यह काफी पुरानी बात है। 1992-93 की। तब इस लेखक के एक रिश्तेदार समस्तीपुर में डिप्टी कलक्टर हुआ करते थे। किसी काम से उनके दफ्तर जाना पड़ा। काफी खस्ताहाल, अपनी किस्मत को रोता दफ्तर था। बस, साहब का कमरा जुगाड़-तकनीक से रहने लायक बना दिया गया था, हालाँकि, उसका भी सिंक खस्ताहाल ही था। उसकी टोंटी तक ठीक नहीं थी, उखड़ी हुई थी।
घर पहुँचने पर शाम को उनसे टोंटी के खराब होने या न बनवाने का कारण पूछा। उस समय तक जिले का डिप्टी कलक्टर छोटा भगवान हुआ ही करता था, उनका जितना बड़ा बँगला था, मानो राजमहल था। उन्होंने हँसकर जवाब दिया, ‘का हो? चाहत बाड़ा कि हमार नौकरी चल जाव… हम टोंटी लगा देम आ फेर जाँच बैठी त के सही?’
इसके बाद उन्होंने लाल-फीताशाही की विराट दास्तान सुनाई कि उस दो-चार रुपये की टोंटी के लिए फाइल बनेगी, फिर वह दो-चार महीने घूमेगी, तब सैंक्शन होगा, फिर कहीं टोंटी लगेगी। तब तक उनका ट्रांसफर तय है, इसलिए वह अगले की चिंता अपने मत्थे क्यों लें?
वह खुद की जेब से खरीद कर क्यों नहीं लगवा देते, इस पर उनका शास्त्रीय जवाब था, ‘अव्वल तो सभी जगह की ये हालत है, फिर मैं कितनी जगह ठीक करवाऊंगा अपने पैसों से? दूजे, मेरे ऊपर क्यों विभागीय जाँच बिठवाना चाहते हो?’
इस बात की तसदीक के लिए आप चाहें तो वरिष्ठ पत्रकार निराला और शमोएल अहमद की बातचीत भी पढ़ सकते हैं, जो तहलका मैगजीन में शाया हुई थी। शमोएल साहब इंजीनियर और कथाकार थे और बिहार सरकार के मुलाजिम भी। जब लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे, तब की कथा है। लालू किसी गेस्ट हाउस में पहुँचने वाले थे और वहां बदइंतजामी का ये आलम था कि टॉयलेट में पानी तक नहीं आया था। लालू को अंदर से चिल्लाना पड़ा। अहमद साहब उसी को ठीक करने पहुँचे थे। बाकी कहानी तो खैर जो हुई सो हुई, यह किस्सा साझा करने के पीछे पाठकों को यह बताना है कि जब मुख्यमंत्री के साथ यह हादसा हो सकता था, तो बाकी बिहार में क्या हो रहा होगा, यह कल्पना ही की जा सकती है।
अब बात 2022 के बीते नवंबर में पटना की एक उचाट सी दोपहर की, जब वहां की सबसे पॉश सड़क बेली रोड पर स्थित सरकारी इमारतों के बीच एक लड़खड़ाते भवन के बोशीदा कमरे में एक वरिष्ठ नौकरशाह से बात हो रही थी। ऊपर बतायी रिश्तेदार वाली घटना का जिक्र जब उनसे मैंने किया, तो उन्होंने एक मोटी गाली दी और कहा, ‘ए पत्रकार महोदय! आपको लालूजी से ज्यादा समस्या है तो उसका कोई व्यक्तिगत कारण खोजिए। बाकी, अभी तो जो चचा हैं (चचा यानी नीतीश कुमार) उनके राज में जाकर जरा पता कीजिए, कितनी टोंटी बनाने की हिम्मत बची है नौकरशाहों में।’
उसके बाद गंभीर होते हुए इन मित्र ने जो कुछ बताया, उसका सार यह है कि नीतीश कुमार के राज में नौकरशाही की कमर तोड़ दी गयी है। फिलहाल तो आलम ये है कि टोंटी छोड़िए, टोंटी का एक पेंच तक खरीदने की कोई हिमाकत नहीं करता। इसकी वजह भी है। तकरीबन 1400 डिप्टी कलक्टर रैंक के अधिकारी अगर पूरे बिहार में हैं, तो लगभग 800 किसी न किसी तरह से विभागीय या किसी भी तरह की जाँच के दायरे में हैं। एक लोढ़ा का नाम तो लोग हाल ही में रिलीज वेब-सीरीज की वजह से जान गए, लेकिन चाहे राज्य सेवा के लोग हों या केंद्रीय सेवा के, चाहे आइएएस-आइपीएस हों या डिप्टी कलक्टर-डीएसपी, बिहार में दूध के जले सभी छाछ ही नहीं, पानी भी फूंक-फूंक कर पी रहे हैं।
तीस वर्षों से बिहार में विद्रोह नहीं हुआ है। सच पूछिए तो जनता पार्टी को सत्ता में लाने वाला जो आंदोलन था यानी जयप्रकाश नारायण का, उसके बाद लालू और नीतीश दोनों के पंद्रह वर्षीय शासन काल में (जिसमें बीच में राबड़ी और जीतनराम मांझी जैसे एक्स्ट्रा प्लेयर भी आए) बिहार हरेक मानक पर नीचे से नीचा चला गया, लेकिन वहां की जनता ने चूँ तक नहीं की। तकरीबन चार करोड़ बिहारी बाहर रहते हैं, लेकिन यह कोई मुद्दा नहीं है। बाहर वाले आते हैं, वोट देते हैं और चले जाते हैं। बिहार हरेक पायदान पर दो कदम और पीछे खिसक जाता है।
मनोवैज्ञानिक शालिनी सिंह इस बात को कुछ इस तरह समझाती हैं, ‘देखिए, जेपी का जो आंदोलन था, वह सत्ता के प्रति हिकारत को जन्म दे गया। कानून तोड़ना शायद कायदे की बात बन गया। किसी भी तरह से अवज्ञा करना तमगे के काबिल बन गया और यह एक आदत में शुमार हो गया, बिहारियों के अंतर्मन में गुँथ गया।’ नौकरशाह मित्र उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए जोड़ते हैं, ‘आप देखिए, नीतीश से लेकर लालू और सुशील मोदी-रामविलास तक तो उसी जनता आंदोलन के प्रोडक्ट हैं।’
अगर सत्ता के खिलाफ इतनी घृणा बिहारी मानस में है, तो फिर एबीसीडीइएफजीएचआइ…ए..एस क्यों सीखता है बिहार का बच्चा?
यही वह द्वैत है, जो बिहार की खासियत है और जिसे समझना बड़ा मुश्किल है। बिहार का समाज चूँकि विराट तौर पर अब भी सामंती या अर्द्ध-सामंती ही है, क्योंकि सत्तर के दशक के बाद बिहार ने पीछे की ही यात्रा की है, आगे उसने देखा ही नहीं, तो औद्योगिक विकास से होते हुए सेवा क्षेत्र के विकसित होने की बात आई ही नहीं। बिहार अब भी खेतिहर समाज ही है, मूलतः।
तो, स्वप्न तो उस अब्सोल्यूट पावर का सभी देखते हैं क्योंकि सभी को पता है कि प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) में जाने पर आप निरंकुश हो सकते हैं; बिना जिम्मेदारी के भरपूर माल कूट सकते हैं; मजा काट सकते हैं और आपका रुतबा बढ़ सकता है। अंतर्मन में हालांकि, यही ऑब्सेशन घृणा बनकर बैठा हुआ है। यही वजह है कि अगर किसी गाड़ी पर कुछ नहीं लिखा है और उससे एक्सfडेंट हो गया है, तो एक बार को संभावना है कि ड्राइवर और गाड़ी दोनों ही बच जाएं, लेकिन अगर उस गाड़ी पर प्रशासन लिखा है, तो गाड़ी और ड्राइवर दोनों के कूटे और फूँके जाने की अधिक संभावना है।
सत्ता के प्रति यही दुर्भाव और व्यक्ति की निरंकुशता के प्रति यही ऑब्सेशन आपको पटना में या बिहार के किसी जिले में सुनवा सकता है, ‘चीन्हत ना हते का रे…’] यानी पहचानते नहीं हो क्या बे? लहरिया कट मारता कोई भी बाइक सवार लौंडा किसी पुलिसवाले को थपडि़या सकता है या अंडे की भुर्जी के पैसे मांगने पर किसी दुकानदार को गोली मारी जा सकती है। व्यक्तिगत तौर पर हरेक बिहारी इतना अहंमन्य है कि छोटी-छोटी बातों के लिए गोली चल जाती है, चल सकती है, लेकिन समाज के तौर पर वह इतना असंपृक्त हो चुका है कि उसे फर्क ही नहीं पड़ता। आग की जद में जब तक किसी का अपना मकान नहीं होगा, उसे फर्क नहीं पड़ता कि पूरे मुहल्ले में आग लगी है। अपवाद बेशक हो सकते हैं, लेकिन आम तौर पर उदाहरण के साथ इस बात को साबित किया जा सकता है।
बेगूसराय में बूढ़ी महिला के साथ रेप हो या भोजपुर के इलाके में एक महिला को नग्न घुमाना, दरभंगा में सरेआम चौराहे पर किसी को जला देना हो या चाकूबाजी-गोली मारने की अगणित घटनाएं, यह बिहार के मानस में कानून और कायदे के प्रति गहरी बैठी बेअदबी को ही इंगित करते हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि अगर सरकारी जमीन है तो उस पर कब्जा जायज है, बिजली है तो मुफ्त जलाना अधिकार है, इमारत है तो उसकी काँच तोड़ देना मौज है और ये सब कुछ बेवजह भी हो सकता है- बस मौज के लिए।
बिहार: एक पुल के इंतज़ार में 42 साल से यहां ढलती जा रही हैं पीढ़ियां
नौकरशाहों की स्थिति तीन तरह से दर्दनाक है। पहली तो ये कि वे दूध के धुले नहीं हैं- जहां और जिन्हें मौका मिलता है, वे उसी काम में मसरूफ होते हैं, जिसके लिए बदनाम हैं। दूसरी बात यह कि जनता का भरोसा उन्हें नहीं मिलता है। तीसरा और सबसे अजीब काम बिहार में नीतीश कुमार ने किया है। बाहर तो छवि यह है कि नीतीश कुमार नौकरशाहों के भरोसे चलते हैं, लेकिन सच ये है कि नीतीश केवल खुद के भरोसे चलते हैं। कई बार तो शायद उन्हें भी यह पता ही नहीं होता कि वे आखिर चाहते क्या हैं? उनके आसपास एक कोटरी (अंग्रेजीवाली, हिंदी में जिसका मतलब गिरोह या संघ होगा) है जिसकी वह सुनते हैं, हालाँकि अंतिम फैसला उनको ही करना है और वह खुद की सुन कर ही करना है।
करेले चढ़े इस नीम की जड़ में बबूल के काँटे बिहार में जातिवाद ने बो दिए। उस पर अगली कड़ी में विस्तार से बात होगी।