स्मृतिशेष: एक नागरिक-कवि का जाना केवल कविता का नुकसान नहीं होता


प्रतिष्ठित कवि, लेखक और शिक्षक शंख घोष का निधन बंगाल के साहित्यिक, बौद्धिक और नैतिक परिदृश्‍य से एक विराट व लगभग चुप-सी एक उपस्थि‍ति का गायब हो जाना है। शंख बाबू सत्‍ताधीशों के मुंह पर सच बोलने की वह विरासत छोड़ गये हैं जिस पर उनके कुछ छात्रों और प्रशंसकों को आने वाले कुछ बरसों तक नाज़ रहेगा। यह सच उनकी कविता और दूसरी विधाओं के लेखन तक सीमित नहीं था, बल्कि एक नागरिक के रूप में उनकी भूमिका में भी निहित था जो कभी भी किसी सार्वजनिक संकट के पल में अपना पक्ष चुनने व जाहिर करने में नहीं सकुचाया।

चाहे वह 1960-70 के दशक रहे हों जब इंकलाबी बदलाव की मांग उठा रहे अपरिपक्‍व लेकिन आदर्श से भरे युवाओं को कलकत्‍ता और ग्रामीण इलाकों में राज्‍य की गोलियों से भूना जा रहा था, या फिर चार दशक बाद जब निस्‍सहाय किसानों और उनके परिवारों को नंदीगाम में मारा जा रहा था, शंख घोष किसी भी मौके पर सच और न्‍याय के हक में बोलने के अपने कर्तव्‍य से नहीं चूके- चाहे अपनी कलम से या फिर पीड़ित के साथ चुपचाप खड़े होकर। दोनों ही मुद्राएं बराबर प्रभावशाली रहीं। ऐसा कोई शख्‍स जब चला जाता है, तो कहने की ज़रूरत नहीं कि केवल कविता का नुकसान नहीं होता।

एक प्रतिष्ठित लघुपत्रिका ‘संगबर्तक’ में शंख बाबू का ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर पर लिखा अंतर्दृष्टिपूर्ण लेख पढ़ते हुए यह समझ में आता है कि इस कवि के साहसपूर्व जीवन और गुम हो चुके सरोकारों के साथ अपनापे के भाव की बुनियाद में क्‍या था। ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर के प्रति श्रद्धाभाव उन्‍हें अपने शिक्षक पिता से विरासत में मिला था, जो आज से अस्‍सी-नब्‍बे साल पहले बेशक उतने साधन-संपन्‍न नहीं रहे होंगे पर अपने मामूली से घर को उन्‍होंने किताबों की कतार दर कतारों से पाट रखा था। अन्‍य पुस्‍तकों के अलावा विद्यासागर से जुड़ा जो कुछ भी उन्‍हें मिला, सब इन किताबों में मौजूद था।

लेख को पढ़ते हुए समझ में आता है कि सहज सामान्‍य बने रहने के साथ एक दृढ़-संकल्पित नेतृत्‍वकारी भूमिका निर्वहन का गुण शंख घोष में कहां से पनपा था। 2007 की बात है जब नंदन परिसर में चल रहे एक अंतरराष्‍ट्रीय फिल्‍म महोत्‍सव के दौरान रबींद्र सदन के सामने विरोध प्रदर्शन कर रहे तमाम युवाओं को पुलिस ने हिरासत में लिया था। इनमें बड़ी संख्‍या वामपंथी युवाओं की थी जिनका सीपीएम की कार्यशैली से मोहभंग हो चुका था। तब अभिनेत्री अपर्णा सेन के साथ कवि शंख घोष कलकत्‍ता पुलिस के लालबाज़ार स्थित मुख्‍यालय पहुंच गये थे और उन्‍होंने पुलिस से अनुरोध कर के यह सुनिश्चित किया था कि गिरफ्तार किये गये युवाओं को प्रताड़ित या अपमानित न किया जाय। वे अपनी मद्धम लेकिन दृढ़ आवाज़ में पुलिस को समझा रहे थे कि गिरफ्तार किये गये लोगों ने कोई हिंसा नहीं की है, वे तो दमनकारी राजनीतिक संस्‍कृति के खिलाफ बस अपनी आवाज़ उठाने और सुनाने की कोशिश कर रहे थे। बाद में गिरफ्तार किये गये युवाओं को चेतावनी देकर छोड़ दिया गया, पर उससे पहले उन्‍हें रसगुल्‍ला और केला भी खाने को दिया गया।

शंख घोष के बारे में मैंने बहुत कुछ सुन रखा था। उनकी अंग्रेज़ी में अनूदित कविताएं भी पढ़ रखी थीं, जिसका श्रेय कल्‍याण राय को जाता है, लेकिन वह पहला मौका था जब लालबाज़ार में मैंने उस शख्‍स को साक्षात् देखा: एक ऐसा धोती कुर्ताधारी, जिसके भीतर करुणा और दृढ़-निश्‍चय बराबर मात्रा में थे, जो उसे आपत्ति में खड़ा होने को अन्तः प्रेरित करते थे। माहौल चूंकि तनावपूर्ण था, तो उनसे उस वक्‍त बात करने का कोई सवाल ही नहीं उठता था, हालांकि करीब एक दशक बाद उनसे संवाद का एक मौका मिला। तब तक उम्र उनके चेहरे पर झलक आयी थी और वे वॉकर के सहारे से चलने लगे थे। इसके बावजूद मुझे लगा था कि उनकी आंखों में जो तेज हमने पिछली बार देखा था, आज भी कायम था। उनसे मिलने गये समूह में एक-एक कर के सबसे उन्‍होंने संक्षिप्‍त बात की थी।

उसी दिन बाद में मुझे पता चला कि शंख बाबू वैसे तो खाने-पीने के बहुत शौकीन नहीं थे, लेकिन चॉकलेट उनकी कमज़ोरी था। यह जानकारी मेरे लिए बहुत विस्‍मयकारी थी, जो मेरे खयाल से इस नागरिक-कवि के भीतर सांस ले रहे ‘व्‍यक्ति’ को पूर्णता प्रदान करती थी। ज्ञानपीठ सम्‍मानित इस कवि के कुछ अमोल सुखों में एक चॉकलेट हैं, इस बात ने मुझे उनकी कविता ‘चॉकलेट’ की याद दिला दी जो राय द्वारा अंग्रेज़ी में अनूदित उनकी कविताओं के संग्रह ‘एम्‍पेरर बाबूज़ प्रेयर एंड अदर पोएम्‍स’ (साहित्‍य अकादमी, 1991) में सम्मिलित है।

इस कविता की आखिरी तीन पंक्तियां पाठक को अपने तीव्र कटाक्ष की ताकत से सन्‍न कर देती हैं: और ये रही / ये रही हमारी कविता / हमारी कविता, जो आज महज चॉकलेट का एक डिब्‍बा है।

यथार्थ को आभास के रूप में जिस तरह प्रस्‍तुत किया जाने लगा है, हो सकता है इस बात का बोध होने के चलते अंतिम समय आते-आते चॉकलेट के प्रति उनका मोह कुछ कम हो गया रहा हो।


विद्यार्थी चटर्जी वरिष्ठ सिनेमा आलोचक हैं

(जनपथ के लिए मूल अंग्रेजी में लिखी गयी इस श्रद्धांजलि का अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है)


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