‘जंगल हमारे मैत हैं’ कहने वाली चिपको आंदोलन की प्रणेता गौरा देवी को लोगों ने भुला दिया!


चिपको आंदोलन की प्रणेता स्वर्गीय गौरा देवी को आज लोग भूल ही गये हैं। आज चिपको आन्दोलन की प्रतिछवियां तक शेष नहीं हैं। उत्तराखंड में वनों का जबरदस्त विनाश हो रहा है। पेड़ कट रहे हैं पर कोई भी सक्रिय और ध्यान खींचने वाला आन्दोलन अब वहां नहीं है।

गौरा देवी का जन्म 1925 में चमोली जिले के लाता गांव के एक मरछिया परिवार में नारायण सिंह के घर में हुआ था। गौरा देवी ने कक्षा पांच तक की शिक्षा भी ग्रहण की थी, जो बाद में उनके अदम्य साहस और उच्च विचारों का सम्बल बनी। मात्र 11 साल की उम्र में इनका विवाह रैंणी गांव के मेहरबान सिंह से हुआ। रैंणी भोटिया (तोलछा) का स्थायी आवासीय गांव था। ये लोग अपनी गुजर-बसर के लिए पशुपालन, ऊन का कारोबार और खेती-बाड़ी किया करते थे। जब गौरा देवी 22 साल की थीं और एकमात्र छोटा बेटा चन्द्र सिंह लगभग ढाई साल का, तब उनके पति का देहान्त हो गया। जनजातीय समाज में भी विधवा को कितनी ही विडम्बनाओं में जीना पड़ता है। गौरा देवी ने भी संकट झेले। गौरा देवी को ससुराल में रहकर छोटे बच्चे की परवरिश, वृद्ध सास-ससुर की सेवा और खेती-बाड़ी, कारोबार के लिए अत्यन्त कष्टों का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपने पुत्र को स्वावलम्बी बनाया। उन दिनों वहां भारत-तिब्बत व्यापार हुआ करता था। गौरा देवी ने उसके जरिये भी अपनी आजीविका का निर्वाह किया।

1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार बन्द हो गया तो चन्द्र सिंह ने ठेकेदारी, ऊनी कारोबार और मजदूरी द्वारा आजीविका चलायी, इससे गौरा देवी आश्वस्त हुईं और खाली समय में वह गांव के लोगों के सुख-दुःख में सहभागी होने लगीं। हल जोतने के लिए किसी और पुरुष की खुशामद से लेकर नन्हे बेटे और बूढ़े सास-ससुर की देख-रेख तक हर काम उन्हें करना होता था। फिर सास-ससुर भी चल बसे। गौरा माँ ने बेटे चन्द्र सिंह को अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बना दिया। इस समय तक तिब्बत व्यापार बन्द हो चुका था। जोशीमठ से आगे सड़क आने लगी थी। सेना तथा भारत तिब्बत सीमा पुलिस का यहां आगमन हो गया था। स्थानीय अर्थव्यवस्था का पारम्परिक ताना-बाना तो ध्वस्त हो ही गया था, कम शिक्षा के कारण आरक्षण का लाभ भी नहीं मिल पा रहा था। चन्द्र सिंह ने खेती, ऊनी कारोबार, मजदूरी और छोटी-मोटी ठेकेदारी के जरिये अपना जीवन संघर्ष जारी रखा। इसी बीच गौरा देवी की बहू भी आ गयी और फिर नाती-पोते हो गये।

परिवार से बाहर गाँव के कामों में शिरकत का मौका जब भी मिला, उसे उन्होंने निभाया। इसी बीच अलकनन्दा में 1970 में प्रलंयकारी बाढ़ आयी, जिससे यहां के लोगों में बाढ़ के कारण और उसके उपाय के प्रति जागरूकता बनी और इस कार्य के लिए प्रख्यात पर्यावरणविद श्री चण्डी प्रसाद भट्ट ने पहल की। भारत-चीन युद्ध के बाद भारत सरकार को चमोली की सुध आयी और यहां पर सैनिकों के लिए सुगम मार्ग बनाने के लिए पेड़ों का कटान शुरु हुआ जिससे बाढ़ से प्रभावित लोगों में संवेदनशील पहाड़ों के प्रति चेतना जागी। इसी चेतना का प्रतिफल था, हर गांव में महिला मंगल दलों की स्थापना।

1972 में गौरा देवी रैंणी महिला मंगल दल की अध्यक्षा बनीं। गौरा देवी पेड़ों के कटान को रोकने के साथ ही वृक्षारोपण के कार्यों में भी संलग्न रहीं, उन्होंने ऐसे कई कार्यक्रमों का नेतृत्व किया। आकाशवाणी नजीबाबाद के ग्रामीण कार्यक्रमों की सलाहकार समिति की भी वह सदस्य थीं। सीमित ग्रामीण दायरे में जीवनयापन करने के बावजूद वह दूर की समझ रखती थीं। उनके विचार जनहितकारी थे जिसमें पर्यावरण की रक्षा का भाव निहित था, नारी उत्थान और सामाजिक जागरण के प्रति उनकी विशेष रुचि थी। गौरा देवी जंगलों से अपना रिश्ता बताते हुए कहतीं थीं कि “जंगल हमारे मैत (मायका) हैं”।

नवम्बर 1973 में और उसके बाद गोविंद सिंह रावत, चंडी प्रसाद भट्ट, वासवानन्द नौटियाल, हयात सिंह तथा कई दर्जन छात्र उस क्षेत्र में आये। रैंणी तथा आस-पास के गाँवों में अनेक सभाएं हुईं। जनवरी 1974 में रैंणी जंगल के 2451 पेड़ों की नीलामी की बोली देहरादून में लगने वाली थी। मण्डल और फाटा की सफलता ने आन्दोलनकारियों में आत्म-विश्वास बढ़ाया था। वहां अपनी बात रखने की कोशिश में गये चंडी प्रसाद भट्ट अन्त में ठेकेदार के मुन्शी से कह आये कि अपने ठेकेदार को बता देना कि उसे चिपको आन्दोलन का मुकाबला करना पड़ेगा। उधर गोविन्द सिंह रावत ने ‘आ गया है लाल निशान, ठेकेदारो सावधान’ पर्चा क्षेत्र में स्वयं जाकर बाँटा। अन्ततः मण्डल और फाटा की तरह रैंणी में भी प्रतिरोध का नया रूप प्रकट हुआ।

चिपको आंदोलन, जिसने विश्वव्यापी पटल पर धूम मचायी, पर्वतीय लोगों की मंशा और इच्छाशक्ति का आयाम बना, विश्व के लोगों ने अनुसरण किया, लेकिन अपने ही लोगों ने उसे भुला दिया। एक क्रांतिकारी घटना, जिसकी याद में देश भर में चर्चा, गोष्ठियां और सम्मेलन आयोजित होने चाहिए थे, अफसोस! किसी को सुध तक नहीं रही। ‘पहले हमें काटो, फिर जंगल’ के नारे के साथ 26 मार्च, 1974 को शुरू हुआ यह आंदोलन उस वक्त जनमानस की आवाज बन गया था। गौरा देवी को चिपको वुमेन के नाम से दुनिया भर में जाना जाने लगा था, जिन्‍हें लोगों ने आज भुला दिया है।

इसीलिए आज पूरे भारत की सोचनीय स्थिति है। सब जगह सुनियोजित तरीके से जंगलों का विनाश किया जा रहा है और सरकार की भी उसमे मौन और मुखर सहमति है। आदिवासी क्षेत्र इसके निशाने पर हैं और उनके पुनर्वास तथा जीवनयापन, रोजगार की बाबत सोचने की किसी को फुरसत नहीं है। गौरा देवी का असली और सच्चा सम्मान तो उनके द्वारा चलाये गये अभियान को आगे ले जाने, जन जन का आन्दोलन बनाने एवं समृद्ध और सक्रिय करने में है।



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