भारत के मौजूदा लोकतंत्र में ताज़ातरीन जासूसी के सनसनी और मानीखेज़ खुलासे से क्या प्रभाव पड़ सकता है? या कोरोना की दूसरी लहर के दौरान देश में मंज़रे आम हुई ऑक्सीज़न की किल्लत से किसी की मौत न होने के आधिकारिक जवाब से देश के मनोविज्ञान पर क्या असर होगा? दिन दूनी, रात चौगुनी महंगी होती जा रही मंहगाई से; शिक्षा व्यवस्था के समग्र रूप से नेस्तनाबूत हो जाने से; बेरोजगारी के नये रिकॉर्ड से; अर्थव्यवस्था के गर्त से भी नीचे चले जाने से; राम मन्दिर के चंदे और धंधे में बाइज्जत बेईमानी से; इन सब से देश के वर्तमान और भविष्य के लिए क्या-क्या अनुकूल या प्रतिकूल परिणाम होंगे?
सवाल और भी हैं। कुछ भी लिखकर एक प्रश्नवाचक लगा दीजिए! शर्तिया एक सवाल बन जाएगा और महज सवाल नहीं, एक ज्वलंत सवाल बन जाएगा। इस सरकार ने ऐसा कोई कोना हमारे सार्वजनिक जीवन का नहीं छोड़ा है जहां उसके सशक्त हस्ताक्षर न हों। तो किसी भी कोने की बात कर लीजिए और एक प्रश्नचिह्न लगा दीजिए! इससे सवाल पूछने वाले को अगर कम ज़हमत उठानी पड़ेगी तो जवाब देने वाले यानी सरकार को भी केवल एक शब्द में ही जवाब देना है। कई दफा एक मुख़्तसर-सा वाक्य भर। मसलन, कोरोना में ऑक्सीज़न की किल्लत से कितनी मौतें हुईं? जवाब- एक भी नहीं। और उदाहरण देखें सवाल-जवाबों:
चीन हमारी सरहद में घुस कर आ बैठा है?
न कोई आया है न कोई घुसा है।
राफेल के सौदे में भारी अनियमितताएं पकड़ी गयीं हैं। यहां तक कि फ्रांस, जिसे इस सौदे से फायदा पहुंचा है, वहां भी इस सौदे की जांच हो रही है। ऐसे में भारत को यह जांच करानी ही चाहिए?
यह फ्रांस का अंदरूनी मामला है। यहां सुप्रीम कोर्ट ने क्लीन चिट दे दी है।
जासूसी कांड में सरकार की भूमिका की जांच हो या सरकार बताए कि अगर यह जासूसी उसने नहीं करवायी तो किसने करवायी?
जासूसी में कांग्रेस सरकारों का इतिहास रहा है। यह एक अंतरराष्ट्रीय साजिश है भारत के विकास को बदनाम करने की।
पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस के दामों में वृद्धि कब तक? सरकार इसे नियंत्रण में लाने के लिए क्या कर रही है?
कांग्रेस ने तेल के बॉण्ड्स खरीदे थे इसलिए इनके दाम बढ़ रहे हैं।
बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ रही है। सरकार क्या कर रही है?
कौन बेरोजगार हैं यहां? मुद्रा लोन के आंकड़े देखो। स्टार्ट अप, स्टैंड अप, रनर अप, शट अप…!
महिलाओं की सुरक्षा की स्थिति लगातार बिगड़ रही है?
लव जिहाद!
इन जवाबों के बाद हमें क्या लगना चाहिए? यही, कि इन सभी मामलों से भारत के लोकतंत्र पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। फर्क पड़ता है जवाब सुनने के बाद। सवाल पूछने से फर्क नहीं पड़ा करते। जवाब सुनकर जब फर्क पड़ना बंद हो जाए तब समझिए कि देश के लोकतंत्र की सेहत अच्छी या बुरी नहीं बल्कि स्थिर है। मेडिकल बुलेटिन की भाषा में हालत स्थिर है के जो मायने हैं, वे यहां भी अनुप्रयोग में लाये जा सकते हैं।
DR-2021हमारे लोकतंत्र का अगर कुछ बिगड़ने वाला नहीं है तो शायद कुछ बनने वाला भी नहीं है। क्या हालत स्थिर होने का यही मतलब नहीं होता?
जिस लोकतंत्र की बात हम अक्सरहां करते रहते हैं वो कई बार सवालों से ज़्यादा जवाबों में दर्ज़ होता है। लोकतंत्र जवाबदेही में प्रकट होता है। सवालों से तो उसे उकसाया जाता है। कभी भी सवाल पूछने वालों की कमी नहीं रही है क्योंकि सवाल भले एक व्यक्ति पूछे वह सवाल सभी का होता है। जवाबों से असंतुष्ट लोग जब उस व्यक्ति के साथ खड़े हो जाएं जिसने पहला सवाल पूछा था तब लोकतंत्र की मरम्मत की प्रक्रिया शुरू होती है। अभी लोकतंत्र तो है और उसे तुरंत मरम्मत की ज़रूरत भी है लेकिन लोगों को नहीं लगता तो ऐसा नहीं हो रही है। अब लोगों के बिना लोकतंत्र की बात कीजिएगा क्या?
बात बोलेगी: जनता निजात चाहती है, निजात भरोसे से आता है, भरोसा रहा नहीं, भक्ति कब तक काम आएगी?
सवाल पूछकर जवाब देने के लिए उकसाने वाले लोग भी यह जानते हैं कि सरकार को क्या जवाब देना है। जिन्हें जवाब सुनना है वे भी जानते हैं कि सरकार को क्या जवाब देना है। मीडिया भी जानता है, विपक्ष भी जानता है और जनता भी जानती है। यह एक ऐसी बेमिसाल समझदारी 2014 के बाद इस देश और देश के लोकतंत्र में विकसित हुई है जो वाकई लोकतंत्र के वैश्विक इतिहास में बेमिसाल है। यह हमारे लोकतंत्र की नायाब खूबसूरती है जिसकी तरफ कोई इस नज़र से देखना नहीं चाहता। और वास्तव में इसे ही हमारी पूरी सरकार पूरी दुनिया को दिखलाना चाहती है। ऐसी समझदारी विकसित करने में कौन नहीं जानता कि क्या-क्या करना पड़ता है।
आम तौर पर लोकतंत्र में असहमतियों की मौजूदगी अंतर्निहित होती है जिसे उसकी आंतरिक शक्ति कहा जाता है, लेकिन यहां अगर इक्का-दुक्का को छोड़ दिया जाय तो क्या वाकई असहमतियों की ज़रूरत है? जब नहीं है, तब देश का लोकतंत्र सहमतियों का ऐसा पुंज है जिसकी दीप्ति पूरी दुनिया में बिखर रही है। जो इक्का-दुक्का लोग हैं यानी एक सौ चालीस करोड़ की जनसंख्या वाले देश में अगर तीन सौ या दो हज़ार लोगों की जासूसी हो भी गयी, तो यह इतना बड़ा गुनाह नहीं है बल्कि गुनाह ही नहीं है। गुनाह है इन तीन सौ या दो हजार लोगों का सरकार से असहमत होना।
आज गली-गली, घर-घर यही कहा-सुना जा रहा है- कुछ तो किया होगा इन लोगों ने, तभी तो सरकार को ये करना पड़ा! सरकार को पता है कि उसके एक वर्ण, एक शब्द या एक वाक्य के जवाब पर भरापूरा निबंध लिखने लायक काम ‘उसकी जनता’ को आता है। आप असहमतियां जता रहे हैं, उधर ‘उनकी जनता’ निबंध लिख रही है। कल तक या ज़्यादा से ज़्यादा कुछ सप्ताह बाद ये असहमतियां किनारे हो जाएंगी और ‘निबंध’ नभ मण्डल में पतंगों की मानिंद हवा में इधर-उधर तैरते दिख जाएंगे।
गौर से देखें तो हमारा लोकतंत्र दिन-प्रतिदिन तरक्की के नये आयाम गढ़ रहा है, नित नये सोपान चढ़ रहा है। कल तक केवल विपक्षी दल ही सरकार के कामकाज पर बेवजह उंगली उठाते थे, आज दुनिया के कई देश इसके नित नूतन विकास और प्रगति से ईर्ष्या कर रहे हैं। हमारे लोकतंत्र की हैसियत का अंदाज़ा अब ग्लोबल होती ईर्ष्या से लगाया जाय तो वाकई देश ने अपना प्रागैतिहासिक विश्व गुरु का दर्जा हासिल कर लिया है।
बात बोलेगी: लोकतंत्र के ह्रास में बसी है जिनकी आस…
बताइए, दुनिया भर के अखबार कैसा-कैसा लिखकर भारत की प्रगति के आख्यानों को मलिन करने की चेष्टा कर रहे हैं? क्या इससे पहले कभी ऐसा हुआ? होता भी क्यों? आपकी तरक्की, आपका विकास, आपका न भूतो न भविष्यति नेता कभी किसी की आँख की किरकिरी बना ही नहीं। बनता भी कैसे? वो तो उदारमना था, सत्य बोलता था, झांसे नहीं देता था, शेख़ी नहीं बघारता था, अपने लिए हज़ार करोड़ का विमान नहीं खरीदता था, अपने लिए बीस हज़ार करोड़ का महल नहीं बनवाता था। वो कभी-कभार, ज़रूरत वक़्त पर बेशक बोलता था, पंचशील को मानता था, गुटनिरपेक्ष को रटता था, उत्पीड़ितों के पक्ष में खड़ा होता था, रोजगार पैदा करता था, जनता की गाढ़ी कमाई की रक्षा के वचन को लेकर सतर्क रहता था, व्यापारी, कर्मचारी, स्टूडेंट्स, मजदूर, किसान की मांगों को सुन लेता था, उद्योगों को फायदा वह भी पहुंचाता था लेकिन केवल उद्योगपतियों को लूटने से रोकने की न्यूनतम कोशिशें भी करता था या लूट के लिए कम से कम बहाने खोजता था। वह विपक्षियों से संवाद करता था, और तो और प्रेस कान्फ्रेंस भी करता था।
इतना सब करने के बाद क्या उससे कभी किसी दूसरे देश ने कोई प्रतिद्वंद्विता पाली? उससे ईर्ष्या की? उसके खिलाफ षडयंत्र रचा? साजिशें कीं? नहीं? क्या खाकर करते? आज इसे लोकतंत्र की ऐसी अवस्था में देखना चाहिए जिसे अपनों से नहीं, दूसरों से खतरा है। जैसे हिंदुओं को बाहरियों से नहीं, खुद अपने लोगों से खतरा है।
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यूं कहा जाय कि यह इक्कीसवीं सदी का ‘खतरे का लोकतंत्र’ है जहां लोकतंत्र खुद एक खतरा बन चुका है। अगर यह लोकतंत्र न होता तो उस पर खतरे की बात ही किसी के ज़ेहन में न आती। फिर रोज़-रोज़ खतरे में आकर यह इस कदर खतरनाक भी नहीं हुआ होता। इसलिए आज लोकतंत्र केवल खतरे में नहीं है, बल्कि वह खुद ही खतरनाक स्तर पर है।
सावन शुरू हो रहा है। मौसम बारिशों का है। बारिशों का है इसलिए बाढ़ का भी है। बाढ़ है तो उसका आकलन खतरे के निशान से ऊपर बहती नदियों का है। नदियां खुद तो खतरे के निशान पर नहीं पहुंचतीं, बल्कि खतरे के निशान ऐसे बना दिये जाते हैं कि उन्हें देखकर लगता है कि नदियों ने खतरे का निशान छू लिया है। क्या हो अगर खतरे के निशान इतने ऊपर बना दिये जाएं कि बड़ी से बड़ी नदियां भी उसे छू न पाएं? तब कोई न कह पाएगा कि नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। अगर लोकतंत्र को इन नवाचारी आँखों से देखें, तो वक़्त आ गया है कि खतरे के निशानों की पैमाइश बदल दी जाए। और यह एक रूटीन काम हो।
जब-जब सरकार उस निशान के आसपास पहुँचती दिखे, तब-तब तत्काल देश की जनता को इस निशान को ऊपर उठा देना चाहिए। इससे हमारा प्यारा लोकतंत्र कभी खतरे में नहीं आएगा। हां, एक खतरा है कि वह खतरनाक होता जाएगा- जैसे नदियां भले ही खतरे के निशान से नीचे बहतीं दिखें लेकिन खतरनाक तो हो ही जाती हैं। बाढ़ लाती हैं और अपने साथ सब बहा ले जाती हैं। फिर भी एक इत्मीनान बना रहता है कि नदी खतरे से नीचे ही है।
जब कुछ ऐसा नहीं बदल सकते जिसके बदलने से वाकई सब कुछ बदल सकता है तब जुगत लगाकर कुछ ऐसा बदल देना चाहिए जिसके बदलने से भले ही कुछ न बदले लेकिन प्रतीति के स्तर पर कुछ बदला हुआ सा लगे। बहरहाल…
वक़्त हर समय बदलाव का भी नहीं हुआ करता है। सरकार स्थिर है। ऐतिहासिक बहुमत है। अब न तो स्थिरता बदल सकती है, न ही बहुमत। तब ऐसा क्या ही बदल जाएगा कि सरकार बदल जाए? कोई सुजान कह सकता है कि सरकार कम से कम अपनी प्रवृत्तियां ही बदल ले, जवाबदेह हो जाय, नियम कानून से देश चलाए, विपक्ष की इज्ज़त करे, मूल समस्याओं को लेकर संजीदा हो, भविष्य को लेकर कुछ ठोस काम करे, जनता को राहत दे, वगैरह वगैरह। अब सवाल है कि क्या वाकई इस सरकार से हमने ये उम्मीदें पाली थीं? ‘हमने’ में उन्हें छोड़ दीजिए जिन्हें हर वक़्त लोकतंत्र खतरे में दिखलायी देता है। उनसे पूछिए जिन्होंने लोकतंत्र को इस खतरनाक स्तर पर लाने के लिए इस सरकार को चुना था। वे आज भी दाँत निपोर के कह देंगे कि सत्तर साल के पाप हैं, सात साल में नहीं धुल जाएंगे। अब बताइए, क्या खतरे में है?
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निगरानी, जासूसी और नज़र रखना, ये सब ऐसे काम हैं जो सत्ता में रहने के लिए करने पड़ते हैं। कोई नयी बात नहीं है। चंद्रकांता पढ़कर और देखकर जो बड़े हुए हैं वे जानते हैं कि चील, बाज़, ऐय्यार ऐसे ही माध्यम थे जिनसे जासूसी कारवायी जाती थी। विज्ञान और तकनीकी ने तरक्की की है। अब ये काम किन्हीं और तरीकों से होना शुरू हुए हैं। बात तरीकों की नहीं ज़रूरत की होनी चाहिए, लेकिन वो असल में नहीं बदलीं। बात यहां केवल उन तीन सौ या दो हज़ार लोगों की नहीं होना चाहिए जिनके नाम छाप रहे हैं। बात उनकी भी होना चाहिए जिनके अंगूठे के निशान और आँखों की पुतलियों की आभा नुक्कड़ की दुकानों पर सरेआम बिक रही है। दो किलो धान या चावल के बदले, अपना ही टैक्स अदा करने के बदले, विदेश जाने की ख़्वाहिश के बदले हम सब ने अपनी-अपनी हैसियत और औकात के हिसाब से अपनी निजता खुद बेची है।
और ये निजता क्या हिंदुस्तान में कभी रही भी है, जिसे आज लोकतंत्र की बुनियाद और फंडामेंटल कहा जा रहा है? अपने यहां तो निजता की गणना करना नीचबुद्धि का काम माना गया है- अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। जिन शास्त्रों ने यह माना है, ये सरकार उन्हीं के बूते टिकी हुई है। ऐसे में यहां निजता का क्या काम? असल काम अब सामूहिकता का है, जो इस स्थिर हालत में मौजूद खतरनाक लोकतंत्र के खतरों से खेलने का जोखिम उठा ले।
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