दिल्ली का जाता बसंत
आज सुबह “सह विकास” के प्रांगण में बहुत सारे सेमल के फूल जमीन पर बिखरे हुए देखे।
घंटी के आकार के फूल अपने सुर्ख-पीले रंग में बेहद सुखद लग रहे थे। फूल जब अपने उरूज़ पर होता है तो उसकी छटा देखने लायक होती है।
सेमल का फूल अपने उरूज़ पर आकर पेड़ से गिर पड़ता है।
सुबह ही अपर्णा ने अपने पौधो के मुरझाए हुए फूलों को काटते हुए बताया था:
“अगर तुम इन्हें ना काटो तो पौधा उसे जिलाने की कोशिश में अपनी पूरी ताकत वहां लगाने लगता है”।
यह एक नई बात थी मेरे लिए।
खैर, मंडी हाउस लौटा तो थोड़ी देर बाद शकील सेमल के फूल लिए हुए सामने से आ रहा था। एक बेहद गरीब औरत ने फूल देखकर कहा:
“इसकी सब्ज़ी बनती है”।
शकील ने उसे रोककर बनाने की विधि जाननी चाही।
औरत ने भी सहर्ष बताना शुरू कर दिया:
“कुछ नहीं करना… प्याज टमाटर भूनों…और उनमें फूल के कटोरीनुमा बेस को डाल दो… जितने हरे हों उतना ज़ायका!”
बचपन में ऐसे बहुत से वनस्पति होते थे जिन्हें चुनकर गरीब लोग अपने स्वाद और पोषण की आपूर्ति करते थे।
चुनने का काम अधिकतर बच्चे और औरतें किया करती थीं। पेड़ों से लग्गी लगाकर सहजन की फलियां… जंगलों से बेर तोड़ना… जामुन, गूलर, शहतूत, इमली, आदि सड़कों से बीनना, पूरे दिन का शगल हो जाता था।
अब वो ज़माना नहीं रहा।
घोड़ों की कब्रें
शकील भाई से कब्रिस्तान का जिक्र चल निकला।
बातों बातों में मुझसे पूछ लिया:
“आपको पता है घोड़ों की भी कब्रें होती हैं?”
मैंने ना में सर हिलाया।
वो ऊपर के एक टूटे दांत से झांकते अंधेरे की खोह से नमूदार हुई सुरंग से बाहर आती छितरी दाढ़ी वाले चेहरे पर फैल गई चमचमाती मुस्कान के साथ बोला:
“बाकायदा इंसानी कब्रों के साथ ही दफनाया जाता है उन्हें… खासकर, पालतू घोड़ों को।”
“सभी कबिरस्तानों में?” मैंने पूछा।
“सब में नहीं।”
“आप लोग जिस कब्रिस्तान में ले जाते हैं, वहां?”
मेरी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी।
“हमारे ‘तकिए’ वाली कब्रिस्तान में तो नहीं, जो सिर्फ कसाइयों के लिए महफूज है। इसी कब्रिस्तान में ‘अफ़लातून’ की कब्र है जिनके बारे में कहा जाता है कि वे एक बगावती सूफी फकीर थे। उन्हें मुगलिया सिपाहियों ने हलाक कर दिया था। वे अपना कलम किया हुआ सर अपने हाथों में लेकर कब्रिस्तान की दहलीज तक पहुंचे थे।”
“तो फिर, घोड़ों को कहां दफनाते हैं?”
“फिल्मिस्तान सिनेमा घर के पास चमेलियान वाले कब्रिस्तान में।”
वो फिर सदर बाड़ा राव के इलाके के कब्रिस्तानों बारे में बताने लगा:
“इन कब्रिस्तानों में कभी बड़े जमावड़े लगा करते थे। मुर्गों, तीतरों, मेंडों (घुमावदार सींगों वाली भेड़े, जिनके बारे में मशहूर है कि वे अपने कूल्हों पे अपने मालिकों के अलावा किसी को हाथ नहीं लगाने देते थे) लड़ाइयां करवाई जाती थीं। अपनी टक्कर से जब वे कूल्हों पर हमला करते थे तो आदमी जीवन भर कूल्हे संभालता घूमता था।”
“सब खत्म हो गया, अब तो।”