बिहार के मुख्यमंत्री फिलहाल समाधान यात्रा पर हैं। नीतीश कुमार यात्री हैं। लगातार यात्राएं करते हैं। फरवरी 2005 में ‘न्याय यात्रा’ निकालने के बाद नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। वह पिछले 18 वर्षों में 13 यात्राएं निकाल चुके हैं। समस्या केवल एक है कि इस यात्री को पता नहीं है कि उसकी मंजिल क्या है, न ही प्रदेश की जनता को यह पता है कि आखिर मुख्यमंत्री एक यात्री के तौर पर देख क्या रहे हैं, समझ क्या रहे हैं और सीख क्या रहे हैं?
पॉलिटिकल साइंस में हमारे एक टीचर ने एक बार बताया था, ‘औचक किया काम अभूतपूर्व और सफलता देता है। दुबारा वही करना नकल कहलाता है। तीसरी बार वह भद्दा कैरिकेचर बन जाता है।’ 2005 का बिहार अलग था। उस समय नीतीश की ‘न्याय यात्रा’ सुपरहिट रही थी। लोगों के मन में एक आस जगी, एक उम्मीद का बिरवा लगा। नीतीश भूल गए कि मुख्यमंत्री वह जनता के आशीर्वाद से बने हैं, न कि किसी यात्रा से, हालांकि इसे उन्होंने लगभग सालाना ईवेंट बना लिया और अब वह भद्दा कैरिकेचर हो गए हैं। राहुल गांधी तो अपने अजीबोगरीब बयानों से अपनी यात्रा में हैप्पीनेस या ‘कॉमेडी कोशेंट’ भी डालते हैं, लेकिन नीतीश की यात्रा बिल्कुल सूखी है। उसमें तो कॉमेडी भी नहीं है।
नीतीश 18 साल से सत्ता में हैं। दो बार राजद की मदद से अल्पकाल के लिए। बाकी समय भगवा पार्टी यानी भाजपा ने उनकी पालकी ढोयी है। लगभग दो दशकों का समय कम नहीं होता। कमाल की बात है कि नीतीश की इस यात्रा का नाम ‘समाधान यात्रा’ है। इससे यह प्रतीत होता है गोया नीतीश जी ने सारी समस्याएं समझ ली हैं और न केवल समझ ली हैं, बल्कि उनका समाधान भी सोच लिया है, कर लिया है।
18 जिलों में जाने वाली उनकी इस यात्रा का घोषित उद्देश्य तो उन्होंने उनके कामकाज की समीक्षा करना बताया है, लेकिन उनके सिपहसालारों ने इस यात्रा का एक और संदेश निकाल लिया है। वह संदेश है, जो पिछले कई वर्षों से बिहार में चलता आ रहा है। यह यात्रा जब भोजपुर पहुंची तो वहां कारिंदों ने एक महादलित बस्ती को बल्लियों और चादरों से ढंक दिया। यह 19 जनवरी की बात है। इसलिए ढंक दिया कि मुख्यमंत्री को गंदगी न दिखे।
ढंक तो दिया, लेकिन महादलितों की समस्याएं न दिखीं। वे पानी नहीं ला सकते थे, शौच नहीं जा सकते थे, निकल नहीं सकते थे। पूरे 6 से 8 घंटे तक की निरर्थक कैद उन्हें झेलनी पड़ी थी। बिहार में ढंकने का ही चलन है। यही काम तब हुआ था, जब प्रकाश-पर्व मना था, गुरु गोविंद सिंह की 300वीं जयंती पर। तब भी सारे पटना के नालों, कूड़ों को बेहद नफीस कालीनों और झाड़-फानूसों के नीचे धकेल दिया गया था। आज भी वही हो रहा है।
अधिकारियों पर आरोप है कि नीतीश की यात्रा से पहले वह उन लोगों को सिखा-पढ़ा देते हैं, जो मुख्यमंत्री से मिलने वाले हैं। यह एक ओपेन सीक्रेट है। यह केवल नीतीश के साथ ही नहीं होता। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी एक बार किसी दलित के यहां भोजन करने गए थे, तो आरोप लगा था कि बर्तन से लेकर बिछावन तक सब कुछ बदल दिया गया और मुख्यमंत्री के निकलते ही सब कुछ वापस भी कर दिया गया था। शायद यही वजह है कि नेताओं का जमीन से रिश्ता लगभग टूट जाता है और वह आभासी गणनाओं, तकनीक विशारदों, ज्योतिषियों, नजूमियों और बाबाओं के चक्कर में पड़ जाते हैं।
नीतीश हों या आदित्यनाथ, इनको चारों तरफ से इस तरह तंबू-कनात में कस दिया जाता है, सब कुछ इतना हरा-हरा दिखलाया जाता है कि इन्हें लगता है कि सावन ही सावन है, जबकि वास्तव में पूस की हाड़ कंपाने वाली रात या जेठ की दुस्सह गर्मी बरस रही होती है।
जिस तरह मोदी के आने के बाद से भारत की राजनीति 2014 के पहले और 2014 के बाद में बंट गयी है, नीतीश के पास भी मौका था कि वह बिहार की राजनीति को नीतीश के पहले और नीतीश के बाद में बांट देते। अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने यह किया भी। य़ही वजह रही कि बिहार की जनता ने झूमकर उन्हें वोट भी दिया। बाद में न जाने किस अहमक ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब दिखा दिया और तब से वह एक ही काम कर रहे हैं। बिहार की समस्याओं को चमकदार कागजों, पन्नियों और कनातों से ढंकने का।
कभी वह परदा शराबबंदी का होता है, तो कभी पौधारोपण का, कभी वह दहेज-विरोधी आंदोलन में बदल जाता है, तो कभी जल-कल आंदोलन में बदल जाता है। कभी नीतीश समाज-सुधारक का बाना धारण कर लेते हैं, तो कभी स्कूल के उस खीझे हेडमास्टर में बदल जाते हैं, जो यह जानता ही नहीं कि उसे अपने स्कूल का करना क्या है?
शायद, कभी नीतीश के हरावल दस्ते के प्रमुख रहे प्रशांत किशोर ठीक ही कहते हैं, जब वह नीतीश को चुनौती देते हैं कि बिहार के किसी भी गांव में वह अपने अमले के साथ एक किलोमीटर भी चल कर दिखाएं। शायद मुख्यमंत्री को भी यह पता है।
बिहार के साथ सबसे बड़ा गड़बड़ यह हुआ है कि जिस वक्त औऱ जिनको विद्रोह करना था, वे सभी बाहर चले गए। बिहारियों के साथ पलायन जैसे नैसर्गिक गुण की तरह है। इसको आप भोजपुरी गानों की प्रगति से भी आंक सकते हैं। पहले जहां ‘रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे…’ का केंद्र अकेला कलकत्ता (आज का कोलकाता) था, वह आज बेंगलुरू, दिल्ली और हैदराबाद के जरिये अरब पहुंच गया है। हर साल खबर छपती है कि बिहार का सहरसा स्टेशन एक दिन में दिल्ली या कहीं और बाहर जाने के लिए सबसे अधिक टिकटों की बिक्री करने वाला स्टेशन बना, या गोपालगंज-सीवान से सबसे अधिक लोग यूएई गए, लेकिन इन खबरों को विषाद की जगह हार्दिक तौर पर लिया जाता है।
फिलहाल, बड़े भाई से अलग चल रहे भाजपाई सुशील मोदी जब बिहार के उप-मुख्यमंत्री और अर्थमंत्री थे, तो बड़े चाव से इन आंकड़ों को अपनी उपलब्धि बताते थे। आजकल नीतीश कुमार ने वह दायित्व ले लिया है। बिहारियों की महाराष्ट्र से लेकर गुजरात-कर्नाटक और पूरे देश में जहां-तहां पिटाई पर शर्मिंदा होने के बजाय नेता कहते हैं कि राष्ट्र के निर्माण में बिहारियों का योगदान सबसे अधिक है। गोया, जो भी बिहारी बाहर निकला है, वह बाइ कंपल्शन नहीं, बाइ चॉयस निकला है।
आश्चर्य इस बात का भी है कि लगभग चार करोड़ प्रवासी बिहारी हैं जो पूरे अदब-कायदे से हर साल बिहार आते हैं, चुनावी मौकों पर जो योग्य हैं, वे भी आते हैं और फिर से उन्हीं टॉम, डिक या हैरी को चुन कर भी चले जाते हैं। यह असंभव सी नींद है, जिसमें राजनीतिक दलों को भी परवाह नहीं कि जनता उन्हें नकार सकती है और जनता तो यह भूल ही चुकी है कि उसका भी कोई हित होता है या नेता दरअसल उसके प्रति उत्तरदायी हैं।
वह तो उस प्रवासी बिहारी की तरह है जो किसी तरह छठ में आकर सात दिनों तक अपनी बदली हुई परिस्थिति को सबको दिखाकर, अपनी नव्यता को चुभलाकर वापस चला जाता है और जो बिहारी अभी बिहार में है, वह गुटखा चबाता हुआ यही सोचता है कि बालू या दारू में से किसकी स्मगलिंग अधिक मुफीद और आराम से करने वाली चीज है।