आप न्यूज़ चैनल क्यों देखते हैं?


क्या आपने कभी सोचा है कि आप न्यूज़ चैनल क्यों देखते हैं? आप कहेंगे कि आप ख़बरों के लिए न्यूज़ चैनल देखते हैं। मान लेते हैं कि आप ख़बरों के लिए न्यूज़ चैनल देख रहे हैं, लेकिन क्या आपको ख़बरें दिखायी भी जा रही हैं? क्या आपको वो ख़बरें दिखायी जाती हैं जिनका आपके जीवन पर सीधा असर पड़ेगा। क्या आप जान पाते हैं कि देश दुनिया में क्या हो रहा है और आप पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा? क्या आप मानते हैं कि आपको सही सूचनाएं दी जा रही हैं? क्या आपको वो बुनियादी तथ्य बताये जाते हैं जिससे आप संबंधित विषय पर स्वतंत्र राय बना पाएं और निर्णय ले पाएं?

क्या मीडिया आपको सचमुच सूचित कर रहा है?

इसे आसानी से समझने के लिए कोविड का उदाहरण लेते हैं। क्या हिंदुस्तान के सारे न्यूज़ चैनल मिलकर आपको वैक्सीन के बारे में बुनियादी तथ्य भी बता पाए? क्या वैक्सिनेशन के खिलाफ फैली अफवाहों को तथ्यों के साथ बेअसर कर पाए? कोविड के बारे में आपके दिमाग में चल रहे सवालों के बारे में ज़रूरी एवं भरोसेमंद सूचनाएं और तथ्य आप तक पहुंचा पाए या इन्होंने आपको और उलझाया ही? प्रवासी मज़दूरों की स्थिति, कोविड से मौत, सरकार की विफलता आदि को मैं अभी छोड़ रहा हूं। अभी सिर्फ बुनि‍यादी तथ्यों और सूचनाओं के बारे बात करते हैं।

आप ये सोचिए कि क्या तमाम न्यूज़ चैनल देखने के बावजूद आपको ये बुनियादी जानकारी थी कि लॉकडाउन के दौरान क्या-क्या खुला रहेगा? ट्रेन कब चलेंगी? एक राज्य से दूसरे राज्य में आने-जाने के नियम क्या हैं? क्या ये बातें आपको न्यूज़ चैनलों के द्वारा बतायी गयी थीं या आपने बड़ी मुश्किलों से ये जानकारी खुद जुटायी और फिर भी कंफ्यूज़ रहे? इन सवालों पर गौर कीजिए और फिर दोबारा अपने आप से वही सवाल पूछिए कि आप न्यूज़ चैनल क्यों देखते हैं।

पत्रकारिता के एक माध्यम के रूप में टीवी चैनल भीतर से खोखला हो चुका है!

आपको सही सूचना मिले और समय पर मिले, ये आपका अधिकार है और सरकारों और मीडिया की ये ज़िम्मेदारी है, लेकिन क्या आपको सही सूचनाएं मिल पा रही हैं? क्या मीडिया आपको जो परोस रहा है आप उन ख़बरों पर यक़ीन कर रहे हैं? अगर आप यक़ीन नहीं करते हैं तो सोचें कि ये यक़ीन क्यों टूटा है और यक़ीन टूटने के बावजूद आप न्यूज़ चैनल क्यों देखते हैं। अगर आप इन ख़बरों पर यक़ीन करते हैं और दी जा रही सूचनाओं को सही मानते हैं तो ये सोचें कि इनको सही मानने का आपके पास क्या आधार है। क्या आप सबूतों के आधार पर किसी सूचना पर यक़ीन करते हैं या महज़ इसलिए कि वो न्यूज़ में दिखायी गयी है? आप कहीं इस वजह से तो सूचना और ख़बर को सही नहीं मान रहे हैं क्योंकि ये आपके पूर्वाग्रहों और धारणाओं के अनुकूल है? आपकी पहले से ही बनी हुई धारणाओं को ये ख़बर और मज़बूत कर रही है इसलिए आप भी थोड़ा दंभ से भर जाते होंगे कि देखा! मैं सही ना कहता था!

अगर आप ऐसा कर रहे हैं तो गलत कर रहे हैं। आप सबूतों के आधार पर स्वतंत्र निर्णय लेने और समझ बनाने की काबिलियत खो चुके हैं। अब आप खुद से ये सवाल भी पूछ सकते हैं कि आपको तथ्य परोसे जा रहे हैं या धारणाएं इंजेक्ट की जा रही हैं? आपको इस सवाल पर भी सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों किया जा रहा है? ये मुश्किल सवाल है, लेकिन ज़रूरी है।

फैक्ट और ओपिनियन

आमतौर पर दर्शकों को एक बड़ी उलझन फैक्ट और ओपिनियन के अंतर को ना समझने की वजह से भी होती है। यहीं पर गोदी मीडिया आपके साथ खेल करता है। न्यूज़ चैनलों के सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम डिबेट हैं जिनकी भाषा और स्तर हद दर्ज़े तक गिर चुका है, जहां आपको एंकर और प्रवक्ता ओपिनियन परोसते हैं। ये ओपिनियन आपको अलग-अलग तरह से हर रोज सैंकड़ो बार इंजेक्ट किये जाते हैं। धीरे-धीरे इन ओपिनियन और पूर्वाग्रहों को आप फैक्ट मानने लगते हैं। उदाहरण के तौर पर, मुसलमानों के 25 बच्चे होते हैं। ये धारणा बिना किसी केस स्टडी और सबूत के आपको परोसी गयी और आज इसे फैक्ट की तरह से इस्तेमाल किया जाता है।

आर्टिकल 19: जो चैनल चला रहा है, उसी को किसानों को भी लूटना है! खेल समझिए…

फैक्ट और ओपिनियन के मैदान में ही मीडिया आपको ठगता है। मीडिया ने फैक्ट और ओपिनियन के बीच के फर्क को चालाकीपूर्ण ढंग से मिटा दिया है क्योंकि मुख्य एजेंडा आपको सूचित करना नहीं बल्कि नैरेटिव गढ़ना है। इसकी अपनी एक राजनीति है, लेकिन आप ऐसा न मानें कि ओपिनियन जाहिर करना गलत है। ओपिनियन बहुत ही बेशकीमती चीज है और ओपिनियन पत्रकारिता का एक ज़रूरी हिस्सा है। हम बहुत सारी ख़बरों के सही मायने ओपिनियन की मदद से ही समझ पाते हैं। ये दुतरफा होता है। ओपिनियन के जरिये तथ्यों के मायने समझते हैं और तथ्यों के जरिये ओपिनियन बनाते हैं, लेकिन मीडिया ने इस प्रोसेस में बिगाड़ पैदा कर दिया है।

ओपिनियन के नाम पर पूर्वाग्रह, फेक नैरेटिव और प्रोपगेंडा परोसा जाता है। इस फेक नैरेटिव को गढ़ने के लिए तथ्यों को तरोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है ताकि नैरेटिव सेट हो सके। तथ्यों के आधार पर ओपिनियन नहीं बन रहे बल्कि ओपिनियन के आधार पर तथ्य गढ़ लिए जाते हैं और बहुत बार सीधे झूठ का सहारा लिया जाता है। दर्शक आमतौर पर इस घपले से अंजान रहता है और इसका शिकार बनता है।

तो अगली बार जब आप न्यूज़ देख रहे हों तो पहचान करने की कोशिश करें कि कब तथ्य बताये गए हैं और कहां पर ओपिनियन पेश किया गया है। इसे अपनी आदत का हिस्सा बनाएंगे तो अच्छा ही रहेगा। सही और वेरिफाइड सूचनाएं देना मीडिया की ज़िम्मेदारी है, लेकिन मीडिया अपनी प्राथमिकता बदल चुका है और वेरिफिकेशन नाम की कोई चिड़िया इनके दफ़्तरों में नहीं रहती। इसलिए अगर आप न्यूज़ चैनल देखते हैं तो सावधानी से देखिए।

सरकारें भी सही सूचनाएं नहीं दे रही हैं। ख़बरें और आंकड़े छिपाये जाते हैं और हेडलाइन मैनेजमेंट किया जाता है। आमतौर पर मीडिया सरकार के ही प्रोपगेंडा को आगे प्रसारित कर देता है और सरकार के हर काम और नीति को डिफेंड करता है। सरकार जो सूचनाएं दे रही है और जो छिपा रही है उस पर अलग बात होनी चाहिए। फिलहाल, बातचीत का दायरा सिर्फ न्यूज़ चैनल तक ही सीमित रखा गया है।


इसे भी पढ़ें:


(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं ट्रेनर हैं। वे सरकारी योजनाओं से संबंधित दावों और वायरल संदेशों की पड़ताल भी करते हैं।)


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *