पिछले हफ़्ते दो ख़बरें मज़दूर आंदोलन में उम्मीद और निराशा दोनों एक साथ लेकर आयीं। ये ख़बरें भले ही संगठित क्षेत्र ख़ासकर सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों से जुड़ी हों, लेकिन संघर्ष कर रहे व्यापक मज़दूर वर्ग में इसने एक उम्मीद ज़रूर जगायी।
बिजली वितरण कंपनियों के निगमीकरण के ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश के बिजली कर्मचारियों ने जिस तरह अपने आंदोलन को धीरे-धीरे उठाते हुए एकदिनी हड़ताल तक पहुंचाया, उसने हिंदुत्व, जातिवाद और राष्ट्रवाद के कॉकटेल की पीनक से योगी आदित्यनाथ की सरकार को अचानक ज़मीन पर ला पटक दिया। उत्तर प्रदेश की सरकार ने न केवल पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम को विघटित करने का आदेश वापस लिया, बल्कि पूरे यूपी में बिजली कंपनियों के निजीकरण पर फिलहाल रोक लगा दी।
लाखों चुटकुले, आइटी सेल की आर्मी और सरकारी कठपुतली बने न्यूज़ चैनलों को कर्मचारियों को बदनाम करने के लिए लगा दिया गया। भ्रष्टाचार, काहिली, कामचोरी को कर्मचारियों के मत्थे मढ़ कर निजीकरण को ‘अच्छे दिन’ की तरह प्रचारित किया गया ताकि जनता की सहानुभूति इन कर्मचारियों से हट जाए। इस काम में दक्ष आरएसएस ने भी पूरा ज़ोर लगा दिया, बीएसएनएल की तरह (16 जुलाई 2019 के अंक में आरएसएस के मुखपत्र आर्गनाइज़र ने बाक़ायदा बीएसएनएल कर्मचारियों को कामचोर व काहिल बताते हुए एक लेख प्रकाशित किया था)।
कर्मचारी यूनियनों ने भी अपनी एकता को जनांदोलन का रूप देते हुए बहुत सधे तरीके से मोदी-योगी के हमलों का जवाब दिया। जनता में जागरूकता का काम अपने हाथों में लिया गया। ये बताया गया कि निजीकरण के बाद बिजली का रेट 10 रुपये प्रति यूनिट हो जाएगा। मीडिया के पूरी तरह ख़िलाफ़ होने के बावजूद जनता में अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए पर्चे बांटे गए, मशाल जुलूस निकाले गए, धरना प्रदर्शन का अनवरत क्रम चला, कई नेताओं को सरकार ने गिरफ़्तार किया, कई पर संगीन धाराओं में मुकदमे लादे गए। इसके बाद जब अगले 40 घंटे यूपी का अधिकांश हिस्सा अंधेरे में डूब गया, तो सरकार घुटनों पर आ गयी। तमाम प्रोपेगैंडा, दुष्प्रचार, फ़ेक न्यूज़, सोशल मीडिया के हथियार धरे के धरे रह गए। समझौते के तहत योगी सरकार को सारे मुकदमे वापस लेने पड़े।
ट्रेड यूनियनों की इस जीत ने बाकी संघर्षरत यूनियनों और कर्मचारियों में उत्साह का संचार किया। 12 अक्टूबर से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाने का नोटिस देने वाले आर्डिनेंस फ़ैक्ट्री के कर्मचारी दबी ज़ुबान से कहने लगे थे कि बिजली कर्मचारियों की तरह वे भी सरकार को सबक सिखाएंगे।
सेना के लिए हथियार, गोला बारूद बनाने वाली 41 आर्डिनेंस फ़ैक्ट्रियों को निगम बनाने की घोषणा से इनमें काम करने वाले 82,000 कर्मचारी आक्रोशित थे, लेकिन हड़ताल शुरू होती इससे 48 घंटे पहले ही इसके स्थगित होने की ख़बर आ गयी। केंद्रीय श्रम आयुक्त की मध्यस्थता से तय हुआ कि जब तक वार्ता जारी है, न तो सरकार निगमीकरण पर आगे बढ़ेगी और न ही फ़ेडरेशनें हड़ताल करेंगी। कर्मचारी तैयार बैठे थे, लिहाजा हड़ताल स्थगित होने से उनमें निराशा भी आयी। ट्रेड यूनियनों के नेता अब उन्हें समझाने में जुटे हैं। असल में, अनिश्चितकालीन हड़ताल का फ़ैसला बैलट से हुआ था और बहुमत ने इसके पक्ष में वोट किया था।
पिछले 20 साल से इन आर्डिनेंस फ़ैक्ट्रियों को बेचने की कोशिशें हो रही हैं, लेकिन हर बार कर्मचारी आंदोलन इस मंशा पर पानी फेर दे रहा था। ‘आपदा को अवसर’ बनाने का नारा देने वाली मोदी सरकार को कोरोना महामारी का समय सबसे उपयुक्त प्रतीत हुआ और 17 मई को निगमीकरण की घोषणा कर दी गयी। कर्मचारी फ़ेडरेशनों ने तीखी आपत्ति जतायी और 4 अगस्त को हड़ताल का नोटिस दे दिया।
दो महीने तक सरकार सोती रही। 10 अक्टूबर तक उसके अधिकारी इस बात पर राज़ी ही नहीं थे कि निगमीकरण पर बात होगी, लेकिन उन्हें आखिर सहमत होना पड़ा कि फिलहाल निगमीकरण की कार्यवाही आगे नहीं बढ़ेगी। ये कर्मचारी यूनियनों की एक तरह से जीत ही है क्योंकि सरकार का कोई हथकंडा काम नहीं आया। उसे लगा था कि महामारी और लॉकडाउन के दमन ने कर्मचारियों का जोश ठंडा कर दिया होगा। उसे आरएसएस से जुड़े प्रतिरक्षा कामगार संघ के साथ देने का भी भरोसा रहा होगा, जो कि अपेक्षा से उलट इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ मैदान में उतर आयी।
जब ये हथकंडे काम न आए, तो रक्षा मंत्रालय ने धमकाने के लिए 82,000 कर्मचारियों को व्यक्तिगत रूप से नोटिस जारी कर दिए। यहां तक कि रक्षा मंत्रालय ने इस हड़ताल को ग़ैर-क़ानूनी घोषित करने की धमकी दी। जब इन सबका भी कोई असर नहीं पड़ा, तो समझौते की मेज़ पर कुछ समय के लिए मोहलत ले ली गयी। पिछले साल अगस्त में जब एक महीने की हड़ताल घोषित की गयी थी, तो पांच दिन बाद ही सरकार ने कुछ वादे कर के हड़ताल तुड़वा दी थी इसलिए कर्मचारियों को सरकार पर इस बार भरोसा नहीं था।
इन दोनों ताज़ा आंदोलनों के अलावा पिछले साल देश के 7 रेलवे कारखानों को निगम बनाने के फैसले को भी कर्मचारियों ने वापस लेने पर मज़बूर किया है। बिजली कर्मचारियों को फिलहाल सिर्फ़ तीन महीने की मोहलत मिली है, 15 जनवरी तक। आर्डिनेंस फ़ैक्ट्री फ़ेडरेशनों को वार्ता जारी रखने तक की मोहलत हासिल है।
इसके बावजूद आंदोलनों के चलते कर्मचारियों को मिली फौरी राहत उनकी बेचैनी को ख़त्म नहीं कर पा रही है। आखिर कर्मचारियों को अपनी जीत पर यक़ीन क्यों नहीं है? हर फ़ौरी जीत के बाद स्थिति क्यों शून्य पर आ जाती है, इसका जवाब तलाशने की कोशिश कर्मचारी यूनियनों के चार्टर ऑफ़ डिमांड में देखी जा सकती है जहां तात्कालिक मुद्दे के अलावा कोई राजनीतिक एजेंडा नहीं मिलेगा।
इसके उलट सरकार अपनी हर छोटी हार को अपनी जीत में तब्दील करने में सफल हो जाती है क्योंकि उसके पास एक स्पष्ट और ठोस राजनीतिक एजेंडा है, जिस पर वो सतत् बढ़ती रहती है। 1991 से शुरू हुए निजीकरण पर सरकारें एक-एक इंच कर के ही सही, लगातार आगे बढ़ती रही हैं। प्रतिरोध की सूरत में उसकी गति ज़रूर धीमी हो जाती है, लेकिन उसके पास एक साफ़ दृष्टि है, समाज को अपने हिसाब से बदल देने का एक एजेंडा है!
सवाल है कि कर्मचारियों के पास क्या है? एकता, यूनियनें, चार्टर आफ़ डिमांड्स और मांगें पूरा होने का एक सपना, जो बिना किसी व्यापक स्वप्न और एक राजनीतिक एजेंडे के बगैर पूरा नहीं हो सकता!
स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सार्वजनिक सेवा क्षेत्रों सहित लगभग सभी सरकारी उपक्रमों का दो-तिहाई निजीकरण पहले ही हो चुका है। बिजली विभाग में जितने कमचारियों को सामाजिक सुरक्षा प्राप्त है, उतने ही कर्मचारी ठेके पर भी हैं। आर्डिनेंस फ़ैक्ट्री में भी कमोबेश यही हाल है। रेलवे जैसे विशाल उपक्रम में 13 लाख सरकारी कर्मचारी और इससे ज़्यादा ठेका मज़दूर हैं।
क्या इन ठेका कर्मचारियों के लिए हड़ताल का आह्वान कभी हुआ? क्या सबको समान सामाजिक सुरक्षा की बात यूनियनों के एजेंडे में कभी शामिल हुई? व्यवस्था परिवर्तन कभी मुद्दा बना? कर्मचारी यूनियनें इस पर ख़ामोश क्यों हैं?
इन मुद्दों पर संगठनों की खामोशी दरअसल यथास्थितिवाद का मौन समर्थन है। समाज कभी रुका नहीं रह सकता। उसकी अपनी एक गति होती है, लेकिन यथास्थितिवाद उस गति को पीछे की ओर खींचता है। अलग-अलग मांगों पर स्वप्नविहीन तात्कालिक जीत वास्तव में एक बड़ी हार का हिस्सा है। इसीलिए हर फ़ौरी जीत के आगे एक बड़ा सा शून्य टंगा दिखता है।