आज कोविड-19 की वजह से पूरे दुनिया में डर, अवसाद और अफरा-तफरी का माहौल है। एक तरफ इस बीमारी ने लोगों के प्राण को हलकान कर रखा है, वहीं दूसरी तरफ दुनिया के ज्यादातर मजबूत माने जाने वाले राष्ट्र अपने इतिहास के सबसे गए-गुजरे, निर्मम और निरंकुश शासकों द्वारा शासित हैं। इस वजह से कुल मिलाकर सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। ऐसे में बच्चों की शिक्षा के संबंध में “लर्न फ्रॉम होम” या “घर ही पाठशाला” जैसी तथाकथित “महान व्यवस्था” को गंभीरता से देखने-समझने की जरूरत है।
सरकारी तंत्र की मंशा और नीयत पर उठते सवाल इधर काफी समय से शिक्षा को लेकर सरकारी तंत्र का सोच, समझ और नीयत एकतरफ़ा “बाज़ारवाद” की ओर उन्मुख रहा है। इस संबंध में शिक्षा पर होने वाले खर्चों में लगातार कटौती जारी है, शिक्षकों और शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत अन्य कर्मचारियों की नई बहालियां नहीं हो रही है। स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है, जिससे शिक्षा क्षेत्र में गुणवत्ता का सवाल एक अहम् मसला बनकर उभरा है। इसके अलावा शिक्षकों पर शिक्षण से ज्यादा दूसरे अन्य कामों का बोझ डाल दिया जाता है, जैसे अभी कोविड के समय में बड़े पैमाने पर स्कूलों को ‘क्वारंटीन सेंटर’ के रूप में तब्दील कर दिया गया है और शिक्षकों पर इसके संचालन का कार्यभार सौंप दिया गया है।
इन तमाम परिस्थितियों के बीच एक अभिभावक, एक शिक्षक और सबसे ज़रूरी व अहम् एक छात्र के रूप में शिक्षा के सवाल पर संशय, डर, और भ्रम की स्थिति विद्यमान है। ऐसे में बच्चों के संबंध में लागू “लर्न फ्रॉम होम” की व्यवस्था और परेशान करती है। हाँ, यहाँ पर व्यवस्था की मंशा और नीयत पर उठाए गए सवालों से कुछ लोग की असहमति हो सकती है। उन लोगों का ये तर्क आ सकता है कि जब बात बच्चों की शिक्षा की चल रही है तो व्यवस्था की ‘भावना’ और ‘नीयत’ पर सवाल क्यों उठाना। अगर आप ठीक ऐसा हीं सोच रहे हैं, तो आप बिल्कुल गलत सोच रहे हैं और आप ऐसा इसलिए सोच पा रहे हैं क्योंकि आप इसे सिर्फ एक तात्कालिक घटना या व्यवस्था के रूप में अपने बच्चे तक सीमित कर के देख रहे हैं। ये सवाल सिर्फ आपका, सिर्फ मेरा नहीं रह गया है। आज के संदर्भ में समस्त शिक्षण प्रणाली का ये आधार है। इसको समस्त भारत वर्ष में ‘क्लास रूम’ शिक्षण के स्थान पर लागू किया जा चुका है। स्कूल, कॉलेज तथा विश्वविद्यालयों तक में यही पद्धति अपनायी जा रही है।
यहाँ तात्कालिक व्यवस्था की मनोदशा और नीयत पर सवाल उठाना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि इस पूरे समय में हमने समस्त भारत वर्ष से कुव्यवस्था और अमानवीयता के रोंगटे खड़े करने वाले ऐसे-ऐसे दृश्य देखें हैं जो इनकी विश्वसनीयता को सिरे से ध्वस्त कर देते हैं। अब जब हम बच्चों की शिक्षा के सवाल पर विचार कर रहे हैं तो हमें इन सारे ह्रदयविदारक दृश्यों के बीच ही इसे देखना होगा। मेरा ऐसा विश्वास है कि बच्चों की शिक्षा को समाज और सामाजिक परिस्थितियों से काट कर नहीं देखा जा सकता।
आम लोगों में उदासीनता और व्यापक दृष्टिकोण की कमी के बीच हमें तरह-तरह से ये समझाने की कोशिश की जा रही है कि क्लासरूम की जगह लर्न फ्रॉम होम एक तात्कालिक कदम है और कोविड के प्रभाव के खत्म होते हीं चीजें वापस अपने पुराने ढर्रे पर लौट आएंगी। इसी सोच के आधार पर जन मानस भी तैयार किया जा रहा है ताकि लोग इसे व्यापकता से अपना लें। सरकार तथा अन्य कई तरह की संस्थाएं इसके पक्ष में क़सीदे काढ़ रही हैं।
इसके पक्ष में कई तरह की बाते बताई जा रही है – जैसे इसके माध्यम से दूर-सुदूर और आमतौर पर शिक्षा से दूर रहे बच्चों को भी लाभ होगा। बच्चे सभी चीजों को “होता हुआ” देख कर आसानी से सीख पाएंगे। बच्चों को सिखाना सरल हो जाएगा और उन्हें एक हीं चीज कई तरह से सिखायी जा सकेगी। बच्चे उन “जरूरी कौशल” को- जिन्हें सीखने में प्रायः उन्हें काफी परेशानी आती है- भी सरलता से सीख पाएंगे।
ये जो दावे या दलील इसके पक्ष में दिए जा रहे हैं, इन पर निर्ममता से विचार, विमर्श होना चाहिए था। अभिभावकों में बेचैनी तथा असंतोष होना चाहिए था लेकिन इस अफरातफरी के समय में ज्यादातर अभिभावकगण इस पर विचार करने और कोई ठोस व स्पष्ट समझ बनाने से बच रहे हैं। आज बच्चों की शिक्षा के संबंध में गौर करने पर यह हमें एक बहुस्तरीय समस्या के रूप में नजर आ रहा है।
आइए इस घालमेल को समझें। इस संदर्भ में काफी लोग इसको एक “तात्कालिक विकल्प” से ज्यादा नहीं देख पा रहे हैं हालाँकि दुनिया भर में शिक्षक और शिक्षाविद खुल कर इस से असहमति जता रहे हैं। लेकिन बाजार ने ऐसा शोर और षड्यंत्र रचा है कि स्कूलों के गेट पर “भेड़ की भीड़: की तरह उमड़ने वाले अभिभावक इसका ओर-छोर नहीं पा रहे। आइए इस संबंध में कुछ शोध और डेटा का उल्लेख करते हैं जिससे तात्कालिक स्थिति को समझने में सहायता मिलेगी।
केपीएमजी इंडिया और गूगल (2017) द्वारा किए गए एक शोध से पता चलता है कि भारत में ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली वर्तमान में 1.6 मिलियन उपयोगकर्ताओं के साथ 247 मिलियन अमेरिकी डॉलर की है; आगे इसी शोध में यह संभावना जताई गई है कि 2021 तक यह बढ़कर लगभग 9.6 मिलियन उपयोगकर्ताओं के साथ 1.96 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो जाएगी (बंसल, 2017 )। इस संदर्भ में वर्तमान सरकार का “ऑनलाइन सिस्टम” के प्रति मोह और प्रेम किसी से छिपा नहीं है। नोट, शिक्षा और वो तमाम संरचनाएं और सेवाएं जो सीधे सरकार और जनता के सरोकार पर आधारित थीं उनसे हालिया सरकारें मुँह मोड़ते हुए नज़र आ रही हैं और इनका लगातार व्यावसायीकरण हो रहा है। इस संदर्भ में नोटबंदी के समय में “पेटीएम के होर्डिंग पर भारतीय प्रधानमंत्री का आदमकद इश्तेहार” उल्लेखनीय और आँख खोलने वाला है। इसी संदर्भ में स्किल इंडिया और डिजिटल इंडिया जैसी भारत सरकार की अतिमहत्वाकांक्षी योजनाएं भी उल्लेखनीय हैं। ई-बस्ता (डिजिटल रूप में स्कूल की किताबें), ई-एजुकेशन (सभी स्कूलों को ब्रॉडबैंड और फ्री वाईफाई से जोड़ना), पायलट MOOCs (मैसिव ऑनलाइन ओपन कोर्स), नंदघर (शिक्षण सामग्री के रूप में डिजिटल टूल्स का विकास), SWAYAM (MOOCs, 9वीं कक्षा से लेकर पोस्ट-ग्रेजुएशन तक की कक्षाओं के पाठ्यक्रम पर आधारित है), और इंडिया स्किल्स ऑनलाइन (कौशल प्रशिक्षण के लिए पोर्टल का विकास)- इन तमाम परियोजनाओं से ये जाहिर है कि सरकार की मंशा क्या है और वो किधर को चल पड़ी है।
ऑनलाइन शिक्षा के लिए ज़रूरी आधारभूत संरचना का अभाव
‘ऑनलाइन शिक्षा’ का विकल्प एक “आपातकालीन कदम” के रूप में ले लिया गया। इस संबंध में “ऑनलाइन शिक्षा” के निष्पादन के लिए ज़रूरी “संरचनात्मक आवश्यकताओं” पर ध्यान भी नहीं दिया गया। ऑनलाइन शिक्षा को सुचारु रूप से जारी रखने के लिए कुछ मूलभूत संरचनाओं की आवश्यकता होती है जैसे- कंप्यूटर, लैपटॉप, स्मार्ट फ़ोन, इलेक्ट्रिसिटी और हाई स्पीड इंटरनेट आदि। क्या भारतवर्ष के सभी घरों में इनकी उपलब्धता है? इन आधारभूत संरचना के निर्माण का भार किसके ऊपर होगा? इन सुविधाओं की आपूर्ति पर आने वाला खर्च किसे वहन करना होगा? ये कुछ मौलिक प्रश्न हैं जिनका समाधान और निराकरण व्यवस्था को करना था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं और संरचनात्मक आवश्यकतों को पूरा करने का भार अंततः अभिभावक के जिम्मे ही आन पड़ा।
इन सब के बावजूद अभिभावकों के बीच भी यह कोई वैचारिक सवाल नहीं बन पाया। उल्टे अभिभावकगण जैसे-तैसे आकस्मिक रूप से लिए गए इस फैसले से कदम-ताल मिलाने के लिए एक से बढ़कर एक तिकड़म और जुगाड़ में भिड़ गए हैं। कर्ज़ पर स्मार्ट फ़ोन लिया जा रहा है, दूसरे परिचितों से पैसा लेकर बच्चों का क्लास चलाया जा रहा है। सिग्नल के अभाव में बच्चे घर की सबसे ऊँची छत तथा छप्पर पर बैठ कर क्लास कर रहे हैं। भगवान भरोसे वाली व्यवस्था स्थापित की जा रही है। ऐसे में ऑनलाइन शिक्षा की सामाजिक और आर्थिक पहुँच का सवाल एक गंभीर शैक्षणिक विमर्श का मसला बन कर उभरा है।
आर्थिक, सामाजिक असमानता को व्यवहारिक बनाने का कुचक्र
बच्चों की सामाजिक और आर्थिक पहुँच शैक्षणिक विमर्श का एक बड़ा राजनीतिक मसला रहा है। आज शैक्षणिक परिधि के अंदर बच्चों की सामाजिक और आर्थिक पहुँच के आधार पर बहुस्तरीय शैक्षणिक व्यवस्था कायम की जा चुकी है अर्थात आज बच्चों की शिक्षा का आधार अभिभावकों का बैंक बैलेंस निर्धारित करने लगा है। इस बहुस्तरीय शिक्षण व्यवस्था ने सामाजिक स्तर पर विषमता, असमानता और अमानवीयता का सृजन और सुदृढ़ीकरण किया है। लर्न फ्रॉम होम उसी दिशा में बाजारवादी तत्वों और मूल्यों को व्यवस्थित रूप से स्थापित करने का एक ठोस प्रयास है। शिक्षा के संदर्भ में सामाजिक एवं आर्थिक असमानता को पाटने हेतु “एक समान शिक्षा प्रणाली” जैसी मांगों को धता बताते हुए गैरबराबरी और असमानता की जमीनी हकीकत और उससे जुड़े संघर्ष और संघर्षों की पृष्ठभूमि को निरस्त करने का एक और प्रयास है। शिक्षाविदों को इस पूरे प्रपंच की इस आधार पर भी समीक्षा तथा विवेचना करनी चाहिए। इस संबंध में जरुरी राजनीतिक विमर्श और पहल के लिए भी उन्हें आगे आना चाहिए।
वर्चुअल बनाम बास्तविक क्लासरूम
क्लासरूम आधारित शिक्षण पद्धति की अपनी कमियाँ और जटिलताएं हैं जिनके संबंध में समय-समय पर बात, विचार होता रहा है लेकिन ये भी सही है कि एक बार क्लासरूम तक पहुँच जाने के बाद कमोबेश सभी बच्चों को सीखने का एक समान माहौल और मौका मिलता है। जितना हो, जैसा हो सभी बच्चों को क्लासरूम के अंदर शिक्षक, शिक्षण सामग्री और शिक्षण के लिए आवश्यक माहौल उपलब्ध हो जाता है। क्लासरूम कैसा हो? क्लासरूम को सभी बच्चों के लिए समान रूप से कैसे प्रभावी बनाएं? सीखने के क्रियाकलाप में सभी बच्चों की भागीदारी कैसे सुनिश्चित करें? ये कुछ वैसे प्रश्न हैं जिनसे शिक्षक को प्रतिदिन उलझना पड़ता है और अपना रास्ता निकालना पड़ता है। इन सभी संबंधों और द्वंद्वों के निपटारे के लिए पूरा एक तंत्र मौजूद होता है जो इस व्यवस्था को बनाए रखता है।
इसके विपरीत वर्चुअल क्लास को सुचारु रूप से चलाने में अभिभावक और स्कूल दो अलग केंद्र बन जाते हैं। वर्चुअल क्लास को चलाने का पूरा भार अभिभावक के ऊपर डाल दिया गया है, बिना इस बात की जांच-परख किए कि अभिभावकों के पास वर्चुअल क्लास चलाने की संरचनात्मक, भौतिक और शैक्षणिक तैयारी है भी या नहीं जिसकी वजह से पारिवारिक स्तर पर आपसी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो रही है। बच्चों के साथ कौन बैठेगा? बच्चों के क्लास की जिम्मेदारी परिवार में किसकी होगी? इस पर आने वाली लागत का निपटारा कैसे होगा? इस से संबंधित तकनीकी अड़चनों का समाधान कैसे होगा? आखिर परिवार इस कड़ी का हिस्सा हीं क्यों हो? वर्चुअल क्लास से संबंधित ये कुछ ज़रूरी शिक्षणशास्त्रीय प्रश्न हैं, जिनको आज शिक्षणशास्त्रीय विमर्श के केंद्र में होना चाहिए था।
मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक मूल्यों से समझौता
इन्हीं बातों पर विचार करते हुए सहसा ज़ेहन में ये बात कौंध जाती है कि हालिया दिनों में स्कूली शिक्षा के अंदर भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक संदर्भों पर कितना जोर दिया जाता रहा है। इस से जुड़े सवालों और संदर्भों से अभिभावकों को लगातार अवगत कराया जाता रहा है। अभिभावकों को इस से अवगत कराने के लिए नियमित रूप से ‘प्रशिक्षण एवं कार्यशालाओं’ का आयोजन किया जाता रहा है। स्कूली तंत्र और व्यवस्था के द्वारा ये दर्शाया जाता रहा है कि आधुनिक शैक्षिक कर्म में बच्चों के प्रति स्कूल कितने चिंतित, सजग और संवेदनशील हैं। आम दिनों में इन्हीं स्कूलों द्वारा बच्चों के स्क्रीन टाइम को नियंत्रित करने का परामर्श और ज्ञान दिया जाता रहा है, जिसके लिए अभिभावकों को विशेष रूप से संवेदनशील बनाया जाता था। अब अभिभावक परेशान है कि उसका बच्चा पूरे-पूरे दिन स्क्रीन के सामने है और ज्ञान देने वाले शिक्षाशास्त्रीय जन अदृश्य हैं। ऐसा जान पड़ रहा है कि अभी इस वक्त पर इन सभी प्रकार की ‘चिंताओं और संवेदनाओं’ को किसी ‘गठरी’ में बांध कर सुरक्षित रख दिया गया है।
इस स्थिति में तात्कालिक व्यवस्था के कारण परिवार तथा बच्चों के ऊपर भीषण भावनात्मक तथा मनोवैज्ञानिक बोझ बढ़ा है, जिसकी पुष्टि इस संबंध में आने वाली चिंताजनक और दुखद घटनाओं के माध्यम से हो रही है। इस बात की गंभीरता को प्रमाणित करने के लिए दो अलग – अलग जगहों से, दो बच्चों के द्वारा की जाने वाली ख़ुदकुशी के मामले उल्लेखनीय हैं।
शिक्षा मानवीय चेतना और संवेदना से जुड़ा एक गंभीर विषय है जिसके निष्पादन के लिए एक मजबूत शैक्षणिक व्यवस्था की आवश्यकता होती है। अभी के समय में तात्कालिक व्यवस्था जिससे अपना पिंड छुड़ाती हुई नजर आ रही है।
परिचय: मनीष कुमार शिक्षण प्रविधियों के जानकार, एक शिक्षक एवं प्रशिक्षक हैं। उन्होंने हिंदुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में स्कूल और बच्चों के साथ शिक्षा के विभिन्न आयामों पर काम किया है।