पर राष्ट्रपति सैकड़ों साल से हमले कर रहे हैं लेकिन दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी भी न तो अमेरिकी न्यायपालिका की बुनियाद को हिला सका और न ही संवैधानिक लोकतंत्र की बुनियाद अस्थिर हुई। और यहां आप प्रशांत भूषण को नहीं झेल पा रहे हैं।” जस्टिस लोकुर तो यहां तक गए कि “सुप्रीम कोर्ट ने प्रशांत भूषण के अवमानना केस में फैसला सुनाते हुए जो राय जाहिर की है वो न केवल दुर्भावनापूर्ण है बल्कि फूहड़ भी।”
दुष्यंत दवे ने तो मुंबई मिरर में बाकायदा गांधी को सुप्रीम कोर्ट के सामने रख दिया जिन्होंने गोरी हुकूमत के मुकदमे में अपने बचाव में कहा था कि आप दया और उदारता मत दिखाइए, सजा दीजिए। इसका जिक्र प्रशांत भूषण ने भी अपने जवाब में किया है।
दरअसल, किसी को अंदाजा नहीं था कि ये मामला इतना बड़ा हो जाएगा लेकिन जब बात प्रशांत भूषण को जेल भेजने तक आ गई तब नामी-गिरामी हस्तियां और समूह इस बहस में शामिल होते चले गए कि मुख्य न्यायाधीश की 50 लाख की मोटरसाइकिल की सवारी और लाखों प्रवासी मजदूरों के पैदल मार्च पर देश में छायी हुई खामोशी के बीच आई प्रशांत भूषण की चुभने वाली टिप्पणी क्या जजों और सुप्रीम कोर्ट के अपमान के दायरे में आती भी है?
जैसे-जैसे ये बहस बढ़ी वैसे-वैसे प्रशांत भूषण हीरो बनते चले गए। मतलब अदालत जिसे न्यायिक गरिमा का सिद्ध खलनायक मानती है वो न्यायिक शुचिता के नायक के तौर पर उभरने लगा। यही बात सरकार को परेशान कर रही है। उसे लगता है कि किसी भी तरह से प्रशांत भूषण को हीरो बनने से रोका जाए। इसीलिए अटॉर्नी जनरल तक को देश की सबसे ऊंची अदालत से अपील करनी पड़ती है कि मीलॉर्ड! प्रशांत भूषण को बख्श दिया जाए। उन्हें कोई सजा न दी जाए। ये हैरान करने वाली घटना थी क्योंकि उनसे उम्मीद की जाती है कि वो जजों और सुप्रीम कोर्ट के रुख का नैतिक और कानूनी तौर पर बचाव करेंगे।
अदालत सोच में पड़ जाती है और किसी गरिमापूर्ण रास्ते को टटोलने के खयाल से कहती है कि “हमने अवमानना के दोषी को बिना शर्त माफी मांगने के लिए समय दिया है। वो चाहे तो 24 अगस्त तक ऐसा कर सकता है। अगर माफीनामा जमा होता है, तो उस पर 25 अगस्त को विचार किया जाएगा।” प्रशांत भूषण ने खड़े-खड़े कह दिया कि उनके बयान में कोई बड़ा बदलाव नहीं होगा और इससे कोर्ट के समय की बर्बादी होगी। उनके इस बयान का अर्थ अदालत चाहे जो निकाले। इससे प्रशांत भूषण की छवि एक ऐसे न्यायिक योद्धा की बनी जो अभिव्यक्ति के अधिकार, यानि आर्टिकल-19 को बचाने के लिए सर्वोच्च संस्थानों से भी जिरह कर सकता है। साथ ही किसी भी तरह का जोखिम लेने के तैयार है जबकि वो आराम से माफी मांगकर छूट सकते थे।
कंटेम्ट ऑफ़ कोर्ट्स ऐक्ट, 1971 के तहत प्रशांत भूषण को छह महीने तक की जेल, दो हजार रुपए का जुर्माना या दोनों हो सकता है। इसी क़ानून में ये भी प्रावधान है कि अभियुक्त के माफ़ी मांगने पर अदालत चाहे तो उसे माफ़ कर सकती है। प्रशांत भूषण ने माफी का रास्ता नहीं चुना। इसने प्रशांत भूषण की योद्धा की छवि को मजबूत किया। सीधी सी बात ये है कि प्रशांत भूषण ने देश की सबसे ऊंची अदालत के सामने नैतिकता और उदारता की जो लंबी लकीर खींच दी है, वो किसी भी सूरत में नजीर बनेगी।
इसका मतलब ये हुआ कि फैसला कुछ भी हो लेकिन प्रशांत भूषण हीरो बन चुके हैं। अगर सजा मिलती है तब भी और अदालत उन्हें सिर्फ फटकार लगाकर छोड़ने का फैसला करती है तब भी। भारत के न्यायिक इतिहास में अवमानना के मामले में अदालत से बाहर इतनी जोरदार बहस कभी नहीं हुई। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के कई पूर्व जज, सीनियर एडवोकेट और खुद अदालत की गरिमा को बहाल रखने की पैरवी करने वाले अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल तक प्रशांत भूषण के पक्ष में खड़े हो गए। ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ। प्रशांत भूषण ने मामला विचाराधीन होने के कारण भले खुद चुप्पी साध रखी है लेकिन उनके पक्ष में बोलने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। उन लोगों की तादाद तो बहुत बड़ी है जो अवमानना का मामला होने के कारण बोलने से बच रहे हैं लेकिन वो नैतिक तौर पर प्रशांत के साथ हैं। सब समझते हैं कि प्रशांत भूषण को जेल भेजना तो आसान है लेकिन अधिकतम छह महीने के बाद दिल्ली के तिहाड़ जेल से उनकी निकलती हुई जो तस्वीर बनेगी, उसकी भव्यता अवमानना की सजा को न्याय की काव्यात्मक पूर्णाहुति में न बदल दे।
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