And this life activity [the worker] sells to another person in order to secure the necessary means of life. … He works that he may keep alive. He does not count the labor itself as a part of his life; it is rather a sacrifice of his life. It is a commodity that he has auctioned off to another.
Marx, Wage Labour and Capital (1847)
(मजदूर अपनी जीवन-गतिविधि को दूसरे के हाथों बेचता है ताकि अपने जीने के ज़रूरी सामान जुटा सके। वह जीवित रहने के लिए मजदूरी करता है। वह अपने श्रम को अपने जीवन का हिस्सा मानकर नहीं चलता, बजाय इसके वह उसके जीवन का बलिदान है। यह एक माल है जो उसने दूसरे के हाथों नीलाम कर रखा है।)
कार्ल मार्क्स, वेज लेबर एंड कैपिटल (1847)
अब ऐसा लगने लगा है कि हमें एक लंबे समय तक कोरोना के साथ रहना होगा और इसके संक्रमण से बचने की युक्तियों का प्रयोग करते हुए अपने जीवन को पटरी पर लाना होगा। कोरोना से बचाव की हमारी यह कोशिशें हमारी आर्थिक गतिविधियों के स्वरूप में व्यापक और कई क्षेत्रों में तो आमूलचूल परिवर्तन ला रही हैं। नयी कार्य संस्कृति तकनीकी के प्रयोग द्वारा एक ऐसी व्यवस्था बनाने की वकालत करती है जिसमें ह्यूमन इंटरफेस न्यूनतम हो। ऐसे में तकनीकी का प्रयोग धीरे-धीरे मनुष्य की भूमिका को नगण्य और गौण बना देगा।
कोरोना काल में श्रम का नया परिदृश्य
कोरोना काल में अनेक सेवाओं का महत्व बढ़ा है और इनमें कार्यरत श्रमिक वर्ग और कर्मचारियों के प्रशस्ति गान में सरकारें और आम जन कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं। अस्पतालों में कार्य करने वाले सफाई कर्मचारी और सपोर्ट स्टॉफ, लैब टेस्टिंग से संबंधित कर्मचारी, स्वच्छता उत्पादों के निर्माण में जुड़े श्रमिक, जल-विद्युत-सफाई आदि आवश्यक सेवाओं के सुचारू संचालन में लगे कर्मचारी, निर्धनों तक अन्न पहुंचाने में लगी श्रम शक्ति, अन्न उत्पादन में जुटे किसान, धन हस्तांतरण योजनाओं का लाभ लाखों जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाते बैंक एम्प्लॉयी, वेयर हाउसिंग से जुड़े तथा ऑनलाइन खरीदे गए सामानों की होम डिलीवरी करने वाले कर्मचारी, फ़ूड रिटेलर्स, इंटरनेट और ब्रॉड बैंड सेवा प्रदाताओं के कर्मचारी – यह सब इस कोरोना काल में अपने प्राणों की बाजी लगाकर कार्य कर रहे हैं। किन्तु क्या यह अपने बढ़े हुए महत्व के साथ कोई जायज मांग रखने की स्थिति में हैं?
दुर्भाग्यवश इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है। यदि यह श्रमिक और कर्मचारी अपने स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त साधनों की मांग करें या कोविड-19 के कारण अपनी मृत्यु के बाद परिजनों के लिए विशेष आर्थिक सुरक्षा की अपेक्षा करें अथवा बढ़े हुए वेतन भत्तों की डिमांड करें तो अधिकांश बार सरकार उनकी आवाज़ को अनसुना कर देगी। उन्हें राष्ट्र के प्रति उनके कर्त्तव्य का स्मरण दिलाया जाएगा और यह बताया जाएगा कि उनका बलिदान देश के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित होगा। आम जनता का एक बड़ा वर्ग भी इन्हें स्वार्थी एवं अवसरवादी ठहरा सकता है। इन श्रमिकों के विषय में यह धारणा भी बन सकती है कि राष्ट्रहित इनके लिए कोई मायने नहीं रखता। यह भी संभव है कि आवश्यक सेवा संरक्षण अधिनियम का प्रयोग कर इनके विरोध प्रदर्शन और हड़ताल पर रोक लगा दी जाए।
उदारवादी अर्थव्यवस्था की परिवर्तनशील रणनीतियों से हतप्रभ ट्रेड यूनियनें इनमें श्रमिक आंदोलन के संस्कार डालने में विफल रही हैं और वर्तमान मालिक के प्रति इनके असंतोष की अभिव्यक्ति चंद ज्यादा रुपए ऑफर करने वाले दूसरे मालिक की शरण में जाने की अवसरवादिता तक ही सीमित हो गई है। सरकारें इनसे कोई वास्ता नहीं रखना चाहतीं और यह मानती हैं कि इनकी समस्याओं का निपटारा करने में इनके मालिक सक्षम हैं। ट्रेड यूनियनें इन तक पहुंच पाने में नाकाम रही हैं। और यह स्वयं कॉरपोरेट संस्कृति की निर्मम स्वार्थपरता के इतने आदी हो गए हैं कि इनमें सामूहिक संघर्ष की प्रवृत्ति ही समाप्त हो गई है। यह डिमांड और सप्लाई के मंत्र को आधार मानने वाली आर्थिक व्यवस्था के नियमों पर इतना भरोसा करने लगे हैं कि इसमें निहित अमानवीयता और क्रूरता अब उन्हें खटकती नहीं।
लॉकडाउन में पलायन: प्रवासी श्रमिकों का सवाल
कोरोना की पहली लहर के दौरान लगाए गए आकस्मिक और अविचारित लॉकडाउन के बाद महानगरों और अन्य प्रमुख शहरों में असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले प्रवासी मजदूरों के सम्मुख आजीविका का भयानक संकट उत्पन्न हो गया था। यह प्रवासी श्रमिक शहरों को छोड़कर भीषण गर्मी में सड़कों पर पैदल चलकर अपने गृह ग्राम की ओर लौटे। प्रधानमंत्री समेत अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने यह दावा किया था कि अब इन श्रमिकों को पलायन नहीं करना पड़ेगा। अपने प्रदेश में ही अपने गांव और शहर के पास उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा। महानगरों में उन्होंने जो स्किल्स अर्जित की हैं उनका उपयोग राज्य की तस्वीर बदलने के लिए किया जाएगा। स्वास्थ्य और राशन संबंधी योजनाओं की पोर्टेबिलिटी की भी बड़ी जोर शोर से चर्चा की गई थी, किंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं थी।
जिन राज्यों से श्रमिकों का पलायन होता है वे प्रायः लेबर सरप्लस स्टेट हैं। सरकारों की कोशिश कृषि क्षेत्र को निजीकरण की ओर ले जाने और कृषि से जुड़े वर्कफ़ोर्स को शहरों की धकेलने की रही है ताकि कारखानों को सस्ते मजदूर मिल सकें। विवादित कृषि कानूनों का भी मूल उद्देश्य यही है। श्रमिकों के सर्वाधिक पलायन वाले राज्यों में कृषि एक फायदे का सौदा तो बिलकुल नहीं है। इन श्रमिकों ने महानगरों में जिन कार्यों में कुशलता अर्जित की थी वे कार्य ग्रामों में उपलब्ध नहीं होने के कारण इनकी स्थिति एक अकुशल श्रमिक की भांति हो गई। जब यह श्रमिक ग्रामों में वापस लौटे तो लेबर सरप्लस राज्यों में श्रमिकों की अधिकता के कारण उन्हें कम मजदूरी पर कार्य करने पर विवश होना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि जैसे ही कोरोना की पहली लहर कमजोर हुई उन्हें पुनः महानगरों की ओर पलायन करना पड़ा जहां उन्हें फिर से धारावी जैसे स्लमों में निवास करना था और वैसी ही आर्थिक और स्वास्थ्यगत असुरक्षा के बीच कार्य करना था। एक वर्ष बाद जब कोरोना की दूसरी अधिक विनाशक लहर आई है तब श्रमिकों के पलायन के दृश्य पुनः उपस्थित हो रहे हैं। अंतर केवल इतना है अब हम इस घटनाक्रम के इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि इसे चर्चा के योग्य भी नहीं मानते।
प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों के लिए कार्य करने वाले एक्टिविस्ट्स को यह आशा थी कि सरकार इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स को एक अलग श्रेणी में रखते हुए इनके लिए एक कल्याण कोष का निर्माण करेगी जिसमें इनके मूल राज्य, प्रवास वाले राज्य और इनके नियोक्ता अंशदान देकर पर्याप्त राशि का प्रबंध करेंगे। किंतु सरकार की तरफ से ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
असंगठित मजदूरों के लिए काम करने वाले वर्किंग पीपुल्स चार्टर जैसे संगठनों की यह भी मांग थी कि असंगठित मजदूरों और उनके परिवारों के स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा और पेंशन आदि के विषय में कोई व्यापक नीति बनाई जाती और असंगठित मजदूरों के रोजगार को बरकरार रखने के लिए सरकार कोई कार्यक्रम लेकर आती किंतु सरकार द्वारा किए गए प्रावधान नितांत अपर्याप्त और असंतोषजनक हैं। असंगठित मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा फण्ड बनाया तो गया है किंतु इसके लिए धनराशि विभिन्न सुरक्षा और स्वास्थ्य विषयक प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले नियोक्ताओं से वसूले गए नाम मात्र के जुर्माने के माध्यम से एकत्रित की जाएगी जो जाहिर है कि निहायत ही कम और नाकाफी होगी।
यद्यपि इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स का दायरा सरकार द्वारा बढ़ाया गया है और अब इनमें ठेकेदारों के माध्यम से ले जाए जाने वाले श्रमिकों के अतिरिक्त उन श्रमिकों को भी सम्मिलित किया गया है जो स्वतंत्र रूप से रोजगार के लिए दूसरे प्रदेशों में जाते हैं। इनके लिए एक पोर्टल बनाने का प्रावधान भी किया गया है जिसमें इनका पंजीकरण होगा किंतु रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया किस प्रकार संपन्न होगी एवं इनके गृह प्रदेश, जिस प्रदेश में ये रोजगार हेतु जाते हैं तथा केंद्र सरकार के क्या उत्तरदायित्व होंगे, इसका कोई जिक्र सरकार ने नहीं किया है। प्रवासी मजदूरों के लिए सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान अपर्याप्त हैं किंतु जो थोड़े बहुत प्रावधान किए गए हैं उनका लाभ भी केवल ऐसे उद्यमों में कार्यरत इंटरस्टेट माइग्रेंट वर्कर्स को मिल सकता है जहाँ इनकी संख्या 10 या इससे अधिक है। इस प्रकार की संख्या विषयक सीमा के कारण लाखों मजदूर सोशल सिक्योरिटी नेट की सुरक्षा से वंचित कर दिए गए हैं। रजिस्ट्रेशन, पीडीएस पोर्टेबिलिटी जैसे प्रवासी मजदूर हितैषी प्रावधान 10 या इससे अधिक मजदूरों वाले उद्यमों में कार्यरत प्रवासी मजदूरों को ही दिए जाने की शर्त के कारण व्यवहारतः एकदम अनुपयोगी बन गए हैं जबकि 1979 के इंटरस्टेट माइग्रेंट वर्कमेन एक्ट के अनुसार यह संख्या 5 प्रवासी मजदूर या इससे ज्यादा है।
स्वयं भारत सरकार के 2013-14 के छठवें इकोनॉमिक सेन्सस के आंकड़े बताते हैं कि हमारे देश में कुल कार्यरत लोगों की केवल 30 प्रतिशत संख्या ऐसे उद्यमों में कार्यरत है जिनमें 6 या इससे अधिक लोग काम करते हैं, फिर भी संख्या विषयक बंधन को क्यों बरकरार रखा गया है यह समझना कठिन है। सरकार ने एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास करते रहने वाले मजदूरों हेतु सामाजिक सुरक्षा की पोर्टेबिलिटी के संबंध में भी कोई प्रावधान नहीं किया है जो दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकार एक ही राज्य के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान को प्रवास करने वाले श्रमिकों के संबंध में मौन है जबकि इनकी समस्याएं भी बिल्कुल वैसी हैं जैसी इंटर स्टेट माइग्रेशन करने वाले मजदूरों की। 2011 की जनगणना के अनुसार 39.6 करोड़ लोग अपने राज्य के भीतर ही एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते हैं। इस प्रकार इंट्रा स्टेट माइग्रेशन करने वाले 21 प्रतिशत पुरुष और 2 प्रतिशत महिलाएं श्रमिक होते हैं। वर्किंग ग्रुप ऑफ माइग्रेशन की जनवरी 2017 की रिपोर्ट बताती है कि इंट्रा स्टेट माइग्रेशन के बारे में जनगणना के आंकड़ों में दर्शाई गई श्रमिकों की संख्या वास्तविक संख्या से बहुत कम है।
विनिवेश की नीति और नयी श्रम संहिताएं
सरकार ने इस वर्ष के बजट में अपने इरादे साफ कर दिए। बीमा कंपनियों में एफ़डीआई को 49% से बढ़ाकर 74% करने का प्रावधान किया गया। वर्ष 2021-22 में जीवन बीमा निगम का आईपीओ लाने और इसके लिए इसी सत्र में आवश्यक संशोधन करने की बात भी कही गई। बजट में राज्य सरकारों के उपक्रमों के विनिवेश की अनुमति देने की बात भी है ताकि पीएसयू में विनिवेश का रास्ता खुल जाए।
सरकार बीपीसीएल (भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड), एयर इंडिया, आईडीबीआई, एससीआई (शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया), सीसीआई (कॉटन कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया), बीईएमएल और पवन हंस आदि के निजीकरण की ओर अग्रसर है। कमजोर पड़ गए ट्रेड यूनियन आंदोलन ने इस कोरोना काल की पाबंदियों के बीच सरकार के इन श्रमिक विरोधी कदमों का महज प्रतीकात्मक विरोध किया है और कोई आश्चर्य नहीं कि सरकार अपने इरादों में कामयाब हो जाए।
जब तक करोड़ों मजदूर और किसान अपने अधिकारों हेतु संगठित होकर संघर्ष करते रहेंगे तब तक सरकार की चुनिंदा कॉर्पोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने की इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती। इसीलिए कोविड काल की अफरातफरी का फायदा उठाकर सरकार नई श्रम संहिताएं लेकर आई। इन नए श्रम सुधारों का मूल उद्देश्य श्रमिक संगठनों को कमजोर करना है। नई श्रम संहिताओं में श्रमिकों के लिए कुछ भी नहीं है बल्कि इनका ज्यादातर हिस्सा श्रमिक विरोधी है और इनका उद्देश्य श्रमिकों के मूलभूत अधिकारों को महत्वहीन एवं गौण बनाना है। इन कानूनों के कारण जब ट्रेड यूनियनें कमजोर पड़ जाएंगी, हड़ताल करना असंभव हो जाएगा, श्रमिकों पर हमेशा काम से हटाए जाने की तलवार लटकती रहेगी तब उनसे मनमानी शर्तों पर काम लेना संभव हो सकेगा।
सरकार की अर्थनीतियाँ शुरू से ही बेरोजगारी को बढ़ावा देने वाली रही हैं और अब जब अर्थव्यवस्था की स्थिति घोर चिंताजनक है और बेरोजगारी चरम पर है तब इन श्रम सुधारों को नए रोजगार पैदा करने में सहायक बताकर लागू किया जा रहा है। सभी श्रम कानूनों के निर्माण और उनमें समय समय पर होने वाले सुधारों के पीछे मजदूरों के लोमहर्षक संघर्ष और लंबे श्रमिक आंदोलनों का इतिहास रहा है। श्रमिकों द्वारा अनथक संघर्ष कर अर्जित अधिकारों को खारिज कर ईज ऑफ डूइंग बिज़नेस इंडेक्स में भारत की रैंकिंग में सुधार एवं फॉरेन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट को बढ़ावा देने के नाम पर इन श्रम सुधारों को जबरन करोड़ों मजदूरों पर थोपा जा रहा है। श्रम कानूनों के निर्माण से पहले त्रिपक्षीय चर्चा और विमर्श की परिपाटी रही है। किंतु इन श्रम संहिताओं का ड्राफ्ट बनाते वक्त ट्रेड यूनियनों से किसी तरह की रायशुमारी नहीं की गई। श्रम संबंधी मामले समवर्ती सूची में आते हैं किंतु इन लेबर कोड्स का मसविदा तैयार करते समय राज्यों से भी परामर्श नहीं लिया गया। केंद्र सरकार का चर्चा और विमर्श पर कितना विश्वास है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले पांच वर्षों से इंडियन लेबर कांफ्रेंस आयोजित नहीं हुई है।
नए श्रम कानूनों के विषय में यह प्रचारित किया जा रहा है कि इनमें पहली बार असंगठित मजदूरों की समस्याओं को हल करने का प्रयास किया गया है। दरअसल स्थिति इससे विपरीत है। सरकार के नए लेबर कोड्स में असंगठित मजदूरों के लिए कोई भी आशाजनक प्रावधान नहीं है। कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी 2020 में सामाजिक सुरक्षा को संविधान सम्मत अधिकार नहीं माना गया है। सामाजिक सुरक्षा विषयक कोड के प्रावधान कब से लागू होंगे इसका कोई उल्लेख नहीं किया गया है। श्रम संगठनों की मांग रही है कि सामाजिक सुरक्षा प्रत्येक श्रमिक को बिना भेदभाव के उपलब्ध होनी चाहिए। किंतु सामाजिक सुरक्षा को यूनिवर्सलाइज करने के स्थान पर इस कोड में सामाजिक सुरक्षा के पात्र श्रमिकों की श्रेणियों का निर्धारण मनमाने ढंग से किया गया है। श्रमिक संगठनों की आपत्तियाँ अनेक हैं। सेक्शन 2(6) में पहले की भांति ही भवन तथा अन्य निर्माण कार्यों के लिए 10 या इससे अधिक श्रमिकों की संख्या को सामाजिक सुरक्षा का लाभ पाने हेतु आवश्यक बनाए रखा गया है। जबकि श्रमिक संगठन इस सीमा को समाप्त करने की मांग कर रहे थे। अभी भी निजी आवासीय निर्माण के क्षेत्र में कार्य करने वाले श्रमिक सामाजिक सुरक्षा के पात्र नहीं होंगे जबकि इनकी संख्या लाखों में है। स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिश थी कि वेज वर्कर को परिभाषित करने के लिए वेज लिमिट को आधार न बनाया जाए किंतु सेक्शन 2(82) में इस प्रावधान को बरकरार रखा गया है। आशंका है कि मनमाने ढंग से मजदूरी तय करके मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा के लाभों से वंचित किया जा सकता है।
प्रोविडेंट फंड की पात्रता उन्हीं संस्थानों को होगी जिनमें 20 या इससे अधिक मजदूर कार्य करते हैं। इस प्रकार लघु और सूक्ष्म उद्यमों में कार्य करने वाले लाखों श्रमिक इस लाभ से वंचित रह जाएंगे। श्रमिक संगठनों को यह भी आशंका है कि इस प्रावधान का उपयोग करते हुए नियोक्ता वर्तमान में कार्यरत मजदूरों को भी प्रोविडेंट फण्ड की सुरक्षा से वंचित कर सकते हैं। श्रम कानूनों के जानकारों की एक मुख्य आपत्ति यह है कि सामाजिक सुरक्षा विषयक कोड में इस बात को परिभाषित करने की कोई स्पष्ट कोशिश नहीं की गई है कि किस आधार पर किसी श्रमिक को संगठित या असंगठित क्षेत्र का माना जा सकता है? गिग/प्लेटफार्म वर्कर्स को असंगठित मजदूरों की श्रेणी में नहीं रखा गया है जबकि इनकी संख्या लाखों में है। इसी प्रकार उद्यम की परिभाषा को इस प्रकार संशोधित कर व्यापक बनाया जाना था जिससे छोटे से छोटे उद्यम का भी पंजीकरण हो सके और कोई भी मजदूर सामाजिक सुरक्षा के दायरे से बाहर न रह जाए। इस विषय में स्टैंडिंग कमेटी की सिफारिशों को भी अनदेखा किया गया। सरकार यह स्पष्ट करने में नाकाम रही है कि सामाजिक सुरक्षा अंशदान उन श्रमिकों के लिए किस प्रकार होगा जिनके संदर्भ में नियोक्ता-कामगार संबंध का निर्धारण नहीं हो सकता- यथा होम बेस्ड वर्क, पीस रेट वर्क या स्वरोजगार।
कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी के सेक्शन 4(1) में कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के बोर्ड ऑफ ट्रस्टीज में अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग और महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने हेतु कोई प्रावधान नहीं किया गया है। यूनियनों के विरोध के बावजूद कर्मचारी राज्य जीवन बीमा निगम के बोर्ड की पहले की संरचना को बदल दिया गया है जिसमें कर्मचारी, नियोक्ता और राज्य तीनों के प्रतिनिधि हुआ करते थे।
ऑक्यूपेशनल सेफ्टी हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन कोड 2020 के विषय में वर्किंग पीपुल्स चार्टर जैसे असंगठित मजदूरों के लिए कार्य करने वाले संगठनों की गंभीर आपत्तियां हैं। आर्थिक गतिविधियों का सर्वप्रमुख क्षेत्र कृषि -जो देश की वर्किंग पापुलेशन के 50 प्रतिशत को रोजगार प्रदान करता है- इसमें सम्मिलित नहीं है। असंगठित क्षेत्र की अनेक आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने वाले श्रमिक इस कोड से लाभान्वित नहीं होंगे। इनमें से कुछ आर्थिक गतिविधियां एवं क्षेत्र हैं- होटल एवं खाने के स्थान, मशीनों की मरम्मत, छोटी खदानें, ब्रिक किलन्स, पावर लूम, पटाखा उद्योग, निर्माण, कारपेट मैन्युफैक्चरिंग आदि। घरेलू कर्मचारी, होम बेस्ड वर्कर्स आदि भी इस एक्ट की परिधि में नहीं आते। संगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले अनौपचारिक श्रमिक भी इस कोड की परिधि में नहीं आते हैं। आईटी और आईटी की सहायता से चलने वाली सेवाओं, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स और ई कॉमर्स आदि में कार्य करने वाले अनौपचारिक श्रमिक इस कोड से लाभान्वित नहीं होंगे।
ऑक्यूपेशनल सेफ्टी हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशन कोड 2020 में इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स के विषय में जो भी प्रावधान किए गए हैं उनके अनुपालन का उत्तरदायित्व ठेकेदार पर होगा। यह ठेकेदार बड़े उद्योगपतियों के अधीन कार्य करते हैं और इनकी सहायता से बड़े उद्योगपति असुरक्षित और अस्वास्थ्यप्रद दशाओं में कार्यरत मजदूरों की दुर्घटनाओं एवं बीमारियों के विषय में अपनी जिम्मेदारी से बड़ी आसानी से बच निकलते हैं। प्रायः ठेके पर काम करने वाले श्रमिक और स्थायी श्रमिक एक ही प्रकार के कार्य में संलग्न रहते हैं अतः इन्हें मिलने वाली सुविधाएं भी समान होनी चाहिए किंतु कोड में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। इस कोड में भी इंट्रा स्टेट माइग्रेंट वर्कर्स हेतु कोई प्रावधान नहीं है। इस कोड में मजदूरों के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के स्तर के निर्धारण के किन्हीं मानकों का उल्लेख ही नहीं है। इसमें मजदूरों के स्वास्थ्य और सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी नियोक्ताओं पर नहीं डाला गया है। सुरक्षा उपायों और स्वास्थ्य सुविधाओं को लागू करने की जिम्मेदारी प्रत्यक्षतः नियोक्ताओं की नहीं होगी बल्कि इसके लिए सेवा प्रदाताओं का उपयोग किया जाएगा। कोड में यह उल्लेख है कि यदि किसी स्थान पर 250 या इससे अधिक श्रमिक कार्यरत हैं तब ही सेफ्टी कमेटी का गठन किया जाएगा। इससे यह जाहिर होता है कि यह कोड देश के 90 प्रतिशत कार्य बल का निर्माण करने वाले असंगठित मजदूरों की सुरक्षा के विषय में गंभीर नहीं है। कार्यस्थल पर होने वाली दुर्घटनाओं के बाद लगाई जाने वाली पेनल्टी बहुत कम है और मुआवजे की राशि अपर्याप्त।
श्रमिक और नियोक्ता की परिभाषा का सवाल
पिछले कुछ वर्षों में अनेक नई प्रकृति के रोजगार अस्तित्व में आए हैं। नियोक्ता-कामगार संबंध भी अब पूर्ववत नहीं रहा। इन बदलावों के परिप्रेक्ष्य में सरकार को वर्कर की परिभाषा में बदलाव लाना चाहिए था किंतु इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड 2020 में सरकार ने वर्कर की संकुचित परिभाषा को बरकरार रखा है। इस प्रकार इन नए रोजगारों की असंख्य श्रेणियों से जुड़े लाखों कामगार इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड की परिधि से ही बाहर कर दिए गए हैं। इनमें गिग/प्लेटफार्म वर्कर्स, आईटी कामगार, स्टार्टअप्स तथा सूक्ष्म,लघु एवं मध्यम श्रेणी के उद्यमों के कामगार, सेल्फ एम्प्लॉयड तथा होम बेस्ड वर्कर्स, असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र के कामगार, प्लांटेशन वर्कर्स, मनरेगा कामगार, ट्रेनी तथा अपरेंटिस वर्कर्स आदि सम्मिलित हैं। श्रम संगठनों का यह मानना है नियोक्ता, कर्मचारी और कामगार की परिभाषाएं भ्रमपूर्ण और अस्वीकार्य हैं। एम्प्लायर की परिभाषा में कांट्रेक्टर को सम्मिलित किया गया है किंतु इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड में इसे परिभाषित नहीं किया गया है। श्रम संगठनों के अनुसार यदि सोशल सिक्योरिटी कोड में प्रदत्त कांट्रेक्टर की परिभाषा को आधार बनाया जाए तो चिंता और बढ़ जाती है क्योंकि इसमें ऐसे परिवर्तन कर दिए गए हैं कि कानून की भाषा में जिसे शाम एंड बोगस कांट्रेक्टर कहा जाता है वह भी स्वीकार्य बन गया है।
एम्प्लायर की परिभाषा इतनी अस्पष्ट है कि कामगार यह तय ही नहीं कर पाएगा कि उसका नियोक्ता कौन है वह जिसने प्रत्यक्षतः उसे काम पर रखा है या वह जिसका सारी प्रक्रिया पर सर्वोच्च नियंत्रण है। फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट को अब टेन्योर ऑफ एम्प्लॉयमेंट के समान माना जाएगा। अर्थात फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रैक्ट पर कार्यरत कामगारों को बिना किसी उचित कारण के सेवा से हटाया जा सकेगा। इस एक्ट में हड़ताल और विरोध प्रदर्शनों को असंभव होने की सीमा तक कठिन बना दिया गया है।
श्रम संहिताओं के नियमों को लेकर राज्यों ने नियमों को अंतिम रूप नहीं दिया है, इस कारण केंद्र सरकार ने अभी वेज कोड लाने का फैसला टाल दिया है। कुछ विशेषज्ञ सरकार के इस निर्णय के पीछे कुछ राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों को जिम्मेदार ठहराते हैं तो कुछ ट्रेड यूनियनों के दबाव को जबकि कुछ जानकारों का मानना है कि सरकार कंपनियों को अपने एचआर स्ट्रक्चर में बदलाव हेतु समय देना चाहती है। पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार 1 अप्रैल 2021 से नए लेबर और वेज कोड को लागू किया जाना था।
जब तक यह श्रम संहिताएं लागू नहीं हुई हैं तब तक संगठित मजदूरों के बीच पैठ रखने वाली ट्रेड यूनियनें अपनी तमाम सीमाओं और मतभेदों के बाद भी एक हद तक धरना, प्रदर्शन और हड़ताल के अपने हक के लिए लड़ेंगी और इन श्रम संहिताओं के श्रमिक विरोधी प्रावधानों के विरुद्ध संघर्ष भी करेंगी। शायद वे सरकार को कुछ श्रमिक हितैषी परिवर्तन करने के लिए बाध्य भी कर लें किंतु देश के कुल कार्यबल का 90 प्रतिशत तो असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है जहाँ ट्रेड यूनियनों का कोई विशेष आधार नहीं है। सरकार के यह लेबर कोड्स इन असंगठित मजदूरों के लिए और अधिक विनाशकारी सिद्ध होंगे।
कोरोना के बाद मजदूरों का भविष्य
कॉरपोरेट जगत हमेशा यह दम्भोक्ति करता रहा है कि हर संकट को वह अवसर में बदलने की कला में पारंगत है और हम इसे कोरोना का उपयोग भी अपने फायदे के लिए करता देख रहे हैं। कोरोना से बचाव के लिए आवश्यक सोशल डिस्टेन्सिंग को आधार बनाकर श्रमिकों की संख्या कम की जा रही है। जब कंपनियों को सीमित कर्मचारियों से शतप्रतिशत आउटपुट प्राप्त करना होगा तो वे योग्यतम कर्मचारियों का चयन करेंगी। सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट के सिद्धांत के साथ उन लोगों का विनाश अपरिहार्य रूप से जुड़ा होता है जो श्रेष्ठता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। अब कंपनियों द्वारा स्वास्थ्यगत कारणों से श्रमिकों को आसानी से अयोग्य ठहराया जा सकता है। शासन कोविड-19 से मजदूरों के बचाव का उत्तरदायित्व कॉरपोरेट मालिकों पर डालेगा। पूर्व में भी हमने कार्यस्थल पर औद्योगिक सुरक्षा नियमों की आपराधिक अनदेखी के उदाहरण देखे हैं और अब भी इस बात की पूरी आशंका बनी रहेगी कि कोविड-19 से बचाव की सावधानियों को दरकिनार करते हुए श्रमिकों और कर्मचारियों से अमानवीय परिस्थिति में कार्य लिया जाता रहेगा। यदि वे कोविड-19 से संक्रमित हो जाएंगे तो इसे उनकी लापरवाही का नतीजा बता दिया जाएगा।
कोरोना के कारण टूरिज्म, ट्रेवल और हॉस्पिटैलिटी सेक्टर बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। करोड़ों रोजगार समाप्त हो गए हैं। कोरोना की मार ऑटोमोबाइल, ऑटो कंपोनेंट, एमएसएमई, कंज़्यूमर ड्यूरेबल्स, केपिटल गुड्स और स्टार्टअप पर सर्वाधिक पड़ी है। एविएशन और आइटी सेक्टर का हाल भी बुरा है। इनमें वित्तीय अनुशासन और खर्चों में मितव्ययिता के नाम पर मानव संसाधन में जो कटौती की गई है उसका सबसे पहला प्रभाव कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स पर हुआ है। जिन सेक्टर्स की हम चर्चा कर रहे हैं उनमें कार्य करने वाले मजदूरों और कर्मचारियों की स्थिति पहले ही बहुत अच्छी नहीं थी। चाहे कार्य के घंटों की बात हो, कार्य की दशाओं का पैमाना हो, आर्थिक सुरक्षा की कसौटी हो या स्थायित्व का प्रश्न हो इनकी स्थिति पहले से ही चिंताजनक ही रही है। ठेकेदारी प्रथा आदि के प्रयोग द्वारा श्रम कानूनों की परिधि से ये बहुत चतुराईपूर्वक बाहर रखे गए हैं। इनमें से बहुत लोगों के साथ तो किसी प्रकार का लिखित अनुबंध भी नहीं किया जाता। यदि किया भी जाता है तो उसका पालन नहीं किया जाता। इनका अपने मालिकों के साथ विवशता का संबंध होता है, इन्हें रोजगार चाहिए होता है और मालिकों को कम पैसे में अधिक कार्य करने वाले मजदूर।
वर्क फ्रॉम होम जैसे जैसे लोकप्रिय होता जाएगा कर्मचारियों के एक स्थान पर एकत्रीकरण के अवसर घटते जाएंगे। इससे ट्रेड यूनियनों की संगठन शक्ति प्रभावित होगी और उन्हें विरोध प्रदर्शन के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का सहारा लेना होगा। ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में ट्रेड यूनियन आंदोलन से जुड़े बुद्धिजीवी अब साइबर पिकेटिंग की कल्पना करने लगे हैं जब लोग किसी सामान या सेवा के लिए भारी संख्या में प्री-आर्डर करेंगे और इसके बाद आखिर में भुगतान करने से इनकार कर देंगे अथवा कंपनी की वेबसाइट को भारी संख्या में आर्डर और पूछताछ द्वारा अवरुद्ध कर देंगे। बहरहाल, यह भी सच है कि वर्क फ्रॉम होम कर्मचारियों को परिवार के साथ समय व्यतीत करने का अवसर प्रदान करेगा। इससे उन्हें मानसिक परितुष्टि भी मिलेगी और गृह कार्यों के लिए समय भी उपलब्ध होगा। इस कारण वह कम वेतन में भी कार्य करने को सहमत हो सकते हैं।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के विकास के साथ ही उत्पादन, निर्माण, ट्रांसपोर्ट, पैकेजिंग, चिकित्सा और सेवा के क्षेत्र में मनुष्य की उपस्थिति की अनिवार्यता कम हुई है। अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने कारखानों में पूर्ण स्वचलन को बढ़ावा दिया है और भारी पैमानों पर श्रमिकों की छंटनी भी हुई है। कई बार उनके कार्य की प्रकृति बदली है और कार्य के घण्टे कम हुए हैं तदनुसार उनके वेतन में कटौती की गई है। कॉर्पोरेट जगत और उससे मित्रता रखने वाली विभिन्न देशों की सरकारें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स आदि के प्रयोग द्वारा अनेक क्षेत्रों में कम्पलीट ऑटोमेशन लाने का प्रयास कभी मजदूरों की सुरक्षा का बहाना बनाकर तो कभी गुणवत्ता में सुधार का तर्क देकर करती रही हैं और इसमें वे कामयाब भी हुई हैं यद्यपि मजदूरों द्वारा किया जाने वाला प्रतिरोध पूर्ण स्वचलन के मार्ग में बाधक बना है। अब कोरोना ने हमारे सम्मुख मनुष्य रहित उत्पादन प्रणाली की स्थापना के पक्ष में मानव जाति की रक्षा जैसा प्रबल तर्क प्रस्तुत किया है जिसका आश्रय लेकर कॉरपोरेट कंपनियां श्रमिकों की भूमिका में अनावश्यक और अतिरिक्त कटौती कर सकती हैं।
ऐसे में बहुत से कर्मचारी तो नवीन तकनीकी में दक्षता अर्जित न कर पाने के कारण अप्रासंगिक हो जाएंगे। कुछ कर्मचारियों की भूमिका इतनी सीमित, अस्थायी और अल्पकालिक हो जाएगी कि उन्हें अधिक वेतन पर स्थायी रूप से काम देना संभव नहीं होगा और वे जरूरत पड़ने पर याद किए जाने वाले पार्ट टाइमर का रूप ले लेंगे। तकनीकी के महत्व के बढ़ने का एक परिणाम यह होगा कि तकनीकी में दक्ष श्रमिकों और गैर-तकनीकी श्रमिकों के मध्य की विभाजन रेखा अब और गहरी तथा स्पष्ट हो जाएगी तथा उनके जीवनस्तर एवं भविष्य की संभावनाओं में भी बड़ा अंतर देखा जाने लगेगा। तकनीकी रूप से कुशल श्रमिक बेहतर स्थिति में होते हुए भी निश्चिंत नहीं रह पाएंगे क्योंकि नए तकनीकी बदलावों के साथ अनुकूलन करने की शाश्वत चुनौती उनके सम्मुख बनी रहेगी। इन तकनीकी बदलावों से अनुकूलन करने में विफलता का अर्थ होगा– जॉब लॉस। जब श्रम शक्ति सीमित होगी और महत्वहीन भूमिकाओं का निर्वाह करेगी तब स्वाभाविक है कि अधिकारों की उसकी मांग की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति भी बढ़ेगी। आने वाले लंबे समय तक श्रमिकों को कोरोना के कारण उत्पन्न हुए आर्थिक आपातकाल का हवाला देकर बहुत कम वेतन पर कार्य करने हेतु विवश किया जा सकता है। राष्ट्रहित के लिए पूंजीपति अपने मुनाफे के साथ कितना समझौता करेंगे यह कह पाना तो कठिन है किंतु यह अवश्य कहा जा सकता है कि राष्ट्र के पुनर्निर्माण हेतु श्रमिकों की कुर्बानी अवश्य मांगी जाएगी और इसके लिए उन पर भावनात्मक दबाव भी बनाया जाएगा।
डॉक्टर राजू पाण्डेय छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं