पिछले साल 25 मार्च से लॉकडाउन लगना शुरू हुआ था। पहले कहा गया कि केवल 21 दिन घर में रहना है, फिर हर बार उसकी अवधि सरकार बढ़ाती गयी। आज पूरे साल भर बाद ऐसा लगता है कि आज भी पूरा देश लॉकडाउन से उबर नहीं सका है। लॉकडाउन की शुरुआती त्रासद कहानियों में बनारस के मुसहरों की व्यथा-कथा सामने आयी थी, जिसे लिखने के बदले जनसंदेश टाइम्स के पत्रकारों को जिलाधिकारी ने मुकदमे का धमकी भरा नोटिस थमा दिया था। इस कहानी में जिन मुसहरों का जिक्र था, उनके बच्चे जंगली घास खाने को मजबूर हुए थे क्योंकि जनता कर्फ्यू से लेकर लॉकडाउन की घोषणा के बीच चार दिन उनके घर चूल्हा नहीं जला था। जनसंदेश में खबर छपने के बाद प्रशासन मुस्तैद हुआ और स्वयंसेवी संगठन भी हरकत में आए।
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हर जगह की त्रासद खबर हालांकि न अखबारों में आ पायी, और न ही दूसरे पीड़ित बनारस के मुसहरों की तरह किस्मत वाले निकले। इन्हीं में एक कहानी उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में महाराजगंज विकासखंड के गांव हटिया रामनाथ की है, जिसमें मुसहर समुदाय के लगभग 35 परिवार रहते हैं और इनकी आय का साधन ईंट-भट्ठे पर मजदूरी है। इसी समुदाय में एक परिवार है लालता और संतोषी का। इनके दो बेटी और एक बेटा है। बड़ी बेटी की शादी हो गई है, दो बच्चे नाबालिग हैं।
संतोषी की कहानी
लॉकडाउन में संतोषी की तबीयत खराब हुई थी। गरीबी मजबूरी की हालत में दवा कराने के लिए उसे सीएचसी महाराजगंज ले जाया गया। वहां संतोषी का इलाज सही तरह से नहीं हुआ। दवा बाहर से लिखी जाने लगी और जांच भी बाहर से होने लगा। डॉक्टर सही ढंग से देखभाल भी नहीं करते थे। एक हफ्ते तक दवा कराने के बाद संतोषी की तबीयत में कोई सुधार नहीं हुआ। इस बीच उसके पति लालता ने प्राइवेट डॉक्टर रामजस यादव से कुछ दिन इलाज कराया, लेकिन पैसे की कमी के कारण मजबूर होकर संतोषी को दोबारा सीएचसी सुजानगंज जाना पड़ा। वहां पर भी दवा बाहर से लिखी जाने लगी और जांच बाहर से हुई।
वहां से दो महीने तक संतोषी की दवा चली लेकिन कोई आराम नहीं हुआ। सरकारी डॉक्टर को उसकी कोई परवाह नहीं थी, वह मरे चाहे जिये। डॉक्टर उसे डांट कर भगा दिया करते थे। ऐसे में उसकी तबीयत ज्यादा बिगड़ती चली गई। मजबूर होकर संतोषी के पति लालता रोते हुए उसे सुजानगंज सीएचसी से लेकर के चले आए। अब उनको कोई भरोसा नहीं था कि संतोषी बचेगी या मर जाएगी। वे उसे सदर हॉस्पिटल जिला जौनपुर लेकर गये। वहां भी कोरेना के कारण डॉक्टर लोग भर्ती नहीं ले रहे थे। बहुत सिफारिश करने के बाद और समझाने बुझाने के बाद जांच बाहर से कराई गई। डॉक्टर ने कहा कि संतोषी को खून केवल 4 परसेंट है जो कि बहुत ही कम है और खून भी सरकारी हॉस्पिटल में नहीं मिलेगा, प्राइवेट से मंगवाना पड़ेगा।
लालता खून कहां से खरीद के लाए? उसके पास तो पैसे ही नहीं थे। वह रोने लगा, लेकिन सरकारी डॉक्टर पर कोई असर नहीं हुआ। उसने मजबूर होकर के घर और पड़ोस में फोन किया, फिर गांव वालों ने एकजुट होकर के उसकी जिंदगी बचाने के लिए चंदा इकट्ठा किया। जिसके पास जो पैसा था उसने दिया। कुल 7500 रुपये इकट्ठा हुए। तुरंत पैसे लेकर वे खून लेने गए और खून चढ़ाया गया। कुछ सुधार हुआ।
थोड़े दिन बाद फिर से संतोषी की तबीयत बिगड़ गई। डॉक्टर ने देखने से इंकार कर दिया और कहा कि आप इनको बनारस बीएचयू लेकर जाइए या तो इलाहाबाद। इस पर लालता ने कहा कि मेरे पास एक भी पैसा नहीं है, अब मजबूर होकर के क्या कर सकते हैं। उसे सदर हॉस्पिटल से निकाल दिया गया। मजबूर होकर संतोषी को लेकर उसका पति घर चला आया। समुदाय के लोगों ने देखा कि उसकी हालत बहुत ही खराब है, तो लोग चंदा इकट्ठा करने लगे। उसी वक्त संतोषी की मौत हो गई। यह 23 सितंबर, 2020 की बात है।
संतोषी की मौत के बाद से उसका पति लालता भी बीमार चल रहा है। वह अपना इलाज करा रहा है लेकिन उसके भी स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हो रहा है। उसकी बेटी इलाज के लिए उसे अपने यहां अपने गांव में ले गई जहां उसकी ससुराल है। वहां लालता का इलाज वह प्राइवेट हॉस्पिटल में करा रही है।
लालता का नाबालिग बेटा उसे छोड़कर चला गया है। उसकी 8 साल की बेटी करिश्मा तकरीबन अनाथ होने के कगार पर पहुंच गई है। वो बचपन में घरों में मजदूरी कर रही है।
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लीलावती की कहानी उसी की जुबानी
मेरा नाम लीलावती है। पत्नी शेरबहादुर, रूपचन्दपुर, पोस्ट मिरशादपुर, तहसील बदलापुर, जिला जौनपुर की स्थायी निवासी हूं। मेरा एक छोटा सा परिवार है। हम लोग दूसरों के खेत में मजदूरी करते हैं। उसी से अपना घर चलाती हूं। मेरे पति की तबियत कुछ खराब रहती है फिर भी हम सब ठीक ही थे, कि अचानक मार्च के महीने में करोना आ गया।
करोना में लोग एक दूसरे को पास खड़ा होने से भी मना करते थे। यहां तक कि अप्रैल में जो फसल तैयार हुई उसे हम मजदूर इकट्ठा होकर काम भी नहीं कर पाते थे। खेत में पुलिस पहुंच जाती थी। वे लोग कहते थे कि एक साथ काम नहीं कर सकते हैं और मारपीट कर के भगा देते थे। किसी तरह हम मजदूरों को रात में ही काम करना पड़ता था।
एक दिन मेरे लड़के की तबियत अचानक खराब हो गई। मैं अपने बच्चे को लेकर सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पर गई। वहां पर भी करोना के कारण चिलचिलाती धूप में लाइन लगानी पड़ी, वहां पर भी पुलिस के डंडे खाने पड़े। किसी तरह से डाक्टर के पास पहुंचे तो वह भी दूर से बच्चे का इलाज किये और दवा लिख दी, जिससे बहुत ज़यादा आराम नहीं मिला।
इधर करोना के चलते कोई काम धंधा भी नहीं चल रहा था कि हमारे पास पैसा हो और दवा के लिए कहीं चले जाएं। जो कुछ अनाज मिला उसी को बेचकर बच्चे की दवा के लिए जौनपुर जाने लगे। रास्ते में पुलिस हमें रोककर मारने ढकेलने लगी और कहने लगी कहां जा रहे हो? तब मैंने अपने बच्चे को दिखाया और सिफारिश की, तब पुलिस वालों ने हमें जाने दिया। इस तरह से बड़ी परेशानी झेलते हुए मैंने अपने बच्चे का इलाज कराया।
इधर घर में खाने की बड़ी परेशानी आ गई। करोना काल में ऐसा दिन आ गया कि हमें कई दिन रोटी नमक खाकर सोना पड़ा। जो सरकारी सुविधाएं भी मिल रही थीं वह काफी नहीं थी। जो महीने में राशन मिलता था उसी में से कुछ बेचकर अपना तेल मसाला हम चलाते थे। बाकी का खर्च बड़ी समस्याओं का सामना करते हुए झेलना पड़ा। मेरे परिवार में किसी को जुखाम बुखार हो जाता था तो करोना के डर के मारे दवा लेने कहीं बाहर नहीं जाते थे, घर पर ही घरेलू उपचार करके किसी तरह से ठीक होना पड़ता था।
तीन महीने बाद जुलाई के महीने में थोड़ा सा खेती का काम चालू हो गया और हम सब मजदूर दूसरों के खेत में मजदूरी करने लगे। थोड़ा खाने पीने में परिवर्तन हुआ लेकिन यह भी बरसात का महीना था, इसमें ज्यादा भीग कर खेत में काम करने से तबीयत खराब होने लगी। फिर भी किसी तरह से अपना समय बिताये।
यह ऐसा समय था कि गांव के लोग किसी की भी मदद नहीं करते थे जबकि करोना से पहले गाँव में ऐसा नहीं होता था। लोग एक दूसरे की मदद बडे़ ही सरलता से करते थे, लेकिन यह करोना तो हम मजदूरों की स्थिति को एक दम से झकझोर दिया। हम गरीब मजदूर इस करोना की मार खाकर कम से कम पाँच साल पीछे हो गये। हम मजदूरों को आगे बढ़ने के लिए बड़ा मेहनत करना पड़ेगा।
भारतीय जनता सेवा आश्रम, बदलापुर, जौनपुर के सौजन्य से प्राप्त