विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) के संशोधन के साथ पारित होने पर नागर समाज के दानदात्री संस्थानों द्वारा वित्तपोषित तबके में बड़ी बहस खड़ी हो गयी है जबकि समाज के साधारण हिस्से में कोई बहस नहीं है। कॉर्पोरेट फासीवाद ने चुप्पी की संस्कृति को हर तरफ स्थापित किया है।
दुनिया के किसी भी देश में परिवर्तनकारी और दीर्घकालीन बदलाव का क्रांतिकारी आन्दोलन केवल विदेशी अंशदान से कभी नहीं खड़ा हुआ है। यह अलग बात है कि जनवादी निर्वात के खात्मे में विदेशी अंशदान का काफी योगदान रहता है। खासकर जब एक जातिवादी समाज में खुद जातिवादी समाज, जातिवाद के खात्मे के लडाई में दान नहीं देता है। ऐसे में विदेशी अंशदान का एक महत्त्व तो है, किन्तु विदेशी अंशदान क्रांति नहीं करता है।
समाज सेवा या ‘स्वयं’ सेवा?
नये अधिनियम के पीछे कुदाल आयोग (जेपी आंदोलन के बाद सरकार ने गांधीवादी संस्थानों को मिले विदेशी अनुदान की जांच के लिए यह आयोग 1982 में बनाया था) के इतिहास से लेकर देश के अन्दर सामाजिक संगठनों में व्याप्त भ्रष्टाचार सहित अनेक आशंकाएं समाज के अनेक हिस्से में हैं। अन्ना हजारे के जनलोकपाल के लिए किये आन्दोलन में NGOs शामिल हुए, किन्तु दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल और केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद अब कोई क्रांतिकारी आन्दोलन जनलोकपाल के लिए NGOs नहीं चला रहे हैं। निर्भया रेप मामले में जो जोश था, वो हाथरस में नहीं दिखता है।
FCRANGOs के अन्दर लोकतंत्र के अभाव के साथ कुछ लोगों के कार्टेल निर्माण ने भी सामाजिक आन्दोलन की छवि पर उल्टा प्रभाव डाला है। सरकार भी एक स्तर से ज्यादा इसलिए डरी है क्योंकि उसे जयप्रकाश जी के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से लेकर अन्ना हजारे के आन्दोलन में विदेशी धन के उपयोग के बारे में पता है। और यह बात अब साफ़ है कि दोनों आन्दोलनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शामिल थ। अभी हाल ही में प्रशांत भूषण की इस सम्बंध में आयी टिप्पणी काफी कुछ इशारा करती है।
जवाबदेही के लिए हम सामाजिक संगठनों को खुद सोशल ऑडिट करना चाहिए। हमारे संगठन ने यह शुरू किया था, किन्तु अन्दर ही अन्दर कुछ संस्थाओं ने सबक सिखाने के लिए षडयंत्र भी किया। इसे देखकर मुझे राजशाही में गद्दी कब्जा का प्रकरण याद आ गया।
राजनीतिक रूप से क्यों अप्रासंगिक होती जा रही है भारत की सिविल सोसायटी?
एक विदेशी दानदात्री संस्था (जिसका कार्यालय भारत में है) ने एक विज्ञापन दिया, जिसमें मेरी संस्था ने भी आवेदन किया था। एक अन्तराष्ट्रीय स्तर की कंसल्टेंसी एजेंसी ने कई दिन आकर जाँच की और फिर मेरी संस्था महीने भर कागज और जवाब देती रही। अंत में संस्था का चयन तो हो गया, किन्तु दो साल में दानदात्री संस्था ने मेरे ईमेल लिखने पर भी आज तक जवाब नहीं दिया। अब इसकी जबाबदेही कहां है?
एक ओर तो हम सब आयकर में छूट पाकर जनता पर खर्च होने वाले पैसे को बिना जवाबदेही के उपयोग कर रहे हैं और दूसरी तरफ हम सब राजनैतिक दलों से जवाबदेही मांग रहे हैं! राजनैतिक दलों को जवाबदेही देनी चाहिए, जो पांच साल में चुनाव में जनता के बीच जाकर चुनाव लड़ते हैं।
जिस तरह से कॉर्पोरेट फासीवाद ने लोकतंत्र और जीवन के हर पहलू पर हमला कर दिया है। उसी तरह से जवाबदेही और वास्तविक लोकतंत्र के अभाव में दानदात्री संस्थाओं के काम ने अपने अकूत धन के चलते पैदा हुई गैंग और कार्टेल की संस्कृति के कारण सामाजिक और सांस्कृतिक आन्दोलनों के सामने संकट पैदा कर दिया है। आजकल तो मीडिया में TRP घोटाले की चर्चा जोरों पर है।
दूसरी तरफ सरकार ने विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम के संशोधन से इनके मानवतावादी कामों पर संकट पैदा कर दिया है। शिक्षा, स्वास्थ्य के लिए कार्य करने वाले जमीनी कर्यकर्ताओं का मानदेय यदि प्रशासनिक खर्चे में जोड़ा गया, तो एक बड़ा संकट पैदा करेगा और जमीन पर काम करने वाली संस्थाओं को अपना काम बंद करना होगा।
करोड़ों गरीबों-वंचितों को मिलने वाली राहत के मॉडल को ही ध्वस्त कर देगा FCRA संशोधन बिल
यह भारत के विकास के लिए उचित नहीं है। वैसे तो इस सब कार्य के लिए सरकार को धन देना चाहिए था, किन्तु कॉर्पोरेट फासीवाद के रास्ते पर जाने वाली सरकार से इस बात की उम्मीद कम है।
सरकार को संस्थाओं के साथ राजनैतिक दलों के अन्दर पारदर्शिता और लोकतंत्र के लिए भी प्रयास करना चाहिए। उसके लिए जनता, संगठनों और राजनैतिक दलों के बीच बहस शुरू करनी चाहिए।
संगठनों को नेटवर्क में कार्टेल बनने से रोकना होगा और संस्थाओं को गैंग बनने पर अंकुश लगाना होगा। तभी बाबा साहेब और महात्मा गाँधी के सपने का भारत बन सकता है। साथ ही कॉर्पोरेट फासीवाद को शिकस्त देने के लिए संगठनों को मिलकर जनांदोलन खड़ा करना होगा, जिससे भारत के संविधान को जमीन पर लागू करके बेहतर दुनिया बनाने में हम एक पहल कर सकते हैं।