सूबे की एक सड़क पर किसानों का जत्था निकला हुआ था। बैनर लगा हुआ था- किसानों का काला कानून वापस लो नहीं दो गद्दी छोड़ दो। किसानों के जत्थे के रास्ते में बीजेपी के कार्यकर्ताओं का जत्था मिल गया। दो जत्थों के इस संधिस्थल पर जो लाठियां चलीं कि पूछिए मत। अगर आप सोच रहे हैं कि लाठियां किसानों ने चलायीं तो सरासर गलत हैं। बीजेपी के कार्यकर्ताओ ने शाखाओं में ध्वज प्रणाम की लाज रखते हुए पुष्ट प्रतिभा का प्रदर्शन किया और रामजी की कृपा से प्रथम श्रेणी में पास हुए।
इसके बाद कुछ कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी के लोगों की नजरों में किसानों की इज्जत कितनी है, उनके अरमानों की कीमत कितनी है और उनका महत्त्व कितना है। कार्यकर्ता तो बस आदेशों के लिए दिल्ली की तरफ देखता है और उसके अक्षरश: पालन के लिए टूट पड़ता है। किसान सड़कों पर उतरे थे कि आपने आनन-फानन में संसद से जो कानून पास करवाया है वो हमारी जान ले लेगा। इन्होंने पहले तो कानून बनाकर किसानों की कमर तोड़ी, फिर लाठियों से। और अंत में नरेंद्र मोदी जिंदाबाद पर बात खत्म हो गयी। कार्यकर्ताओं ने किसानों से कहा कि इससे कम पर कोई समझौता नहीं होगा। किसान नरेंद्र मोदी जिंदाबाद का नारा लगाकर जान बचाकर लंगड़ाते हुए जैसे-तैसे घर पहुंचे। मरहम-पट्टी हल्दी-चूना लगाया।
आप सरकार को कोसेंगे। बीजेपी को बुरा भला कहेंगे। कोई फायदा नहीं है। दरअसल, किसानों के आंदोलन में देश की ही कोई दिलचस्पी नहीं है। किसानों के प्रदर्शन की रिपोर्ट में रिया और सुशांत वाला मसाला नहीं है। दीपिका पादुकोण वाला मज़ा नहीं है। कंगना राणाउत वाला नशा नहीं है। और ये जानते हुए भी नहीं है कि मसालों का ये जायका देश अब और हज़म करने की स्थिति में नहीं है। मसाला उतना ही अच्छा होता है जितने की इजाजत अनाज देता है।
इस देश के किसान इस देश के लोगों से बहुत सीधा सा सवाल पूछ रहे हैं- बताइए, आप हम किसानों के साथ हैं या हमारे खिलाफ हैं। यह सवाल उन्होंने उस नागरिक से पूछा है जो अनाज खाता है, दूध पीता है, मछली, अंडा, मांस, फल खाता है, बरहम बाबा पर फूल चढ़ाता है। इसमें टीवी के एंकर भी हैं। चैनलों के संपादक भी हैं। आइटी सेल के भाई लोग भी हैं और प्रधान जी के चरणों में बिछी माई लोग भी। मैं नहीं जानता कि उनका जवाब क्या है क्योंकि टीवी चैनल गांजा, चरस, भांग, अफीम की महान रिपोर्टिंग से पत्रकारिता का माथा ऊंचा करने में लगे हैं। हीरो-हीरोइनों की गाड़ी का पीछा करने में लगे हैं। उनकी चोटी, टिकुली, बिंदी का बखान करने में लगे हैं।
दरअसल, करोड़पतियों के नींद, चैन, सुकून का हिसाब-किताब करने में व्यस्त टीवी चैनलों को फुर्सत नहीं मिल पा रही है कि वो माथे पर चुहचुहाते पसीने से तरबतर किसानों की छिन चुकी नींद और सुकून की खबर ले लें और खबर दे दें।
कुछ तो वजह होगी जलते हुए देश में मज़े में डूबी बेफिक्री के पीछे। देश भर का किसान शुक्रवार के दिन सड़क पर था। भिवानी में, कुरुक्षेत्र में, मोगा में, अंबाला में, बीदर में, बेलगाम में। लाखों-लाख किसान सड़कों पर उतरे। ट्रैक्टर से उतरे। ट्राली से उतरे। पैदल मार्च करते हुए पहुंचे। नारे लगाते हुए पहुंचे। गीत गाते हुए पहुंचे। फरियाद करते हुए पहुंचे। एक से एक खूबसूरत झंडों के साथ। अपनी मांगों की पर्चियों और पोस्टरों के साथ- कि सरकार ऐसा जुलुम ना करो जो तुम कर रहे हो। सोचो क्या बच जाएगा हमारा। रातों रात हमारे खेतों में जो अडानी के साइनबोर्ड उग आये हैं। रिलायंस की दुकान में जो हमसे दू दू रुपया का मक्का खरीद के सौ-सौ रुपिया में बेच रहे हो इसमें हमारा फायदा नहीं है साहेब। हम किसान हैं, हमको मजदूर मत बनाओ। हम गरीब लोग हैं। नहीं लड़ पाएंगे तुम्हारे इन कॉरपोरेटन से। ये जो काला कानून बिना हमसे पूछेताछे जाने समझे हम पर थोपे जा रहे हो इससे हम बर्बाद हो जाएंगे। ऐसा न करो सरकार, ऐसा न करो।
गांव दर गांव, शहर दर शहर, सूबा दर सूबा किसानों का जत्था टोलियों में निकला, लेकिन ये लाखों लोगों का प्रतिरोध किसी को नजर नहीं आता। न मीडिया को, न समाज को और न सरकार को। आखिर क्या वजह है कि लाखों किसानों के सड़कों पर उतर जाने से भी सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ता? और जब सरकार को ये नजर नहीं आता, इससे फर्क नहीं पड़ता तो उसके इशारे पर नाचने वाले पत्रकारों को नजर क्यों आएगा? इसका सवाल ही नहीं उठता।
ट्विटर का अपना एक गणराज्य है। उसकी ट्रेंडिग देखकर टीवी चैनल वाले खबरों का एजेंडा तय करते हैं। भूत भभूत से लेकर बाबू शोना तक उसी ट्रेंड के मुताबिक महान पत्रकारिता में बदल जाते हैं। उसी के हिसाब से सरकार तय करती है कि आगे कैसे बढ़ना है, जवाब कैसे तैयार करना है। पूरे दिन किसानों को लेकर तीन ट्रेंड ट्विटर पर छाये रहे। पहला हैशटैग भारत बंद। हैशटैग सपोर्ट भारत बंद और हैशटैग भाजपा हटाओ किसान बचाओ। दूसरा हैशटैग नो फार्म बिल्स और तीसरा स्क्रैप एंटी फार्मर्स। ट्विटर के साम्राज्य के किरायेदार किसानों के ट्रेंड पर चूं तक नहीं करते। कुछ नहीं बोलते।
पत्रकारों और टीवी की चुप्पी के कारणों को समझने की कोशिश कीजिए। आपको याद होगा सितंबर के दूसरे हफ्ते में जब सुप्रीम कोर्ट में टीवी चैनलों की बहसों पर लगाम कसे जाने की जरूरतों पर बात आयी थी, उस समय मोदी सरकार ने कोर्ट में क्या कहा था। उसने कहा था कि आप टीवी चैनलों को लेकर चिंता मत कीजिए। आप तो यू ट्यूब, फेसबुक, ट्विटर इंस्टाग्राम पर जो सूचनाएं और विश्लेषण दिये जा रहे हैं उस पर लगाम कस दीजिए। वो हमारे काबू में नहीं आते। सरकार ने ऐसा क्यों कहा था?
आप टीवी चैनलों में कॉर्पोरेट घरानों की हिस्सेदारी देख लीजिए और किसानों पर आनन फानन में पास किया गया कानून देख लीजिए। मोदी जी का नया किसान कानून क्या कहता है? इसका पहला हिस्सा कहता है कि किसानों के लिए मंडी में ही बेचना जरूरी नहीं अनाज को। आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है। करोड़पतियों के दलाल थैली लेकर आएंगे और औने-पौने दाम में सारा माल उठा ले जाएंगे।
इसका दूसरा हिस्सा कहता है कि आपको जमा करके रखने की भी जरूरत नहीं है। हमारे करोड़पति भाई बहन हैं न आपसे कौड़ियों में खरीदा हुआ अनाज जमा करके रखने के लिए। 10 रुपए का मक्का 110 रुपए में बेचने के लिए। आप तो हाड़ तोड़कर कमाओ! हम हैं न मुनाफा कमाने के लिए!!
खेल को समझिए। जो आदमी टीवी चैनल चला रहा है उसी को किसानों को औने-पौने में लूटना भी है। इसलिए टीवी का दायित्व है कि लूट की इस छूट पर वो किसानों को समझाए कि देखो तुम्हारे दिन फिरने वाले हैं। मोदी जी ने तुम्हारी तकदीर के दरवाजे खोल दिए हैं। उनकी जय बोलो। और नहीं बोलोगे तो हम बोलवा लेंगे। सत्ता, कॉरपोरेट और मुनाफे के इस खेल में किसान कहीं है ही नहीं। और है तो केवल नारों में। इश्तेहारों में। भाषणों में। जयकारों में।
अब सबसे जरूरी सवाल। क्या देश ऐसे ही चलेगा जैसे सरकार चाहती है? क्या सरकार ऐसे ही चलेगी जैसे कॉरपोरेट घरानों के करोड़पति चाहते हैं? और साफ है कि कॉरपोरेट घराने वैसे ही चलेंगे जो ज्यादा से ज्यादा मुनाफे के लिए जरूरी होगा। और आखिर में सरकार का काम केवल इतना बचता है कि वो करोड़पतियों को अरबपति बना दे, अरबपति को खरबपति। सो वो कर रही है। माइनस 24 फीसद जीडीपी में भी एक आदमी की दौलत 34 फीसद बढ़ गयी है। आप समझ गये होंगे। नाम लेना जरूरी नहीं।
अगर आपको लगता है कि एक लोकतंत्र वैसे नहीं चल सकता जैसे केवल कॉरपोरेट चाहता है, जैसे केवल सरकार चाहती है, जैसे केवल करोड़पति, अरबपति-खरबपति चाहते हैं तो किसानों का साथ दीजिए। और उन लाठियों को तोड़ डालिए जो किसानों की कमर को तोड़ने को उठती हैं क्योंकि वो लाठियां किसानों की कमर को नहीं, इस देश की रीढ़ को तोड़ रही हैं। अगर आप समझ सकें तो ठीक और नहीं समझ सके तो 100 रुपए मक्का, 60 रुपए टमाटर, 45 रुपए आलू का मजा लीजिए। कौन रोक सकता है?