अयोध्या में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद केस के फैसले के बाद से इस तरह के मामलों की बाढ़ आ गई। उसके बाद से हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोजे जाने की होड़ लग गई। सबसे ज्यादा चर्चा कृष्ण जन्मभूमि मथुरा की है जहाँ कृष्ण के जन्मस्थल से सटी हुई एक मस्जिद है जिसे श्रीकृष्ण का असल जन्मस्थान होने का दावा किया जा रहा है। काशी विश्वनाथ मंदिर से भी सटी हुई एक मस्जिद है। तो इस मुद्दे पर राजनीति होना तय थी। नारा लगने लगा- “अयोध्या तो अभी झांकी है मथुरा काशी बाक़ी है।” उसके बाद से जिसे भी चर्चा में आना होता है वो किसी मस्जिद का मामला लेकर कोर्ट पहुँच जाता है और वहाँ की खुदाई की मांग करने लगता है।
ऐसे ही कुछ दिन पहले मध्य प्रदेश का एक मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट। खजुराहो के जावेरी मंदिर का। एक जनहित याचिका दाखिल हुई जिसमें भगवान विष्णु की जीर्ण-शीर्ण सात फुट की मूर्ति के जीर्णोद्धार की मांग की गई लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई की बेंच ने इसे पब्लिसिटी बताते हुए रिजेक्ट कर दिया और मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि अगर भगवान के इतने बड़े भक्त हो तो उन्हीं से जाकर कहो कि कुछ करें और जाओ उनकी पूजा करो।
ये मंदिर पुरातत्व विभाग की देखरेख में है तो उसका क्या करना है, कैसे संरक्षित करना है इसका निर्णय वही करेगा। जहाँ तक बात है सीजेआइ की टिप्पणी की, तो रिजेक्ट करना उनके अधिकार क्षेत्र में है लेकिन ये टिप्पणी किसी आस्थावान व्यक्ति या किसी नागरिक के लिए तो ठीक नहीं है। इस देश का हर नागरिक अपनी बात लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जा सकता है और उसे स्वीकार करना या नकारना कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में है उचित तर्कों के साथ।
इस टिप्पणी पर बवाल हुआ, विरोध हुआ, इसे धर्म के अपमान के तौर पर देखा गया और जातिगत राजनीति भी भड़की। सोशल मीडिया पर विरोध के बाद सीजेआइ ने भी कहा कि मैं सभी धर्मों का सम्मान करता हूँ। बात फिर आई गई हो गई लेकिन इस मामले के कुछ दिन बाद बीते 6 अक्टूबर को 72 वर्षीय सुप्रीम कोर्ट के एक वकील ने सीजेआइ पर जूता फेंकने की कोशिश की। वो भी इसलिए कि उन्होंने विष्णु की मूर्ति को लेकर जो टिप्पणी की थी वो उससे आहत थे। वकील ने नारे भी लगाए- “सनातन का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान।” वकील को हिरासत में लिया गया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे रिपोर्ट नहीं किया तो उसे छोड़ दिया गया। कायदे से तो मुकदमा चलना चाहिए और सुरक्षा व्यवस्था पर भी सवाल है। अब वकील छूटने के बाद छाती चौड़ी करके न्यूज़ चैनल्स को बाइट दे रहा है कि मैंने वही किया जो भगवान ने करवाया, मुझे इसका कोई पछतावा नहीं है और मैं जेल जाने को तैयार हूँ। इस तरह से कोई सनातन का अपमान करेगा तो ऐसा ही होगा।
अब आते हैं जनता पर। जो जनता कदम-कदम पर अन्याय झेलती है और उसे न्याय नहीं मिलता वही जनता न्याय व्यवस्था के मुखिया पर जूते फेंकने की घटना पर खुश हो रही है। जिनकी खुद एफआइआर दर्ज नहीं होती, जिनके मामलों को दबा दिया जाता है वे इस बात पर खुश हो रहे हैं कि सीजेआइ के साथ सही हुआ। वकील तो बकरा बन गया लेकिन इससे ये पता चल गया कि कितने ऐसे लोग हैं जो इस तरह की मानसिकता के हैं और इसका समर्थन करते हैं। ऐसा करने की ख्वाहिश तो हजारों लोगों की थी, बस करने का मौका नहीं मिल रहा था। कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म जनता की अफीम है। ये बात आए दिन सिद्ध होती रहती है और ये घटना भी इसका सटीक उदाहरण है।
लोगों को असल मामलों से मतलब नहीं है लेकिन धर्म के नाम पर मारने-मरने को तैयार हैं। किसी देश के लिए कितनी शर्म की बात है कि देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश के ऊपर जूता फेंका जा रहा है और लाखों लोग इसका जश्न मना रहे हैं। ये सोचने की बात है कि ऐसे लोग फिर किस मुँह से न्याय माँगेंगे और किस हक से न्याय व्यवस्था पर विश्वास करेंगे?
बात यहीं तक नहीं रुकती! दो धड़ा बंट जाता है जातियों में, दलित और उच्च वर्ण में। आप कितना भी विकास करने का दावा कर लें, आर्थिक विकास का दावा कर लें लेकिन अभी भी किसी पद का किसी संस्था का या किसी व्यक्ति का आकलन उसकी जाति और धर्म के आधार पर ही होता है। किसी व्यक्ति ने क्या बात कही उसका अर्थ इस बात पर निर्भर करेगा कि वह किस जाति या किस धर्म या किस स्टेट का है।
तिरंगा हिंदू लहराए तो नॉर्मल बात है लेकिन मुस्लिम लहराए तो देशभक्त है और ये ख़बर है। क्यों? पता नहीं! ब्राह्मण जाति का कोई व्यक्ति ब्राह्मणवाद को गाली दे तो ऊँची सोच वाला, अच्छी सोच वाला लेकिन कोई दलित ग़लत बोले तो वो जाति-विरोधी और ब्राह्मण-विरोधी हो जाता है। यूपी-बिहार वाला अपने प्रदेश की कमी बताए तो ताली मिलेगी लेकिन साउथ का या महाराष्ट्र का कोई व्यक्ति आलोचना करे तो हिंदी-विरोधी। कुछ तथाकथित स्वघोषित यूट्यूबर-पत्रकार खुलेआम मुख्य न्यायाधीश को गरिया रहे हैं, तू-तड़ाक कर रहे हैं, उन पर हमले को जस्टिफाई कर रहे हैं, हमला करने की बातें कर रहे हैं लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं होगी क्योंकि वे किसी खास धर्म के हैं तो वो बोल सकते हैं। यही बात कोई मुस्लिम बोला होता तो अब तक वो जेल में जा चुका होता उस पर मुकदमा चल चुका होता, कंटेम्प्ट लग जाता, रासुका लग जाता और वो अब तक आतंकी घोषित हो चुका होता। ये है अंतर किसी जाति या धर्म से होने में।
भारत की पीढ़ी इतनी कमजोर कभी नहीं थी कि अपने खुद के विचार के लिए किसी और की जुबान का रंग देखे और फिर उसे चाटकर अपना रंग भी वही कर ले। अब उसे ख़ुद तय करना होगा कि वह कैसा होना या दिखना चाहती है। अपना विचार बनाना चाहती है या उधार की सोच के नासूर के साथ आगे बढ़ना! लोकतंत्र ज़िंदाबाद!
CJI पर जूते का जश्न: लोग अब किस मुंह से इंसाफ मांगेंगे और न्याय व्यवस्था पर विश्वास करेंगे?
