प्रधानमंत्री का भाषण: महिमा-मंडन का कल्पनालोक बनाम यथार्थ की भयावहता


यह पहली बार हुआ है कि देश के प्रधानमंत्री के स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन को किसी गंभीर चर्चा के योग्य नहीं समझा गया। यहां तक कि आदरणीय मोदी जी के प्रशस्तिगान हेतु लालायित सरकार समर्थक मीडिया ने भी स्वयं को आश्चर्यजनक रूप से इसकी रूटीन कवरेज तक सीमित रखा। तटस्थ बुद्धिजीवियों और राजनीतिक विश्लेषकों ने  इसे आलोचना के योग्य भी न समझा। हां, सोशल मीडिया पर समर्थन और विरोध में कुछ कार्टून तथा चुटीली टिप्पणियां अवश्य देखने में आयीं। शायद इसका तेवर सोशल मीडिया के उथले, अनुत्तरदायी, भ्रामक और एकपक्षीय स्वभाव से संगत था इसलिए यह सोशल मीडिया को रुचिकर लगा होगा।

हो सकता है कि इसे प्रधानमंत्री अपना राजनीतिक कौशल समझते हों लेकिन यह देशवासियों के लिए हताशाजनक था कि श्रोताओं के धैर्य की परीक्षा लेने वाले अपने 88 मिनट के उद्बोधन में उन्होंने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो सार्थक और महत्वपूर्ण था। वे बोले तो बहुत लेकिन उनके पास कहने को कुछ नहीं था। शायद उन्हें भी यह ज्ञात था और इसीलिए उनके सजावटी वाक्यों और दिखावटी लहजे में भी एक  ऊब, एक थकान और यांत्रिकता झलक रही थी। ऐसा लग रहा था कि वे कोई अप्रिय उत्तरदायित्व बड़ी अनिच्छा से निभा रहे हैं। क्या आदरणीय प्रधानमंत्री जी कल्पनाजीवी हैं? जब आत्मस्तुति की स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति आत्मरति की सीमा तक पहुंच जाती है तो देश, काल और परिस्थितियों का बोध तिरोहित हो जाता है। 

देश को उम्मीद थी कि देश के प्रधानमंत्री का यह उद्बोधन कठोर आत्मस्वीकृतियों और तार्किक विश्लेषण से युक्त होगा। वे देश से इस बात के लिए क्षमा मांगेंगे कि कोरोना की दूसरी लहर की भयानकता का अनुमान लगाने में सरकार से बड़ी चूक हुई। जब सरकार को अनुमान ही नहीं था तो दूसरी लहर से मुकाबले की तैयारियों का तो सवाल ही नहीं था। ऑक्सीजन, आवश्यक दवाओं और अस्पतालों में बिस्तरों की कमी के कारण लाखों जानें गयीं। लगभग माह भर तक यह मौत का तांडव चलता रहा और हम टीवी चैनलों पर इसका लाइव प्रसारण देखते रहे। यह लाखों जानें ऐसी थीं जो बचायी जा सकती थीं यदि हम सतर्क और तैयार होते। असमय मौत के मुँह में धकेल दिए गए इन लोगों के प्रति  देश के मुखिया की तरफ से एक छोटी सी माफी तो बनती थी न।

जब प्रधानमंत्री अपने उद्बोधन में यह कहते हैं कि “…ये बात सही है कि अन्य देशों की तुलना में भारत में कम लोग संक्रमित हुए हैं। ये भी सही है कि दुनिया के देशों की जनसंख्या की तुलना में भारत में हम अधिकतम मात्रा में हमारे नागरिकों को बचा सके हैं…”, और  फिर विकसित देशों की तुलना में संसाधनों की कमी की और देश की विशाल जनसंख्या की स्वीकारोक्ति करते हैं तब वे अपने नेतृत्व एवं प्रबंधन कौशल को ही सारा श्रेय दे रहे होते हैं। अपनी पीठ थपथपाने के बाद जब वे इसे पीठ थपथपाने योग्य उपलब्धि नहीं मानते हैं तो उनका यह चातुर्य प्रशंसा नहीं वितृष्णा के भाव उत्पन्न करता है।

प्रधानमंत्री जी द्वारा आंकड़ों की यह बाजीगरी, स्वयं को सफल सिद्ध करने की यह जिद, कोरोना की पहली लहर के बाद ही शुरू हो गयी थी। दूसरी लहर की विनाशकता के लिए यह आत्मप्रवंचना बड़ी हद तक जिम्मेदार रही। और अब जब तीसरी लहर दस्तक दे रही है तब प्रधानमंत्री जी का यह भाषण चिंता उत्पन्न करता है। जनता को आशा थी कि प्रधानमंत्री तीसरी लहर से मुकाबले की तैयारियों का विस्तृत ब्यौरा देंगे और यह आश्वासन भी कि दूसरी लहर की गलतियां दुहरायी न जाएंगी, किंतु ऐसा न हुआ। 

आदरणीय प्रधानमंत्री जी ने देश में चल रहे विश्व के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान का जिक्र भी किया। तथ्य बताते हैं कि हम अपने देश की केवल 12 प्रतिशत आबादी को ही पूर्णतः टीकाकृत कर पाये हैं। देश की बड़ी जनसंख्या को टीकाकरण की धीमी रफ्तार के लिए जिम्मेदार बता कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। सच्चाई यह है कि जब सरकार पहली लहर के बाद आदरणीय मोदी जी के नेतृत्व में कोरोना पर निर्णायक विजय का उत्सव मना रही थी तब उसे देश की पूरी आबादी को टीकाकृत करने के लिए वैक्सीन बनाने और खरीदने के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास करने थे, किंतु सरकार की आत्ममुग्धता के कारण ऐसा हो न सका।  टीकों की कमी अब आम बात हो गयी है। देश यह अपेक्षा कर रहा था कि आदरणीय प्रधानमंत्री जी यह बताते कि सरकार द्वारा वर्ष 2021 के अंत तक देश की सारी वयस्क जनसंख्या को टीकाकृत करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए क्या रोडमैप बनाया गया है, किंतु प्रधानमंत्री जी इस संबंध में मौन रहे।

स्वतंत्र भारत में बेरोजगारी इतनी भयावह स्थिति कभी न थी। देश की अर्थव्यवस्था का पतन तो कोरोना महामारी के आगमन के पूर्व ही प्रारंभ हो गया था। पिछले वित्तीय वर्ष में जीडीपी में 7.3 प्रतिशत की अप्रत्याशित और चिंताजनक गिरावट आयी है। विश्व बैंक और आइएमएफ जैसे अनेक अग्रणी वित्तीय संस्थानों ने भारत की अर्थव्यवस्था के विषय में नकारात्मक अनुमान लगाये हैं। प्रधानमंत्री से यह आशा थी कि वे बताएंगे कि पिछले वर्ष अर्थव्यवस्था में जान फूँकने के लिए उन्होंने कौन से कदम उठाये थे और उनका क्या परिणाम निकला, देश में कितना रोजगार उत्पन्न हुआ, कितने लोगों की नौकरियां छिन गयीं, किंतु उनके स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन में इस ज्वलंत प्रश्न पर कुछ भी न था। 

उन्होंने गति शक्ति योजना के मास्टर प्लान के लिए 100 लाख करोड़ के प्रावधान का जिक्र किया जबकि प्रधानमंत्री जी को पहले 2019 के अपने स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए घोषित 100 लाख करोड़ रुपए और 15 अगस्त 2020 के भाषण में उल्लिखित इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइप लाइन प्रोजेक्ट के 110 लाख करोड़ रुपयों का हिसाब देना था। इन सारी घोषणाओं को रोजगारमूलक बताया गया था किंतु  2019 से 2021 की अवधि में बेरोजगारी चरम पर रही। 

उन्‍होंने कहा, “महामारी के समय भारत जिस तरह से 80 करोड़ देशवासियों को महीनों तक लगातार मुफ्त अनाज देकर के उनके गरीब के घर के चूल्‍हे को जलते रखा है और यह भी दुनिया के लिए अचरज भी है।” जो लज्जा का विषय है उस आंकड़े पर गर्व व्यक्त करना प्रधानमंत्री जी की आत्ममुग्ध दशा को दर्शाता है। कितनी हताशाजनक स्थिति है कि देश में अस्सी करोड़ लोगों के पास रोजगार नहीं है। उनकी आय का कोई जरिया नहीं है। वे इतने गरीब हैं कि दो जून की रोटी की व्यवस्था भी नहीं कर सकते। वे सरकार की दया पर निर्भर हैं। सरकार इनका पेट भर कर इन पर कोई अहसान नहीं कर रही है बल्कि अपनी असफलता का प्रायश्चित कर रही है। 

प्रधानमंत्री जी ने भारत को कोरोनाकाल में रिकॉर्ड एफडीआई आकर्षित करने  वाला देश बताया। यदि वे एफडीआई का विस्तृत ब्यौरा देते तो शायद यह आंकड़ा इतना आशाजनक नहीं लगता। वित्तीय वर्ष 2020-21 की तीसरी तिमाही के दौरान कंपनीवार एफडीआई की स्थिति को प्रदर्शित करने वाले सरकारी आंकड़े कुछ अलग तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। अप्रैल से दिसंबर 2020 के बीच रिलायंस इंडस्ट्रीज द्वारा अपने इक्विटी शेयर्स सात विदेशी कंपनियों को बेचे गये। इस अवधि में विदेशी कंपनियों द्वारा भारत में जितनी इक्विटी कैपिटल का निवेश किया गया उसका 54 प्रतिशत हिस्सा तो इसी सौदे से आया है। यह निवेश केवल शेयरों के स्थानांतरण पर आधारित था और इससे देश की अर्थव्यवस्था को नवजीवन देने वाले संसाधनों में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। इस निवेश का लाभ फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों को अधिक हुआ, देश की अर्थव्यवस्था को कम। सरकार के आत्मनिर्भर भारत अभियान की सफलता के लिए मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में अधिक निवेश आवश्यक है किंतु इस अवधि में केवल 13 प्रतिशत एफडीआई निवेश मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में हुआ। सर्विस सेक्टर ने 80 प्रतिशत एफडीआई को आकर्षित किया। इसमें भी 47 प्रतिशत हिस्सा इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एनेबल्ड सर्विसेज का था। 

प्रधानमंत्री ने ‘वोकल फ़ॉर लोकल’ के नारे को दुहराया और जनता से अपेक्षा की कि वे स्थानीय उत्पादों के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाएं। उन्होंने उत्पादकों से भी उच्च गुणवत्ता बनाये रखने की अपील की और कहा कि उनका उत्पाद ब्रांड इंडिया का निर्माण करता है, किंतु कोरोनाकाल में जिस तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने पांव पसारने की छूट दी गयी है उससे लोकल के लिए इन कंपनियों के सम्मुख शरणागत होना ही एकमात्र विकल्प दिखता है। छोटे उत्पादकों और खुदरा विक्रेताओं के लिए भारतीय और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का सप्लायर और वेंडर बनना ही एकमात्र नियति है। इस बात की पूरी आशंका है कि इनका स्वतंत्र अस्तित्व मिट जाएगा। इन्हें स्वदेशी मार्केट से निकाल बाहर करने की परिस्थिति पैदा करने वाली सरकार के प्रमुख से यह सुनना कि ये ग्लोबल बनने की ओर अग्रसर हैं, एक क्रूर मजाक जैसा लगता है।

प्रधानमंत्री ने स्टार्टअप्स का जिक्र करते हुए उन सुर्खियों की ओर संकेत किया जिनके अनुसार कोरोनाकाल नये स्टार्टअप्स के लिए स्वर्णयुग साबित हुआ है और इनसे लाखों युवाओं को रोजगार मिल रहा है, किंतु प्रधानमंत्री को उन मीडिया रिपोर्ट्स की ओर भी नजर डालनी थी जिनके अनुसार  कोविड और लॉकडाउन के कारण फुटवियर, रेस्टोरेंट, होटल आदि अनेक क्षेत्रों में प्रारंभ हुए स्टार्टअप्स में से करीब 50 प्रतिशत बन्द हो चुके हैं। इनके मालिक स्वयं नौकरियां तलाश रहे हैं। फिक्की और इंडियन एंजल नेटवर्क के 2020 के एक सर्वेक्षण के अनुसार कोरोना ने 70 प्रतिशत स्टार्टअप्स के कारोबार पर बुरा असर डाला था। स्टार्टअप्स का बड़ी संख्या में पंजीयन युवाओं के उत्साह को तो दर्शाता है किंतु देश की बदहाल अर्थव्यवस्था और कोविड-19 के सतत आक्रमण के कारण इनके स्थायित्व को लेकर संशय है। नकदी के अभाव और फाइनेन्सरों के हाथ खींचने के कारण इनके सम्मुख अस्तित्व का संकट आ गया है। सरकार से इन्हें  संरक्षण मिलना चाहिए किंतु प्रधानमंत्री ने इस विषय में कोई घोषणा नहीं की।

कोरोना ने असंगठित क्षेत्र को सर्वाधिक प्रभावित किया है। स्वनिधि योजना के तहत रेहड़ी पटरी वालों को मिलने वाला दस हजार रुपये का ऋण नितांत अपर्याप्त है। रेहड़ी पटरी वालों की विशाल संख्या असर्वेक्षित है। प्रधानमंत्री जी ने इस योजना का जिक्र तो किया किंतु इन्हें अधिक ऋण के साथ अनुदान भी देने और इनका सही सर्वेक्षण कर इन्हें डिजिटल पहचान पत्र देने जैसी अपेक्षाओं के विषय में उन्होंने कुछ नहीं कहा।

देश के किसान इस भाषण से सर्वाधिक निराश हुए। किसानों पर जबरन थोपे गए तीन कृषि कानूनों की वापसी के लिए किसानों का आंदोलन महीनों से जारी है। इस आंदोलन ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है किंतु प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में इसका उल्लेख तक करना उचित नहीं समझा। देश के 80 प्रतिशत छोटे किसानों के बारे में उन्होंने कहा “छोटा किसान बने देश की शान यह हमारा सपना है।” किसानों के इस संक्षिप्त उल्लेख में यह संदेश निहित था कि यह तीन विवादित कृषि कानून छोटे किसानों के लिए लाभकारी हैं, इसलिए इन्हें वापस नहीं लिया जा सकता। उन्होंने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा- “पहले जो देश में नीतियां बनीं, उनमें इन छोटे किसानों पर जितना ध्यान केंद्रित करना था, वो रह गया।” इस प्रकार आदरणीय प्रधानमंत्री जी सोशल मीडिया में किसानों पर हमलावर होने वाली ट्रोल आर्मी के नैरेटिव को पुष्ट करते नजर आये। इस नैरेटिव के अनुसार इन कृषि कानूनों का विरोध बड़े किसान, बिचौलिये और आढ़तिये कर रहे हैं। छोटे किसानों को इस आंदोलन से खुद को दूर रखना चाहिए। किसानों की दुर्दशा के लिए पिछली सरकारें जिम्मेदार हैं। विरोधी दल किसान आंदोलन के पीछे हैं।

देश के प्रधानमंत्री यह अपेक्षा होती है कि वह अपने अंध-समर्थकों की भांति आक्रामक और प्रतिशोधी न होकर अधिक उदार, चिंतनशील और तार्किक होगा। प्रधानमंत्री को यह बताना चाहिए था कि किसानों को लाभकारी मूल्य कब मिलेगा? सरकार की नवीनतम स्वीकारोक्ति के अनुसार केवल 14 प्रतिशत किसान ही एमएसपी पर अपनी फसल बेच पाते हैं। प्रधानमंत्री को यह भी बताना था कि शेष 86 प्रतिशत किसान कब एमएसपी पर अपनी फसल बेच पाएंगे। उन्हें किसानों की आय दोगुनी करने के अपने वादे पर हुई प्रगति के बारे में भी बताना था। उन्हें बताना था कि पिछले कुछ सालों से नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो किसान आत्महत्या के आंकड़े अलग से क्यों नहीं बता रहा है? किसानों को 500 रुपये महीने देना गर्व नहीं शर्म का विषय होना चाहिए। उन्हें प्रतिदिन 16.66 रुपये की राशि दी जाती है। यदि चार सदस्यों का परिवार हो तो यह रकम प्रति व्यक्ति 4.16 रूपये बनती है। प्रधानमंत्री जी को इस राशि को सम्मानजनक बनाने का प्रण लेना था।

पूरी दुनिया में कहीं भी खेती में कॉरपोरेट कंपनियों की एंट्री और खेती के निजीकरण से छोटे किसानों का लाभ नहीं हुआ है, बल्कि इससे उनका विनाश ही हुआ है। आदरणीय प्रधानमंत्री जी बहुत विद्वान हैं। उन्हें बताना चाहिए था कि आज जिन नीतियों पर सरकार चल रही है, उन पर पहले से अमल कर चुके विकसित देशों में छोटे किसानों का क्या हाल है? उन देशों में छोटे किसान नाम की यह प्रजाति है भी या नहीं या उसका खात्मा हो गया है।

प्रधानमंत्री जी ने अपने भाषण में कुपोषण की चर्चा की। प्रधानमंत्री जी ने कुपोषण की समस्या पर अपना दृष्टिकोण ओलिंपिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों के साथ अपनी मुलाकात में भी साझा किया था। प्रधानमंत्री आश्चर्यजनक रूप से खिलाड़ियों को यह बताते पाये गए कि देश में पौष्टिक खाने की कोई कमी नहीं है। बस लोगों को इस बात का पता नहीं है कि क्या खाया जाय। जून 2021 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने आरटीआई के तहत पूछे गए एक सवाल के उत्तर में यह बताया कि पिछले साल नवंबर तक देश में छह महीने से छह साल तक के करीब 9,27,606 गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों की पहचान की गयी। यह आंकड़े वास्तविक संख्या से कम भी हो सकते हैं और विशेषज्ञों की आशंका यह भी है कि कोरोनाकाल में यह समस्या विकराल रूप ले सकती है। एनएफएचएस 5 की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि देश के बच्‍चों में कुपोषण बढ़ा है। यह गंभीर एवं चिंताजनक स्थिति है। इससे पहले एनएफएचएस की चौथी रिपोर्ट के अनुसार देश में बच्‍चों में कुपोषण कम हो रहा था। यदि प्रधानमंत्री 80 करोड़ लोगों को महज खाद्यान्न उपलब्ध कराने को अपनी उपलब्धि समझने लगेंगे तब बाकी पोषक आहार पर कौन ध्यान देगा। फोर्टिफाइड राइस देना अच्छी पहल है लेकिन कुपोषण का जिम्मा महज लोगों की गलत खाद्य आदतों पर डालना घोर अनुचित है।

प्रधानमंत्री को यह भी बताना था कि लगभग सभी पड़ोसी देशों से हमारे संबंध खराब क्यों हुए हैं। चीन के साथ सीमा पर चल रही तनातनी और बदलती स्थितियों को देश के साथ साझा क्यों नहीं किया जा रहा है? प्रधानमंत्री ने अफगानिस्तान के घटनाक्रम पर एक शब्द नहीं कहा। क्या भारत की विदेश नीति में मौलिकता का तत्व समाप्त हो गया है? क्या हम अमेरिका जैसी महाशक्ति के पिछलग्गू बन कर रह गये हैं? अफगानिस्तान के संबंध में हम इतने हतप्रभ क्यों हैं? इन प्रश्नों पर प्रधानमंत्री को अपना पक्ष रखना था। प्रधानमंत्री को यह भी बताना था कि पिछले कुछ साल में मानव विकास तथा नागरिक स्वतंत्रता और प्रेस की आज़ादी का आकलन  करने वाले हर सूचकांक में भारत का प्रदर्शन खराब क्यों हुआ है?

प्रधानमंत्री जी का कल्पना लोक जितना सुंदर है देश का यथार्थ उतना ही भयानक। यदि प्रधानमंत्री जी को इस अंतर का बोध नहीं है तो यह चिंताजनक है किंतु यदि उन्हें वास्तविक परिस्थिति का ज्ञान है फिर भी वे रणनीतिक रूप से स्वयं के महिमामंडन में लगे हैं तो परिस्थितियां डराने वाली हैं। 


लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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