मध्य और पूर्वी भारत के घने जंगलों, पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों और पांचवीं अनुसूची के आदिवासी इलाकों में कार्पोरेट लूट बंद करो
3 राज्य सरकारों और जन आंदोलनों की आपत्तियों पर प्रधानमंत्री को ध्यान देना होगा
जलवायु विरोधी ‘कोयला-केन्द्रित’ ऊर्जा अर्थव्यवस्था पर तत्काल पुनर्विचार करना ज़रूरी है
जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय प्रधानमंत्री के नेतृत्व में वर्तमान सरकार की विनाशकारी योजनाओं की निंदा करता है जिसने मध्य और पूर्वी भारत के जैव-विविधता पूर्ण, आदिवासी इलाकों में 41 कोयला खदानों की ‘वर्चुअल नीलामी’ करने का निर्णय लिया है। इन इलाकों को मुनाफाखोर घरेलू और विदेशी कार्पोरेट खनन इकाइयों के लिए खोल देने से यह प्राचीन वन भूमि अपरिवर्तनीय रूप से खतरे में आ जाएगी, पर्यावरणीय प्रदूषण और कोविड के इस समय में सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए खतरा बढ़ेगा और साथ ही, आदिवासी जनसंख्या और वन्यजीवों का एक बड़ा क्षेत्र तबाह हो जाएगा।
यह कदम प्रधानमंत्री का इस देश के नागरिकों के साथ किया जा रहा एक और छलावा है, जिसे “आत्मनिर्भर भारत’ की आड़ में थोपा जा रहा है, लेकिन वास्तव में यह स्वशासन के संवैधानिक अधिकार को लोगों से छीन लेता है। कोविड की आड़ में ‘आर्थिक पुनर्जीवन’ के नाम पर, सरकार द्वारा इन क्षेत्रों में ज़मीन और जंगलों पर निर्भर समुदायों के अधिकारों का गंभीर उल्लंघन किया जा रहा है। 47 वर्षों तक ‘कोल इंडिया लिमिटेड’ के सार्वजनिक क्षेत्र के स्वामित्व में रहने के बाद, इस कार्यक्षेत्र को अब निजी कम्पनियों के हाथों ऐसे नाज़ुक ‘गैर-हस्तक्षेप क्षेत्रों’ और समृद्ध संसाधनों के दोहन के लिए सौंपा जा रहा है।
यहाँ ध्यान देना ज़रूरी है कि नीलामी की घोषणा हाल ही में, मार्च 2020 में खनिज कानून (संशोधन) अधिनियम, 2020 (जिसे जनवरी में अध्यादेश के रूप में लागू किया गया था) केपारित होने के बाद की गयी, जो कि कोयला खनन (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 2015 और खनन एवं खनिज (विकास और विनयमन) अधिनियम, 1957 के संशोधन के लिए लाया गया था, जिसका उद्देश्य अंतिम उपयोग पर ‘प्रतिबंधों को कम’ करना और कोयला नीलामी में भागीदारी के लिए पात्रता के मापदंडों में ढील देना था, विशेषकर वैश्विक बोली लगाने वालों द्वारा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए। वास्तव में, अगस्त 2019 में, मोदी सरकार ने कोयला खनन, प्रौद्योगिकी और बिक्री के लिए ‘आटोमेटिक रास्ते’ से 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को स्वीकृति दे दी थी।
जिस मुखर तरीके से सरकार ने यह फ़ैसला लिया है, वह एक बार फिर दर्शाता है कि उसे देश के कानून, हाशिये के समुदायों के हित और जल-जंगल-ज़मीन की कोई परवाह नहीं है। पांचवीं अनुसूची क्षेत्र के आदिवासियों के लिए दी गयी संवैधानिक सुरक्षाओं का उल्लंघन करने के साथ-साथ, सरकार का यह कदम कई अन्य सुरक्षात्मक और सक्षमात्मक कानूनों को झटका देता है, जिनमें शामिल हैं:
- अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (एफ.आर.ए.)
- पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) के प्रावधान
- पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम, 1986 और पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अधिसूचना, 2006
- भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवज़ा एवं पारदर्शिता का अधिकार, सुधार तथा पुनर्वास अधिनियम, 2013 (एल.ए.आर.आर.)
नीलामी का एकतरफा फ़ैसला सर्वोच्च न्यायलय के भी कई फ़ैसलों का उल्लंघन करता है:
- 11 जुलाई, 1997 का समता बनाम आंध्र प्रदेश सरकार व अन्य मामले में दिया गया फ़ैसला जिसमें कहा गया कि सरकार के साथ-साथ अन्य सभी संस्थाएं ‘गैर-आदिवासी’ हैं और केवल आदिवासी सहकारी समितियों को ही उनकी भूमि पर खनन करने का अधिकार है, अगर वे करना चाहें तो।
- 18 अप्रैल, 2013 का उड़ीसा खनन कारपोरेशन लिमिटेड बनाम पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (नियमगिरि फ़ैसला) में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने आदेश पारित किया किग्राम सभा के अधिकार को बरक़रार रखा कि वह विचार व निर्णय ले सकती है कि उसे अपने क्षेत्र में खनन की इजाज़त देनी है या नहीं।
- 8 जुलाई, 2013 का थ्रेस्सिअम्मा जैकब व अन्य बनाम भूवैज्ञानिक, खनन विभाग मामले में दिया गया फ़ैसला, जिसमें जस्टिस आर.एम.लोधा के नेतृत्व में एक तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि खनिजों का स्वामित्व भूमि मालिक के अंतर्गत आता है।
- 25 अगस्त, 2014 का मनोहर लाल शर्मा बनाम प्रमुख सचिव व अन्य (कोलगेट मामला) मामले में दिया गया फैसला, जिसमें मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि कोयला ‘राष्ट्रीय सम्पदा’ है, जिसे केवल ‘आम लोगों की भलाई’ व ‘सार्वजानिक हित’ के लिए उपयोग किया जाना चाहिए।
ग्राम सभा, जो कि अनुसूचित क्षेत्रों के गाँवों में प्राथमिक निर्णय लेने वाला निकाय है, से पूर्व अनुमति व सलाह–विमर्श किए बिना व्यावसायिक खनन करना स्पष्टतः संवैधानिक और वैधानिक उल्लंघन है। इसके अतिरिक्त, वन अधिकार अधिनियम में स्पष्ट रूप से वनों को ग्राम सभा के सामुदायिक संसाधन के रूप में परिभाषित किया गया है। इसलिए, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि व्यवसायिक खनन के लिए, कोयला खदानों की नीलामी की 11वीं कड़ी के रूप में, 41 कोयला खण्डों (9 खंड झारखण्ड, 9 छत्तीसगढ़ और 9 उड़ीसा, 11 मध्य प्रदेश और 3 महाराष्ट्र) के खोले जाने की घोषणा के परिणामस्वरूप, इन पांच राज्यों की कई ग्राम सभाओं, जन संगठनों और मजदूर संघों के साथ-साथ तीन राज्य सरकारों की ओर से भी तीखी प्रतिक्रिया आई है।
- इस फ़ैसले पर छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन ने मुखर विरोध प्रकट किया है। छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य क्षेत्र की लगभग 20 ग्राम सभाओं, जो वर्ष 2015 से कोयले के खनन का विरोध करती आई हैं, ने प्रधानमंत्री को नीलामी रोकने के लिए पत्र लिखा है। हसदेव अरण्य भारत का सबसे लंबा अखंडित जंगल का विस्तार है, जो कि 1,70,000 हेक्टयर क्षेत्र में फैला है, हाथियों का एक महत्वपूर्ण गलियारा है और इस क्षेत्र में गोंड आदिवासी समुदाय सदियों से रहते आये हैं। राज्य के वन मंत्री ने केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री को लिखा है कि वे हसदेव अरण्य, मांड नदी कोयला खंड और लेमरू हाथी आरक्षित क्षेत्र (1,995 वर्ग कि.मी. वन क्षेत्र), जो कि जलग्रहण क्षेत्र में स्थित है, को नीलामी से बाहर कर दें, जिससे कि मनुष्य जीवन को होने वाले खतरे को रोका जा सके और मनुष्य-हाथी मुठभेड़ की स्थिति पैदा न हो। इस क्षेत्र में पहले से ही तीन खदानें चल रही हैं, पांच खदानें आवंटित हैं और 12 कोयला भण्डार क्षेत्र हैं।
- झारखण्ड के जन-संगठनों, जिनमें झारखण्ड जनाधिकार महासभा शामिल है, ने केंद्र सरकार के इस निर्णय के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध का ऐलान किया है। झारखण्ड सरकार ने शुरुआत में, व्यावसायिक खनन के लिए ‘सशर्त समर्थन’ घोषित किया और ‘एक तुल्य सतत खनिज-आधारित विकास’ सुनिश्चित करने के लिए, नीलामी की प्रक्रिया पर 6-9 महीने की रोक की अवधि की मांग की | मगर अब झारखंड सरकार ने यह कहते हुए, सर्वोच्च न्यायलय का दरवाज़ा खटखटाया है कि ‘इतनी विशाल आदिवासी जनसंख्या पर होने वाले सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव और वन भूमि के विशाल क्षेत्रों पर होने वाले संभावित नकारात्मक प्रभावों का उचित आंकलन होना ज़रूरी है’। सर्वोच्च न्यायालय में दर्ज की गयी याचिका में यह भी कहा गया है कि 13 मार्च, 2020 को पारित खनिज कानून (संशोधन) अधिनियम, 2020, जिसको लागू करने की 60 दिन की अवधि 14 मई, 2020 को ख़त्म हो चुकी है और इसलिए यह नीलामी ‘कानूनी शून्यता’ की स्थिति में नहीं की जा सकती। मुख्यमंत्री ने इस नीलामी को ‘सहाकरी संघवाद’ की भावना का भी उल्लंघन बताया है।
- उड़ीसा में नीलाम किये गए 9 कोयला खदानोंमें से, 8 अंगुल जिले में हैं, जिनका विस्तार 3,000 हेक्टेयर में फैला है, जहाँ पर कई वर्षों से लोग विनाशकारी खनन के खिलाफ विरोध करते आये हैं। तालचेर-अंगुल और आई.बी घाटी को केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने 3 दशकों से ‘गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्र’ घोषित किया हुआ है, जिसमें कोई सुधार नहीं हुआ है, बल्कि वहां के पर्यावरण, लोगों के स्वास्थ्य में और गिरावट ही हुई है और विस्थापन बढ़ा है। यह सभी कोयला खण्ड घनी आबादी क्षेत्रों में स्थित हैं, जहाँ हजारों परिवार रहते हैं और ब्राह्मणी जैसी महत्वपूर्ण नदी के भी बहुत पास हैं। व्यावसायिक कोयला खनन से और अधिक पर्यावरणीय विनाश, विस्थापन और क्षेत्र में पानी की धाराओं और नहरों का पूरी तरह से नाश हो जाएगा।
- संरक्षण कार्यकर्ताओं के विरोध और राज्य वन विभाग की आपत्तियों के बावजूद, महाराष्ट्र के बांदेर, जो कि कोल इंडिया लिमिटेड की संस्थानों द्वारा किये गए अध्ययनों के अनुसार भी 80 प्रतिशत वन क्षेत्र और पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील बाघ गलियारा है, को कोयला खंड के लिए नीलाम कर दिया गया है। इस कदम को ‘अभूतपूर्व’ बताते हुए, महाराष्ट्र के पर्यावरण मंत्री ने भी कड़े शब्दों में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री को पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने बांदेर में कोयला खण्डों की नीलामी पर विरोध व्यक्त किया है और ध्यान दिलाया है कि अगर इसकी अनुमति दे दी गयी, तो इसके परिणामस्वरूप चंद्रपुर के जैव-विविधता संपन्न क्षेत्र में मानव-पशु मुठभेड़ के मामले बढ़ जायेंगे।
- नरसिंघपुर, मध्य प्रदेश का गोटीतोरिया पूर्व कोयला खंड 80 प्रतिशत वन क्षेत्र है और यह सीतारेवा नदी के जल निकासी क्षेत्र के रूप में काम करता है। सिंगरौली क्षेत्र, जो कि ‘भारत की ऊर्जा राजधानी’ के रूप में कुख्यात है, का पहले से ही बुरी तरह से दोहन किया जा चुका है और यहाँ के आदिवासी व अन्य ग्रामवासी कम्पनियों द्वारा अंधाधुंध खनन, पुनर्वास के विफल प्रयासों और गंभीर प्रदूषण से जूझते आये हैं। इसके अतिरिक्त, छिन्दवाड़ा में डब्लू.सी.एल. खनन के खिलाफ पहले से ही संघर्ष चल रहा है।
विस्थापन, आजीविका और पर्यावरण पर प्रभाव: व्यावसायिक खनन के लिए इन क्षेत्रों को खोलने का निर्णय लेते हुए, केंद्र सरकार ने स्पष्टतः पर्यावरण और क्षेत्र के लोगों – भूमि मालिक और कृषक, ज़्यादातर आदिवासी, दलित और वन निवासी – पर होने वाले विशाल प्रभावों को नज़रंदाज़ किया है। कोयला खनन, ढुलान (परिवहन) और कोयला खदानों को सही तरीके से बंद न करने की महत्वपूर्ण पर्यावरणीय और मानवीय कीमत चुकानी पड़ती है। स्थानीय समुदाय जो भय व्यक्त कर रहे हैं, वे बेबुनियाद नहीं हैं, खासकर यदि कार्पोरेट और निजी कम्पनियों द्वारा किये गए उल्लंघनों के इतिहास के संदर्भ में देखा जाए – कंपनियों ने लगातार ‘स्वीकृति’ की शर्तों की अवमानना की है, जिसके कारण दर्दनाक भूमि-अलगाव और विस्थापन पैदा हुआ और पुनर्वास ठीक से नहीं किया गया, बेरोकटोक प्रदूषण, आक्रामक मानव अधिकार हनन और ‘कार्पोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी’ (CSR) के तहत किये गए वायदों को पूरा भी नहीं किया गया।हज़ारों कोयला मज़दूर भी कोयला खदानों के व्यवसायीकरण के फैसले का विरोध कर रहे हैं, और उनमें से कई इसके लिए दमन और मनमाने आरोपों का सामना कर रहे हैं।
मध्य और पूर्वी भारत इस प्रकार के जबरन भूमि अधिग्रहण, खनन पट्टों के गैर-कानूनी विस्तारीकरण, प्रदूषण और दयनीय पुनर्वास के खिलाफ चल रहे जन संघर्षों से व्याप्त है। यह कोई आश्चर्य नहीं है कि महत्वपूर्ण जन-जातीय आबादी वाले तीन राज्यों ने कोयला नीलामी पर आपत्ति जतायी है क्योंकि आजादी के बाद से कोयला खनन और औद्योगिक विकास के सबसे बुरे शिकार आदिवासी ही रहे हैं। 1960 के दशक में, औसतन कोयला खदान का आकार 150 एकड़ था जो 1980 के दशक में बढ़कर 800 एकड़ हो गया और अब 3,500 एकड़ तक की खुली खदान के रूप में विकसित होने के साथ-साथ, अधिक भूमि की आवश्यकता है। ‘ओपन-कास्ट’ खदानें न केवल अधिक प्रदूषण का कारण बनती हैं, बल्कि जंगल, भूमि, जल निकायों और जैव-विविधता के बड़े हिस्से को नष्ट कर देती हैं और आस-पास के क्षेत्रों में अत्यधिक सामाजिक, पर्यावरणीय और स्वास्थ्य प्रभाव पैदा करती हैं।
देश की स्वतंत्रता से लेकर अब तक अनुमानित 100 मिलियन लोग ‘विकास परियोजनाओं’ के कारण विस्थापित हुए हैं, जिनमें से लगभग 12%, यानि कि 12 मिलियन लोग अकेले कोयला खनन से प्रभावित हुए हैं, और इनमें से 70% आदिवासी आबादी है। ‘पुनर्व्यवस्थापन औरपुनर्वास’ का रिकॉर्ड प्रभावित लोगों का मात्र 25% है, जिन्हें या तो नकद मुआवज़ा मिला है या फिर खनन कंपनियों के साथ किसी प्रकार की नौकरी मिली है। अब चूंकि निजी कंपनियों को ही सभी ‘अनुबंध’ प्राप्त होते हैं, परियोजना-प्रभावित लोगों के लिए क्षतिपूर्ति नकद ही है। अपने सामने ऐसे कई उदाहरण हैं जहां नकद-आधारित पुनर्वास के कारण पूरे समुदाय नष्ट हो गए हैं।
संघीय भावना पर हमला: कोयला खदानों की नीलामी के लिए अपनाया गया तरीका संविधान की संघीय संरचना और राज्यों की अपने प्रदेश के लोगों और प्राकृतिक संसाधनों के विकास पर निर्णय लेने के अधिकार पर आघात है। यह कदम वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा निर्णय-शक्ति के ‘केन्द्रीकरण की परियोजना’ को और ठोस बना देता है, जिससे कि वह अपने घोर इरादों को पूरा कर सके। वास्तव में झारखण्ड के मुख्यमंत्री ने कहा है कि राज्यों द्वारा व्यक्त की गई चिंताएं, खास करके संभावित सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय कीमतों तथा वनों और आदिवासी लोगो पर होने वाले प्रभावों पर ध्यान दिए बिना, केन्द्रीय कोयला मंत्रालय तथा प्रधानमंत्री ने व्यावसायिक खनन और कोयला खण्ड नीलामी का निर्णय लिया है, जो सहकारी संघवाद की घोर उपेक्षा है। यह तथ्य कि 5 में से 3 राज्यों ने प्रधानमंत्री की घोषणा के एक सप्ताह के अन्दर अपना विरोध व्यक्त किया है, स्पष्ट रूप से इशारा करता है कि इस प्रक्रिया में राज्यों को विश्वास में नहीं लिया गया है।
दावे और कीमतें: हालांकि प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि व्यावसायिक खनन से राज्यों को राजस्व प्राप्त होगा, 2.8 लाख नौकरियां पैदा होंगी, अगले 7 वर्षों में रु. 33,000 करोड़ निवेश आएगा और कोयला निकासी तथा परिवहन के लिए रु.50,000 करोड़ के मूलभूत निर्माण पर निवेश किया जाएगा, लेकिन विशाल सामाजिक-पर्यावरणीय कीमतें इन दावों से कहीं ज़्यादा हैं। सरकार की योजना है कि वर्ष 2030 तक 100 मिलियन टन कोयले को ‘गैसिफाय’ किया जाएगा, जिसके लिए रु.20,000 करोड़ की 4 परियोजनाएं निर्धारित की गयी हैं। व्यावसायिक कोयला खनन के निर्णय के घरेलू कोयला उद्योग पर होने वाले प्रभावों से सभी अच्छी तरह से अवगत हैं। अंतिम उपयोग और कीमतों पर कोई प्रतिबन्ध न होने से, सरकार सार्वजानिक हित, पर्यावरण और वन क्षेत्रों के लोगों के अधिकारों में अपनी अहम भूमिका से स्पष्ट रूप से हाथ धो रही है।
कोयला निर्यात के मुकाबले कोयला युग का अंत: वैश्विक मंचों पर प्रधानमंत्री और पर्यावरण मंत्री के भारी बयानबाज़ी के बावजूद, कई विनाशकारी परियोजनाओं के लिए स्वीकृतियां देने के अनगिनत निर्णय, पर्यावरण प्रभाव आंकलन अधिसूचना में संशोधन और अब घने जंगलों में व्यावसायिक कोयला खनन, यह सब ‘पेरिस समझौते’ के अंतर्गत जलवायु प्रभावों को कम करने के लिए हमारे दायित्वों के प्रति वचनबद्धता की कमी को दर्शाता है। 2015 में जलवायु परिवर्तन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में पेरिस समझौते पर हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते, भारत ने वर्ष 2030 तक, 2005 के स्तरों के मुकाबले, उत्सर्जन की तीव्रता में 33-35 प्रतिशत कमी लाने का संकल्प लिया था और पारंपरिक ऊर्जा के स्त्रोतों से अक्षय ऊर्जा की ओर नीतिगत बदलाव लाना भी स्वीकार किया था।
विडंबना यह है कि, प्रधानमंत्री की घोषणा के एक दिन बाद, पृथ्वी विज्ञान के केन्द्रीय मंत्रालय द्वारा ‘भारतीय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन का आंकलन’ की पहली रिपोर्ट औपचारिक रूप से जारी की गयी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 1901-2018 के बीच ‘ग्रीनहाउस गैस’ उत्सर्जन के कारण, देश के औसत तापमान में 0.7°C की बढ़ोतरी हुई है और अनुमान है कि इस शताब्दी के अंत तक यह 4.4°C तक बढ़ सकता है। इसका तात्पर्य है कि कठोर मौसम की घटनाओं की तीव्रता और आवृत्ति भी बढ़ जाएगी। कोयले का दहन ग्रीनहाउस उत्सर्जन में प्रमुख योगदान करता है। कोयला, खनन से लेकर, परिवहन, ताप विद्युत् संयंत्रों और फ्लाई ऐश के रूप में निराकरण तक के अपने जीवनकाल में, पर्यावरणीय विनाश, कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन को अंजाम देता है।
ऐसे समय में, जबकि कई देश कोयले से हटने, ताप विद्युत् संयंत्रों का निराकरण और विघटन करते हुए, अक्षय विकल्पों की दिशा में बढ़ रहे हैं और यहाँ तक कि बैंक भी अब कोयला और ताप ऊर्जा परियोजनाओं को वित्तपोषण देने के पक्ष में नहीं हैं, तब भी भारत का कोयले के निर्यात पर ज़ोर देने का एक ही मतलब है कि देश में और अधिक पर्यावरणीय प्रभाव और विस्थापन बढ़ेगा, जबकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए कुछ ख़ास मांग भी नहीं है। सरकार के खुद के दस्तावेजों, जिसमें कोल इंडिया लिमिटेड विज़न – 2030, सी.ई.ए. योजनाएं आदि भी शामिल हैं, का अनुमान है कि अगले दशक तक की देश की कोयला ज़रूरतों के लिए अतिरिक्त खदानों के आवंटन की आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा, सार्वजानिक स्तर पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत के पास ‘गैर-हस्तक्षेप’ क्षेत्रों में पर्याप्त कोयला जमा है और घने जंगलों में खनन करने का कोई कारण या औचित्य नहीं है!
‘आत्मनिर्भरता’ का सही अर्थ: कोयले जैसे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन केवल सार्वजानिक हित के लिए किया जाना चाहिए, जहाँ देश के कानून और भू-मालिकों तथा आदिवासियों के अधिकारों, पांचवी अनुसूची क्षेत्रों और पर्यावरणीय नियमों से संबंधित न्यायिक घोषणाओं का सम्मान किया जाए और आदिवासियों तथा ग्राम सभाओं को निर्णय लेने तथा सहमति देने का पहला अधिकार हो, उनकी सहकारी समितियों को उचित हिस्सा मिले न कि मुनाफाखोर कार्पोरेट को। खनन का निर्णय कार्पोरेट या नेताओं के हाथ में नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों के हाथ में होना चाहिए।
जहाँ भी ज़रूरी व अनिवार्य हो, सरकार को ग्राम सभाओं से उन्मुक्त, पहले से और सूचित सहमति लेनी चाहिए और भू-स्वामियों और ग्रामवासियों की सहकारी समितियां बनाने तथा पंजीकरण में सहयोग देना चाहिए और उचित पूँजी, तकनीकी सहयोग, प्रबंधन क्षमताएं, व्यापारिक अवसर उपलब्ध कराने चाहिए, जिससे कि वे खनन व उससे जुडी गतिविधियाँ खुद चला सकें। वास्तव में यह ‘आत्म-निर्भरता’ और प्राकृतिक संसाधनों के सामुदायिक स्वामित्व की भावना के पक्ष में होगा।
जहाँ हम कार्पोरेट-पक्षीय, राष्ट्र-विरोधी व्यावसायिक कोयला खनन का विरोध करते हैं, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शक्तिशाली व्यापार लॉबी के इशारे पर विभिन्न कार्यक्षेत्रों, जैसे कि कृषि, सूक्ष्म लघु एवं मध्यम उद्योगों, कोयला, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि, में ‘संशोधनों’ के नाम पर सरकार पूर्णतया निजीकरण की दिशा में बढ़ रही है और ‘कल्याणकारी राज्य’ की अंतिम प्रतिशतों को भी त्याग रही है। इस उद्देश्य से, विद्युत्, श्रम, पर्यावरण, ज़मीन, वन अधिकार, स्थानीय प्रशासन आदि सभी क्षेत्रों से संबंधित सुरक्षात्मक कानूनों को या तो कमज़ोर किया जा रहा है या बिलकुल ही समाप्त कर दिया जा रहा है!
- हम केंद्र सरकारसे आह्वान करते हैं कि वह तुरंत 41 कोयला खण्डों में व्यावसायिक नीलामी को वापस ले, जो कि पर्यावरण, अर्थव्यवस्था, पाँचों राज्यों के लोगों के अधिकारों और भारत की जलवायु वचनबद्धताओं के हित में है। सरकार को ग्राम सभाओं के संवैधानिक अधिकारों को कायम रखना होगा, न कि मुनाफाखोर कार्पोरेट के।
- हम झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों/ मंत्रियों की चिंताओं और विरोध का स्वागत करते हैं और उनसे तथा ओडीशा और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्रियों से अनुरोध करते हैं कि वे अपने राज्य के लोगों के हितों को प्राथमिकता दें, न कि केंद्र सरकार के फरमानों को और आदिवासियों तथा वन निवासियों के जीवन के विनाश का विरोध करें, उन सभी कानूनों को पूरी तरह से लागू करें जो लोगों के प्राकृतिक संसाधनों और स्वशासन के अधिकारों की रक्षा करते हैं तथा विकास के वैकल्पिक गैर-शोषक प्रारूपों को अपनाएं।
- हम भारत सरकार के निर्णय के खिलाफ जमीनी स्तर पर चल रहे विरोध का समर्थन करते हैं। हम विपक्ष की पार्टियों, जन संगठनों और मजदूर यूनियनों से आह्वान करते हैं कि वे आदिवासी और वन निवासियोंका साथ दें कि वे अपनी ज़मीनों और संसाधनों के बिना उनकी सहमती के, जबरन अधिग्रहण या खनन से सुरक्षा कर सकें।
- हम इन सभी राज्यों की ग्राम सभाओं और जनजाति सलाहकार परिषद (TAC) से आह्वान करते हैं कि वे सर्वसम्मति से इन व्यावसायिक कोयला नीलामियों के विरुद्ध प्रस्ताव पारित करें।
- हम सर्वोच्च न्यायलय से आशा करते हैं कि वह खदानों की व्यावसायिक नीलामी के निर्णय को रद्द कर देगा, विशेषकर गंभीर संवैधानिक और कानूनी उल्लंघनों के संदर्भ में।
- हम वनाधिकार अधिनियम और पेसा अधिनियम जैसे सक्षमकारी कानूनों को सम्पूर्ण रूप से लागू किये जाने के संघर्ष को बढ़ाना जारी रखेंगे।
- हम लगभग 3 लाख कोयला मजदूरों के लिए अपने सहयोग की घोषणा करते हैं, जो कि अखिल भारतीय कोयला मजदूर फेडरेशन और अन्य कोयला यूनियनों से जुड़े हुए हैं, जिन्होंने 2 जुलाई से 3 दिवसीय अखिल भारतीय हड़ताल की घोषणा की है | प्रस्तावित निजीकरण का विरोध, ठेके पर मजदूरों के वेतन में बढ़ोतरी और चिकित्सीय रूप से योग्य पाए जाने वाले कर्मचारियों के परिवारजनों को नौकरी दिए जाने की उनकी मांगों का हम समर्थन करते हैं। प्रतिरोध कर रहे मज़दूरों के ऊपर सरकार की दमनकारी और दंडात्मक कार्यवाही की हम निंदा करते हैं और मांग करते हैं कि उनके खिलाफ दर्ज किये गए मामले (FIR) वापस लिए जाए।
- हमारी मांग है कि सरकार सभी मौजूदा कोयला खदानों पर श्वेत पात्र जारी करे, जिसमें सभी स्वीकृतियों और उत्पादन व अतिरिक्त खदानों की (घने जंगलों में) ज़रूरत की विस्तृत जानकारी शामिल हो।
- हम सभी चिंतित नागरिकों से अपील करते हैं कि वे हमारे सार्वजनिक कार्यक्षेत्र की धीमी मौत और कार्पोरेट-सरकार की मिलीभगत में दिन-दहाड़े प्राकृतिक संसाधनों की लूट का विरोध करें।
और अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें: फ़ोन : 7337478993, 9869984803 या फिर ईमेल करें: napmindia@gmail.com
Like!! Great article post.Really thank you! Really Cool.
Thanks so much for the blog post.
I learn something new and challenging on blogs I stumbleupon everyday.
Hi there, after reading this amazing paragraph i am as well delighted to share my knowledge here with friends.
Very good article! We are linking to this particularly great content on our site. Keep up the great writing.