इन दिनों होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर एक नये बंगाल को मीडिया अपने छोटे पर्दे पर दिखा रहा है और कहें तो ज़मीनी हकीकत से दूर हाथ में रिमोट थामे कमरों में बैठे समाचार चैनलों में देश को तलाशते हुए लोगों को बता रहा है बंगाल की जमीन खून से लाल हो गयी है। यहां के मूल में हिंसा है। येन-केन प्रकारेण किसी तरह सत्ता पर काबिज होने के लिए एक पार्टी यहां की गौरवशाली परंपरा को वापस लाने का दावा कर रही है। इस तरह की राजनीति शायद भूल जाती है कि राजनीति संस्कृति को तैयार नहीं करती और आज की राजनीति में कोई संस्कृति या संभावना बची है क्या?
एक राजनीति की संस्कृति इसी सरज़मीं से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने दी थी जिनकी हाल ही में 125वीं जयंती मनायी गयी। उसके मूल में मनुष्य की मुक्ति और सबको साथ लेकर राष्ट्र बनाने का सपना था। आजाद हिंद फौज उसी सपने की चरम अभिव्यक्ति थी। उस फौज में शामिल लोगो के जीवन वृत्तांत उनकी कार्यशैली और उनके जीवट को क्या वो दल अपनी राजनीतिक संस्कृति बनाने को तैयार हैं?
पिछले दो हफ्ते से बंगाल को नजदीक से देखने और समझने की कोशिश कर रहा हूं। जंगलमहल से लेकर वीरभूम और कोलकाता में लोगों से मिल कर उनसे बात कर बंगाल को समझने की कोशिश कर रहा हूं। वीरभूम में सनत दास बाउल मिले। गाते हुए पूछा- क्या हाल है? जवाब मिला- सब ठीक! फिर पूछा कि पेट के लिए गाते हैं? कहा- नहीं प्रेम गाता हूं, पेट भरने का ज़रिया बन जाता है।
चलते-चलते पूछ लिया- बाउल मतलब? कहा- जिसका कोई मूल न हो, जो निर्मूल हो यानी न कुछ पाने की इच्छा न कुछ खोने का डर! कबीर की भाषा में कहूं- मनवा बेपरवाह। सब मेरे… मैं सबमें…!
बोलपुर शांति निकेतन में मिले सनत दास बाउल की बात उन लोगों को पहेली सी लगेगी जो न्यूज चैनलों में खूनी बंगाल देख रहे हैं। सरल-सहज जीवन को दुरूह बनाने का नाम राजनीति हो चली है जबकि सरल-सहज जीवन बनाने का संदेश सनत दास बाउल के गीत और उनके इकतारा से निकली धुन दे रही है।
यही सोचते और चलते हुए वर्धमान में सड़क किनारे एक मिठाई की दुकान पर ठहरता हूं। ठंड के मौसम में खजूर के गुड़ के बने रसगुल्ले दिल से दिमाग तक मिठास भर देते हैं। सोचता हूं बंगाल के ग्राउंड जीरो पर क्या है। खुद से खुद को जवाब मिलता है- स्वाद और मिठास।
सुर और स्वाद में मिठास की ज़मीन है बंगाल। चाहे वो गुरूदेव के गीत और कविताएं हों, हवा सा मुक्त बाउल गीत हो या फिर संथाली गीत-संगीत, सारे के सारे जीवन में मिठास घोलते हैं। इनके छंद-बंद में चाहे जितनी विभिन्नताएं हों पर इनके मूल में मानव प्रेम और मुक्ति की कामना है। मुक्ति- घृणा, नफरत और वैमनस्य से।
सती प्रथा के नाम पर आग में जबरन झोंक दी गयीं बाल विधवाओं की चीखों के खिलाफ राजा राममोहन राय खड़े ही नहीं हुए, तत्कालीन पाखंडी समाज के तीव्र विरोध के बावजूद कानून लाकर उसे बंद करवाया। विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा को लेकर विद्यासागर की लड़ाई को कोई कैसे नज़रअंदाज कर सकता है जिसने स्त्री मुक्ति के लिए रुढ़ियों के बंद दरवाजों को ढहा दिया या फिर भक्ति आंदोलन के अग्रणी दूत चैतन्य महाप्रभु को, जिन्होंने सामंती समाज के साये में पल रही जातिप्रथा को नकार हर एक को गले लगाकर प्रेम करने की तहरीक़ चलायी।
कुल मिलाकर बंगाल की सरजमीं के मिज़ाज को अगर हम पढ़ने और समझने की कोशिश करें तो जो बात समझ में आती है वो ये कि कड़वाहट पर यहां की मिठास हमेशा भारी पड़ी है।
आज ये मेरा सच है। कल इस सच को आप भी मानेंगे जब बंगाल के मिठास के आगे हारेगी कड़वाहट की राजनीति।
भास्कर गुहा नियोगी स्वतंत्र पत्रकार हैं