यूरोप के आखिरी तानाशाह यानी बेलारूस के राष्ट्रपति लुकाशेंको की 9 अगस्त को हुई भारी जीत के बाद वहां उठे जन आंदोलन औरउसकी पृष्ठभूमि पर आज से महीने भर पहले जनपथ पर अपने रविवारी स्तम्भ ‘देशान्तर’ में मधुरेश कुमार ने एक विस्तृत रिपोर्ट की थी। उन्होंने बताया था कि मिन्स्क की सड़कों पर गूंजते आज़ादी के नारे कैसे हवाओं का रुख़ बदल रहे हैं। केवल महीने भर के भीतर तेज़ी से बदलते घटनाक्रम में अब यह साफ़ हो रहा है कि बेलारूस में भी तानाशाह से आज़ादी का आंदोलन बाहरी ताकतों के हस्तक्षेप से प्रभावित किया जा रहा है। जनपथ पर डिक्टा-फिक्टा के नाम से स्तम्भ लिखने वाले पत्रकार प्रकाश के. रे बेलारूस के ताज़ा घटनाक्रम को इस विश्लेषण में समझा रहे हैं।
संपादक
बीते 9 अगस्त के चुनाव में अलेक्ज़ेंडर लुकाशेंको की बड़ी जीत को यूरोपीय संघ और शक्तिशाली पश्चिमी देशों द्वारा नकार देने के बाद से ही यह स्पष्ट हो गया था कि ये देश केवल निंदा और आलोचना तक ही अपने को सीमित नहीं रखेंगे. उनकी पूरी कोशिश के बावजूद बेलारूसी विपक्ष का आंदोलन ज़ोर नहीं पकड़ सका और उन्होंने स्वेतलाना तिख़ानोवस्काया को अपनी ओर से राष्ट्रपति घोषित करने की वैसी भूल भी नहीं की, जैसा उन्होंने पिछले साल जनवरी में वेनेज़ुएला में किया था, जब राष्ट्रपति निकोलस मदुरो के चुनाव को अस्वीकार कर व्हान ग्वाइदो को अपनी ओर से राष्ट्रपति बना दिया.
बहरहाल, कई सप्ताह की चर्चाओं के बाद 1 अक्टूबर को यूरोपीय संघ ने 40 बेलारुसी अधिकारियों पर प्रतिबंधों की घोषणा कर दी. इन अधिकारियों पर उसका आरोप है कि वे चुनाव में गड़बड़ी और विरोध प्रदर्शनों के दमन के लिए ज़िम्मेदार हैं.
यूरोपीय संघ द्वारा प्रतिबंधित सूची में राष्ट्रपति लुकाशेंको और अन्य कई बड़े नेताओं के नाम नहीं होने से यह भी कहा जा रहा है कि संघ और अन्य पश्चिमी देश अभी अधिक दबाव बनाने की स्थिति में नहीं है क्योंकि बेलारूस के भीतर लुकाशेंको की पकड़ और बाहर से रूस का समर्थन जैसे कारकों की वजह से तत्काल सत्ता में बदलाव संभव नहीं दिख रहा है. इस तरह से यह प्रतिबंध सांकेतिक और स्वांत: सुखाय अधिक है. ऐसा नहीं होता, तो इनकी घोषणा के तुरंत बाद तिख़ानोवस्काया को फ़्रांस के राष्ट्रपति और जर्मनी की चांसलर से यह अनुरोध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि लुकाशेंको पर दबाव बढ़ाया जाना चाहिए.
बेलारूस ने भी प्रतिबंधों के जवाब में यूरोपीय संघ के कई अधिकारियों को प्रतिबंधित करने का निर्णय लिया है, लेकिन उसने इसकी सूची या संख्या के बारे में नहीं बताया है. रूस ने कहा है कि दोनों देशों के बीच समझौतों के कारण बेलारूस के प्रतिबंधों को वह भी लागू करेगा. इसके अलावा बेलारूस ने कुछ पड़ोसी देशों से राजदूत बुलाने और उनके दूतावासों की क्षमता करने की कार्रवाई भी की है, जिसे कुछ महत्वपूर्ण पश्चिमी देशों पर भी जल्दी लागू होने की उम्मीद है.
जुलाई, 1994 से बेलारूस की सत्ता में बैठे लुकाशेंको और यूरोपीय संघ के बीच संबंधों का हिसाब भी बड़ा दिलचस्प है. अगस्त के चुनाव से पहले यूरोपीय संघ ने बेलारूस की विभिन्न परियोजनाओं में 135 मिलियन यूरो ख़र्च करने का वादा किया था और इसके अलावा कोरोना महामारी से लड़ने के लिए भी 53 मिलियन यूरो देने का भरोसा दिलाया था. साल 1995 में ही दोनों पक्षों के बीच साझेदारी और सहयोग बढ़ाने का समझौता हो चुका है, लेकिन अभी यूरोपीय संघ ने उस पर मुहर नहीं लगायी है.
ऐसे में दोनों पक्षों का व्यापार 1989 में यूरोपीय समुदाय और सोवियत संघ के बीच हुए समझौते से संचालित होता है, जिस पर सोवियत संघ की टूट के बाद अलग हुए बेलारूस ने अपनी सहमति दी थी. साल 1993 में बेलारूस ने विश्व व्यापार संगठन की सदस्यता का आवेदन किया था और इतने साल बीत जाने के बावजूद वार्ताओं का दौर ही चल रहा है. बेलारूस इस संगठन का पूर्ण सदस्य नहीं है.
इन सबके बावजूद यूरोपीय संघ बेलारूस का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है और 2019 में उसके व्यापार का 18.1 प्रतिशत संघ के साथ होता था. सबसे बड़े सहयोगी रूस का हिस्सा 49.2 प्रतिशत है. बीते एक दशक में बेलारूस और यूरोपीय संघ के द्विपक्षीय व्यापार में 45 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है तथा व्यापार संतुलन यूरोपीय संघ के पक्ष में है. लुकाशेंको पर कड़ी कार्रवाई न करने का एक कारण यह भी हो सकता है कि कोविड-19 के कारण पैदा हुई परिस्थितियों में यूरोप और पश्चिमी देश अपना व्यापारिक घाटा नहीं करना चाहते होंगे.
एक सवाल यह भी है कि क्या सचमुच यूरोप और अन्य शक्तिशाली पश्चिमी देश बेलारूस में लुकाशेंको की कथित तानाशाही को समाप्त कर लोकतंत्र की बहाली करना चाहते हैं. बार-बार लोकतंत्र दुहाई देने के बावजूद सच यही है कि तानाशाहों से संबंधों के मामले में अमेरिका, कनाडा और यूरोप का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है. फ़्रांसीसी राष्ट्रपति मैकराँ और जर्मन चांसलर मर्केल मिस्र के सैन्य शासक अब्दुल फ़तह अल-सिसी के स्वागत में बिछे रहते हैं. मिस्र को तो पत्रकारों के लिए दुनिया की सबसे बड़े जेल की संज्ञा दी जाती है. शरणार्थियों को यूरोप में न आने देने के लिए इरिटेरिया और लीबिया में पश्चिम के पैंतरे को स्पष्ट देखा जा सकता है. इसी कड़ी में अलजीरिया और यूरोप के संबंधों को भी रखा जा सकता है.
इस संबंध में Stockholm International Peace Research Institute (SIPRI) के तथ्य भी देखे जाने चाहिए. अमेरिका ने पाँच साल (2015-19) में 96 देशों को हथियार बेचा है, लेकिन इसका आधा अकेले मध्य-पूर्व के देशों को बेचा गया है तथा उसमें भी आधा अकेले सऊदी अरब ने ख़रीदा है. फ़्रांस ने तीन दशकों में सबसे अधिक हथियार इन्हीं पाँच सालों में बेचा है. साल 2015 और 2019 के बीच हथियारों का उसका निर्यात 2010-14 की तुलना में 72 प्रतिशत बढ़ा है. मध्य-पूर्व में यह बढ़ोतरी 61 प्रतिशत रही है.
भारत के अलावा फ़्रांस के हथियारों के सबसे बड़े ख़रीदार मिस्र और क़तर हैं. सऊदी अरब, जो दुनिया का सबसे बड़ा हथियार ख़रीदार देश है, 73 प्रतिशत हथियार अमेरिका से और 13 प्रतिशत ब्रिटेन से ख़रीदता है. लीबिया और यमन की तबाहियों में हाथ डाले संयुक्त अरब अमीरात ने भी पश्चिम से हथियारों की भारी ख़रीद की है. साल 2015-19 में 2010 और 2014 की अवधि से मिस्र का हथियार आयात तीन गुना अधिक बढ़ा है. अलजीरिया जर्मनी के हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार है.
इसके बावजूद पश्चिमी देश और उनका मीडिया अफ़्रीका में चीन के बढ़ते प्रभाव को उपनिवेशवाद का नया रूप कहता है, जबकि सच यह है कि पश्चिम की तरह चीन अफ़्रीका में तबाहियों के हथियारों को न बेचकर परियोजनाओं और तकनीक में निवेश कर रहा है. आज अफ़्रीका में कोई भी बड़ी परियोजना नहीं है, जिसमें चीन की भागीदारी न हो. इसके उलट पश्चिम का नाम युद्धों, गृहयुद्धों और आतंकी प्रकरणों में ही अधिक आता है.
यूरोप में लोकतंत्र का वर्तमान मामला भी देखा जाना चाहिए. यूरोपीय संघ के सदस्य देशों- पोलैंड और हंगरी- में लोकतांत्रिक संस्थाओं का लगातार ह्रास हो रहा है. हंगरी में ओरबान ने अनिश्चित काल के लिए अध्यादेशों से शासन करने का अधिकार हासिल कर लिया है. वहाँ अदालतों का राजनीतिकरण हो चुका है, स्वतंत्र मीडिया का अस्तित्व नहीं है, नागरिक संगठन निष्क्रिय किए जा चुके हैं और शैक्षणिक संस्थाओं की स्वतंत्रता अतीत की बात हो चुकी है. घृणा और भेदभाव का माहौल तारी है. कमोबेश ऐसा ही पोलैंड में है. बुल्गारिया इसी राह पर अग्रसर है. आज यूरोपीय संगठन के एक करोड़ नागरिक एकाधिकारवादी सत्ता के अधीन हैं. ये सत्ताधारी पार्टियाँ यूरोपीय संसद में भी हैं, लेकिन कभी-कभार के औपचारिक बयानों के अलावा संगठन की ओर से या कथित उदारवादी लोकतांत्रिक समूह की ओर से धुर-दक्षिणपंथी और एकाधिकारवादी पार्टियों और सरकारों पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी है.
स्पष्ट है कि बेलारूस में लोकतंत्र बहाली की आड़ में कोई और खेल खेला जा रहा है. बेलारूस और रूस के संबंध यूरोप की चिंता के कारण तो हैं ही और यूरोप यूक्रेन की तरह नाटो की पहुँच रूसी सीमा तक सुनिश्चित करने की जुगत में है. एक बड़ी वजह बेलारूस का सिल्क रूट पर होना भी है. इसे समझने के लिए यूरोप, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका के बयानों और पैंतरों के साथ नाटो का बयान भी देखा जाना चाहिए, जो लगातार कहता रहा है कि बेलारूस में कुछ करना होगा, कार्रवाई ज़रूरी है और अगर ज़रूरत पड़े तो सीधे दख़ल भी किया जाना चाहिए. वैश्विक नवउदारवाद के सबसे प्रभावी प्रवक्ता द इकोनॉमिस्ट का सीधा कहना है कि लुकाशेंको से छुटकारा पाना होगा.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि लुकाशेंको को देर-सबेर जाना होगा. पुतिन को भी उनसे छुटकारा पाना होगा, लेकिन रूस ऐसा पश्चिम की शर्तों के मुताबिक नहीं करेगा और उसे ऐसा करना भी नहीं चाहिए. यह भी समझना चाहिए कि लुकाशेंको का बेलारूस यानुकोविच का यूक्रेन नहीं है. लुकाशेंको पुराने ढंग के तानाशाह हैं और सत्ता व सत्ता के विभिन्न अंगों, विशेषकर सुरक्षा विभागों पर उनकी पूरी पकड़ है. पुलिस और सेना भी ताक़तवर हैं.
उन्हें समझने के लिए यह तथ्य बहुत है कि उनकी ख़ुफ़िया एजेंसी का नाम आज भी केजीबी है. देश के संसाधनों और उद्योगों के राष्ट्रीयकृत होने तथा लुकाशेंको की अन्य नीतियों की वजह से आबादी के बड़े हिस्से में उनकी लोकप्रियता भी है. इस स्थिति में बात बिगड़ेगी, तो बहुत बिगड़ जाएगी. ऐसे में यूरोप भी सीधे हस्तक्षेप को टालेगा और रूस भी ऐसा नहीं होने देगा.